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न धीर-न गंभीर, फिर भी चमके बयानवीर

06:33 AM Sep 22, 2023 IST
न धीर न गंभीर  फिर भी चमके बयानवीर
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मनीष कुमार चौधरी

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बयान देने के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। पूत के पांव पालने में नजर आ जाते हैं। कोई तीन साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला बयान दे डाला था, जब दूध के दांत भी ठीक से पके नहीं थे। बयान पारिवारिक कम, पॉलिटिकल ज्यादा था। अपने बड़े की भाई की तुलना में माता-पिता उस पर कम स्नेह लुटा रहे हैं, ऐसा कह कर उसने यह जतला दिया कि असमानता का व्यवहार उसे मंजूर नहीं। लेकिन मां-बाप उसकी बयानबाजी से चिंतित नहीं हुए। उस राजनीतिक बयान में उन्हें अपने बेटे में भविष्य का नेता नजर आया था। वह बच्चा बड़ा होकर राजनीति में कूदा और खालिस नेता बन गया। नेता आदमी की प्रकृतिगत विशेषता होती है कि वह जब चाहे, जहां चाहे, जैसा जी चाहे बयान उगल सकता है।
वह नेता भी कमाल का बयानवीर नेता था। बयान देने में उसकी प्रतिभा का आलम यह था कि भरी नींद में उठा कर उसे बयान देने को कहा जाए तो वह ऐसा जोरदार बयान देता था, मानो सोते समय उसे रट कर सोया हो। दिनभर में बीस-पच्चीस बयान देना उसके लिए मामूली बात थी। बयान देने के बाद बयान से पलटना उसके लिए इससे भी ज्यादा मामूली बात थी। अपने पर भरोसा इतना कि प्रत्यक्ष वीडियो-ऑडियो दिखाने-सुनाने के बाद भी वह अपने बयान से मुकर जाता। बयान से पलटने की क्षमता उसमें इस कदर कूट-कूट कर भरी थी कि लाइव चर्चा में भी वह अपने दिए बयान से पलटी खा जाता।
वैसे भी नेता का कहना भी क्या कहना। पल में तोला, पल में माशा, पल में रत्ती। जिसका चरित्र गिरगिट के रंग जैसा हो, उसके कहे पर क्या जाना। गंगा गए तो गंगा दास, जमुना गए तो जमुना दास। दिल्ली में जो बयान दिया, गुजरात जाकर उससे पलटी खा गए। पंजाब गए तो फिर बयान बदल दिया। वापस दिल्ली आए तो वही बयान दे डाला।
बयान न हुआ, पठार का मौसम हो गया। सुबह ऐसा, शाम वैसा। उनकी प्रकृति हवा के रुख-सी होती है। जिस तरफ हवा बहती, उनका बयान भी उस दिशा में होता। इधर हवा बदलती, उधर बयान भी बदल जाता। उनके बयान बड़े यथार्थवादी यानी मिट्टी से जुड़े लगते, पर इतने क्षणभंगुर होते कि कब मिट्टी में मिल जाए, कह नहीं सकते। वे होते हैं, फिर भी नहीं होते। न तो वे बयान देने से पहले सोचते थे, न बयान देने के बाद। एक बार तो उन्होंने एक घंटे में कोई दस क्रांतिकारी बयान दे डाले और अगले आधे घंटे में दसों के दस बयानों से मुकर गए थे। इसका मुख्य कारण था कि बयानों के मामले में वे दिल की नहीं ‘दिमाग’ की सुनते थे। राज की बात यह कि वे राजनीति में अब तक टिके हुए ही इसलिए थे कि पार्टी में उन-सा बयानवीर कोई दूसरा न था।

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