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शिखर सम्मेलन से विदेशी नीति को नये आयाम

06:31 AM Sep 21, 2023 IST
जी. पार्थसारथी

एक ऐसे सम्मेलन की मेजबानी, जिसका मंतव्य वैश्विक आर्थिक चुनौतियों का सामना करना और भागीदार विश्व की अग्रणी आर्थिक ताकत के तौर पर 19 देश हों, तिस पर, हर कोई न सिर्फ एक शक्ति है बल्कि कई मुद्दों पर जिनके विचार धुर-विरोधी हैं, इस स्तर का आयोजन आसान काम नहीं है। पर भारत ने यह काम बहुत उम्दा कर दिखाया और नई दिल्ली के जी-20 शिखर सम्मेलन में परिणाम मिले। शायद कइयों को नतीजों पर या सम्मेलन संचालन पर आलोचनाएं करने का अवसर मिलने की आस थी। परंतु भारत की कथित कमियां निकालने पर आमादा चीनी मीडिया के निरंतर आलोचना अभियान के अलावा नई दिल्ली शिखर सम्मेलन के संचालन या निर्णयों को व्यापक अंतर्राष्ट्रीय सहमति और समर्थन मिला है।
रूस के साथ युद्धरत यूक्रेन द्वारा सम्मेलन-घोषणापत्र की आलोचना पूर्वानुमानित थी। विदेश मंत्री जयशंकर और उनकी टीम ने खासा वक्त और मेहनत लगाकर सुनिश्चित किया कि सम्मेलन-प्रस्ताव अमेरिका, रूस और चीन और बृहद अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को स्वीकार्य हो। भारत की लीक रही कि संवेदनशील मुद्दों पर निरोल राजनीतिक कारणों से आलोचनात्मक रुख रखने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। रोचक कि पाकिस्तान के प्रभावशाली और जिम्मेवार मीडिया के एक वर्ग ने भी नई दिल्ली में चली गतिविधियों की तारीफ की है। कराची स्थित शिक्षाविद‍् डॉ. मुनीस अहमर ने कहा ‘पिछले दो दशकों में वैश्विक अर्थव्यवस्था, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षा और अनुसंधान क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले भारत के लिए जी-20 का सफल आयोजन एक अन्य उपलब्धि है। जी-20 सम्मेलन की कथित खामियां खोजने की बजाय यह वह सबक है, जो पाकिस्तान को भारत से सीखना चाहिए।’
सम्मेलन के समक्ष सबसे विवादास्पद मुद्दा यूक्रेन-रूस युद्ध था, क्योंकि फिलहाल रूस-चीन और पश्चिमी जगत धुर विरोधी हैं। इस मुद्दे पर दोनों पक्षों के बीच जो पाट है, उस पर पुल बांधने की कोई गुंजाइश नहीं लगती थी। यह भी स्पष्ट था कि पश्चिमी मुल्क रूस की निंदा करवाकर नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे और रूस-चीन एवं कई अन्य देश इसका पुरजोर प्रतिरोध। वैसे भी, यूक्रेन के दक्षिणी समुद्र तट पर स्थित क्रीमिया पर रूस के दावे के पीछे तर्क लगता है क्योंकि 1783 से, ज़ारशाही द्वारा जीते जाने के बाद से, यह रूसी साम्राज्य का हिस्सा रहा। इसके अलावा, सदियों से क्रीमिया में रूस का दक्षिणी नौसैन्य बेड़े का अड्डा है। वर्ष 1954 में मुख्यतः प्रशासानिक कारणों से इसको सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन गणराज्य को सौंप दिया गया। ऐतिहासिक रूप से क्रीमिया आजाद यूक्रेन का हिस्सा नहीं रहा। क्रीमिया पर रूस का दावा जायज लगता है, यूक्रेनी सरकार से जिस प्रकार का संबंध दक्षिणी हिस्से में बसे रूसी बहुल लोगों का है, उसी तर्ज पर दोनों पक्षों को स्वीकार्य एक व्यावहारिक प्रबंधन व्यवस्था बनाने की जरूरत है।
जाहिर है दक्षिण यूक्रेन के इलाकाई विवाद का सैन्य हल नहीं हो सकता, यह उपाय यूक्रेन की सार्वभौमिकता का आदर करते हुए और वहां बसे रूसी भाषी लोगों के हक सुनिश्चित करके निकलेगा। यूक्रेन मुद्दे पर सर्वसम्मति बनाने में भारतीय राजनयिकों की मुख्य भूमिका अहम रही। भारत के फार्मूले में किसी मुल्क की आलोचना करने से बचा गया और परमाणु अस्त्रों के प्रयोग से इतर अंतर्राष्ट्रीय मानववादी कानून के सिद्धांत को सर्वोच्च रखने का आह्वान किया गया। हालांकि सम्मेलन द्वारा स्वीकार किए गए भारतीय प्रस्ताव की आलोचना यूक्रेन ने की है। परंतु जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज़ का कहना है कि भारतीय मसौदे में इस बात पर जोर रहना कि हिंसा प्रयोग से मुल्कों की क्षेत्रीय अखंडता भंग नहीं की जानी चाहिए, एक सुस्पष्ट स्थिति है। अलबत्ता रूस ने भारत द्वारा तैयार प्रस्ताव का पूर्ण समर्थन किया और बाइडेन प्रशासन का भी समर्थन मिला।
