एक जवाबदेह चुनावी घोषणा पत्र की दरकार
नरेश कौशल
देश में आम चुनावों के बाद हो रहे विधानसभा चुनावों में एक बार फिर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का खेल जोर-शोर से चल रहा है। जनता में राजनीतिक दलों की घटती साख और रीति-नीतियों के प्रति जनता में उपजे अविश्वास के बीच राजनेता मुफ्त का खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे लोकलुभावन का शॉर्टकट रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। वे मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की कहावत को अपना रहे हैं। उन्हें पता है कि मुफ्त के माल का पैसा कौन-सा उनकी जेब से जा रहा है। बोझ तो सरकारी खजाने पर पड़ेगा। दुर्भाग्य से देश में ऐसी कोई नियामक व्यवस्था नहीं बन पायी कि मुफ्त की रेवड़ियों के खर्च की जवाबदेही नेताओं व राजनीतिक दलों के लिये तय की जा सके। चुनाव आयोग भी इस घातक रिवाज पर रोक लगाने में विफल ही लगता है। हकीकत यह है कि जब तक हम जनता को जागरूक नहीं करेंगे और जनता ही नेताओं पर दबाव नहीं बनाएगी, तब तक मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का यह खेल यूं ही चलता रहेगा।
वैसे हकीकत यह है कि जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, राजनीतिक दलों के मुफ्त के वादों के घोषणापत्रों पर लगाम नहीं लगेगी। यह एक हकीकत है कि सरकारों व राजनीतिक दलों के तमाम थोथे दावों के बावजूद हम देश के अधिसंख्य नागरिकों को राजनीतिक रूप से इतना सजग-सचेत नहीं कर पाए हैं कि वे मुफ्त के प्रलोभनों, जाति, धर्म व क्षेत्रीयता की संकीर्णताओं से उठकर मतदान कर सकें। यदि देश का अधिसंख्य मतदाता राजनीतिक रूप से जागरूक होता तो मुफ्त की रेवड़ियों को वह ठुकरा देता। हकीकत में जागरूक नागरिकों व लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति सजग स्वयंसेवी संस्थाओं को सर्वप्रथम किसी भी राज्य या देश के मौजूदा बजट का आकलन करना होगा। यह कि राज्य को किन-किन स्रोतों से राजस्व प्राप्त हो रहा है। कितना ऋण राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लिया गया है। राज्य पर कुल ऋण का कितना बोझ है। उस पर कितना ब्याज लगातार राज्य को देना पड़ रहा है। यह सब राजनीतिक दलों व नेताओं को जनता को बताना होगा। मतदाताओं को अहसास कराना होगा कि उसके पास कितनी चादर है और उसे कितने पैर पसारने होंगे।
एक बात तो तय है कि देश-प्रदेश के आर्थिक स्वास्थ्य के हित में हर हाल में लोकलुभावन घोषणाओं और मुफ्त की रेवड़ियों का प्रचलन बंद करना ही होगा। मतदाताओं में राष्ट्र और प्रदेश पहले है, की भावना जाग्रत करनी होगी। वहीं दूसरी ओर मुफ्त में राशन बांटकर जनता को सरकार पर आश्रित बनाये रखने की नीति बदलनी होगी ताकि लोग नाकारा होकर न रह जाएं। लोगों को सरकारी बैसाखी देने के बजाय उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया जाए। उन्हें मुफ्त राशन देने के बजाय सस्ता लोन दिया जा सकता है ताकि वे अपना काम धंधा शुरू करके आत्मनिर्भर हो सकें। यह लोककल्याण स्थायी होगा और बहुत संभव है कि यदि ऋण लेने से वे कोई काम-धंधा चला सकें तो दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं। सरकार व राजनीतिक दलों को सरकारी कर्मचारियों व वेतनभोगियों को बजट की वास्तविक स्थिति से भी अवगत कराना होगा। होता यह है कि राज्य की वास्तविक आर्थिक स्थिति को जानते हुए भी कर्मचारी संगठन सुविधाओं को बढ़ाने के लिये आंदोलन करते रहते हैं। उन्हीं से राय लेनी होगी कि यदि उनके वेतन-भत्ते बढ़ाने हैं तो बजट में उस राशि की पूर्ति आय के किन स्रोतों से की जा सकती है।