यूक्रेन युद्ध का सबसे बुरा असर उन समुद्री मार्गों का बंद होना है, जिससे होकर रूस और यूक्रेन का गेहंू अफ्रीकी देशों को पहुंचता है। तनाव बढ़ने के साथ, रूस ने काला सागर खाद्यान्न समझौते के अंतर्गत अफ्रीकी मुल्कों को अनाज और खाद की आपूर्ति से हाथ खींच लिया, जबकि उन्हें इसकी सख्त जरूरत है। जरूरतमंद देशों तक खाद्यान्न पहुंचाने के लिए आवागमन गलियारा तुरंत बहाल करने के लिए बैठक में जोरदार मांग उठी। उम्मीद है रूस और यूक्रेन इस मांग का आदर करेंगे। जी-20 नेतृत्व, जिनके हाथ में विश्व की कुल अर्थव्यवस्था का 85 फीसदी है, इस बिंदु पर अडिग हैं कि परमाणु हथियारों का प्रयोग या करने की धमकी देना सिरे से अस्वीकार्य है।
जी-20 शिखर सम्मेलन वार्ता का ध्यान मुख्यतः अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय और आर्थिक विषयों पर केंद्रित रहा। नई दिल्ली सम्मेलन में भी यह विमर्श आगे बढ़ा। यूरोपियन यूनियन ने सऊदी अरब, यूएई, भारत, जर्मनी, इटली, फ्रांस और अमेरिका को साथ लेकर, भारत-मध्य एशिया-यूरोप आर्थिक गलियारा (आईएमईसी) बनाने की पहल की है। यह परियोजना बेहतर संपर्क और आर्थिक एकीकरण के साथ एशिया, अरब की खाड़ी और यूरोपियन मुल्कों के आर्थिक विकास को बढ़ावा देगी। आईएमईसी परियोजना में दो अलग गलियारे होंगे, पूरबी गलियारा भारत को अरब की खाड़ी क्षेत्र से और उत्तरी गलियारा अरब की खाड़ी को यूरोप से जोड़ेगा। इसमें रेल मार्ग होगा, जिसके पूरा होने पर एक भरोसेमंद, किफायती, अंतर्राष्ट्रीय, जहाज-से-रेलमाल ढुलाई नेटवर्क बनेगा, जो वर्तमान नौवहनीय एवं सड़क परिवहन मार्ग व्यवस्था में अतिरिक्त क्षमता जोड़ेगा। इससे भारत और यूएई, सऊदी अरब, जॉर्डन, इस्राइल और यूरोप के मध्य माल एवं सेवाएं पहुंचाई जा सकेंगी।
इस परियोजना के क्रियान्वयन पर वार्ता जल्द शुरू होने की उम्मीद है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नई दिल्ली शिखर वार्ता में अनुपस्थित रहना चुना, इसको भारत के प्रति उनका पूर्वाग्रह माना जा रहा है। सनद रहे, चीन की बहु-प्रचारित परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ के हश्र में भागीदार देश इसके लिए चीन से लिया कर्ज उतारने लायक नहीं रहे। चीनी ‘मदद’ के लगभग सभी प्राप्तकर्ता न चुकाने योग्य ऋण के दलदल में धंस चुके हैं। परियोजना के तहत जो सड़कें बनी हैं, उनमें ज्यादातर का निर्माण अलाभकारी और अनुपयोगी है क्योंकि इस्तेमाल बहुत कम है।
सम्मेलन को लेकर आम लोगों की रुचि मुख्य रूप से भारत-अमेरिका संबंध और हिंद महासागर क्षेत्र के घटनाक्रम पर रही, लेकिन मीडिया और लोगों की नज़र भारत के लिए सबसे अहम रिश्ते यानी अरब देशों से, खासकर सऊदी अरब और यूएई, पर ज्यादा नहीं रही। इन दो अग्रणी खाड़ी मुल्कों के साथ भारत के संबंधों में लगातार सुधार आया है। भारत ने समूचे हिंद महासागर क्षेत्र में बढ़ती जा रही चुनौतियों का सामना करने के लिए चुपचाप रहकर काम किया है, ऐसे एक प्रयास में, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार अजीत डोभाल और उनके अमेरिकी समकक्ष जेक स्लीवन की सऊदी अरब यात्रा रही, जिसका मकसद सऊदी अरब-अमेरिका संबंधों की पुनर्स्थापना था। इसके परिणाम में नई दिल्ली में बाइडेन और युवराज सलमान के बीच मित्रतापूर्ण आदान-प्रदान रहा। युवराज सलमान ने इससे पहले बाइडेन के कुछ असहज बयानों पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी।
आईएमईसी में यूएई की भागीदारी का परिणाम है कि सुल्तान शेख अहमद बिन ज़ायद दिल्ली आए और गलियारा संधि पर हस्ताक्षर किए। खाड़ी क्षेत्र में भारत की सामरिक उपस्थिति को भारत, इस्राइल, यूएई और अमेरिका द्वारा बनाए आई2यू2 गुट से भी बल मिला है। यह आर्थिक और सुरक्षा सहयोग के लिए उपयोगी तंत्र मुहैया करवाता है। जहां एक ओर चीन अपने लिए ज्यादा पसंदगी नहीं बनवा पाया और उसकी ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ परियोजना से ज्यादातर मुल्क छिटकने लगे हैं वहीं आईएमईसी के भागीदारों के लिए इसका सामरिक असर एकदम उलट रहेगा।

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लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

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