एक बात तो तय है कि निश्चित रूप से फ्री बिजली और पानी की नीति बंद करनी होगी। हां, शुद्ध पेयजल व शुद्ध पर्यावरण नि:शुल्क पाना नागरिकों का अधिकार है। वहीं दूसरी ओर बजट में शिक्षा, जन स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का कल्याण, महिलाओं के उत्थान हेतु पौष्टिक आहार जुटाने तथा समाज व बाल कल्याण हेतु अधिकतम प्रावधान होना चाहिए। दूसरी ओर शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, आंगनवाड़ी केंद्रों, खेलकूद संस्थानों आदि के लिये प्राथमिक आधार पर बजट की दरकार रहेगी। शिक्षा के स्वरूप में एकरूपता होनी चाहिए। होना तो यह चाहिए कि सरकारी स्कूलों के शिक्षा का स्तर निजी स्कूलों से बेहतर, नहीं तो कम से कम उनके बराबर तो हो। आम आदमी सरकार ने दिल्ली में जिस शिक्षा नीति को लागू किया, उसके अच्छे परिणाम मिले हैं। इसी तरह मोहल्ला क्लीनिक के प्रयोग को भी सराहा गया है। एक आदर्श घोषणा पत्र में ऐसी सुविधाओं का प्रावधान तो होना ही चाहिए।
वहीं वोट जुटाने के लिये अवैध बस्तियों को वैध बनाने का जो दुर्भाग्यपूर्ण खेल शुरू हुआ है, उसका घातक असर नागरिक सेवाओं पर पड़ रहा है। जिन लोगों ने ईमानदारी से मेहनत की कमाई से कानूनी रूप से वैध मकान बनाए हैं और उसकी बड़ी कीमत चुकाई है, उन्हीं को इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। अवैध रूप से बसायी गई इन बस्तियों के लिये बिजली, पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधायें देने का नकारात्मक प्रभाव वैध बस्तियों के नागरिकों पर पड़ रहा है। जरूरतमंद नागरिकों हेतु छत या बस्ती बसाने के लिए योजनाबद्ध नीतियां बनायी जानी चािहए।
उधर, बजट में आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विभिन्न गोष्ठियों में लोगों की बजट के बारे में राय लेनी होगी कि राज्य की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर रखते हुए कैसा बजट बनाया जा सकता है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से बचना होगा। ताकि करदाताओं पर करों का अतिरिक्त बोझ न पड़े। आखिरकार इस फ्री राशन का बोझ देश की मध्यवर्गीय जनता की जेब पर ही पड़ता है। जिसकी वजह से मध्यवर्ग पिसता है- अमीर और गरीब के पाट के बीच में। सही अर्थों में होना तो यह चाहिए कि राज्य की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने को कदम उठाये जाएं। राज्य सरकार पर जो करोड़ों रुपये का ऋण का बोझ है, उसे उतारने के उपाय घोषणा पत्र में दर्ज हों कि कर चुकाने के लिये सभी किस तरह से सहयोग करेंगे।
जैसे कि पहले कहा गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिये ज्यादा बजट का प्रावधान होना चाहिए। दवाइयां सस्ती करने के लिये विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। किसानों के लिये खाद, बीज, कीटनाशक व सिंचाई की सुविधा तथा खेती में काम आने वाले उपकरण मसलन ट्रैक्टर आदि सस्ते मूल्य पर उपलब्ध कराये जाएं। बजाय कि ऋण माफ करने तथा सस्ती बिजली-पानी देने के। यदि हम किसान की कृषि उत्पादन की लागत कम कर देंगे, तो फिर किसान की सरकार पर निर्भरता कम हो जायेगी। सत्ताधीशों को याद रखना चाहिए कि सरकार का पहला फर्ज लोककल्याणकारी शासन के लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। बच्चों के लिये सस्ती एवं गुणवत्ता वाली शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। सत्तर वर्ष से ऊपर के लोग सरकार की प्राथमिकता में हों। उनके लिये नि:शुल्क चिकित्सा की व्यवस्था हो। साथ ही बदलते सामाजिक दौर में असहाय स्थिति में रह रहे बुजुर्गों के लिये गुणवत्ता वाले नि:शुल्क वृद्धाश्रमों की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर की जाए।
इसके बावजूद यदि राजनीतिक दलों व नेताओं को कुछ मुफ्त बांटने की ज्यादा ही इच्छा हो तो वे अपने या पार्टी फंड से ऐसी व्यवस्था करें। साथ ही पार्टी फंड से जनकल्याण के बजट में योगदान करें। चुनाव के दौरान प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से अरबों रुपये जैसे पानी की तरह बहाये जाते हैं, यदि उसी धन को कमजोर वर्गों के कल्याण व नागरिक सुविधाएं सुधारने के लिये लगाया जाए तो जनता का ज्यादा भला होगा। अब वक्त आ गया है कि देश की जनता, जागरूक स्वयंसेवी संस्थाएं तथा राजनीतिक दल इस समस्या का सार्थक समाधान निकालें।