हार के बाद न इधर के रहे न उधर के
शमीम शर्मा
अच्छे-अच्छे प्रेमी चक्कर खा जाते हैं जब भुट्टे को देखकर उनकी प्रेमिका कहे कि हैंडल वाला पॉपकॉर्न लेकर आओ। चुनावी वेला में वोटरों ने भी ऐसी-वैसी लाखों डिमांड रख कर नेताओं के सिर में खड्डे किये होंगे। परिणामस्वरूप कई नेताओं ने तो इलेक्शन को इल एक्शन कह कर कभी चुनाव न लड़ने की प्रतिज्ञा ले ही ली होगी। पर नेतागीरी के ऐसे भी दीवाने हैं जिन्होंने हारते ही आगामी चुनावों के लिए कमर कस ली होगी। असल में सत्ता का नशा ही इतना मुखर है कि हर कोई इसे हथियाना चाहता है। आज नहीं तो कल। और इसी उम्मीद में पांच साल कब बीत जाते हैं, उम्मीदवार को पता भी नहीं चलता।
इस बार के चुनावी नतीजों में सबसे ज्यादा ईवीएम खुश है। वरना तो हर बार हार का ठीकरा उसी के सिर फूटता है। शुक्र है कि इस बार ज्यादा छींटमछींट नहीं हुई। इस बार पता नहीं किस की शामत आयेगी। एक बार तो सन्नाटा-सा पसरा दिखाई दे रहा है। चुनाव के सारे चरण खत्म हो चुके हैं। अब तो वोटर के चरण चूल्हे-चाकी की तरफ और नेताओं के चरण तिया-पांचा करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
चुनावों में पैसा-दारू अब रम चुके हैं। गड्डियां और बोतलें किसे नहीं सुहाती? सब लेना चाहते हैं। कोई खुलेआम कोई चुपके-चुपके। इन चीज़ों से परहेज और नफरत जैसी भावनाएं यूं विलुप्त हो गई हैं जैसे गधे के सिर से सींग। असल में सबने स्वीकार लिया है कि ये चुनाव का अनिवार्य अंग हैं। एक मनचले नेता ने वोटरों को नसीहत देते हुए चेतावनी दी- जाति देखकर वोट देने वालो, याद रखो तुम अपना नेता चुन रहे हो, जीजा नहीं।
संस्कृत का एक श्लोक मूर्खों के पांच लक्षण बताता है—गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बात का अनादर। चुनावी वेला में ये पांच लक्षण कई उम्मीदवारों में देखने को मिलते हैं और हार का कारण बनते हैं जिसका अहसास उन्हें बाद में होता है। पश्चाताप का पता होता है या नहीं। इनके साथ तो वही बनती है कि भंडारे में भोजन भी नहीं मिला और चप्पल भी चोरी हो गई।
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एक बर की बात है अक नत्थू चुनाव हार ग्या अर भूंडा-सा मुंह बणा कै चुपचुपाता बैठ ग्या। उसका ढब्बी बूज्झण लाग्या अक ईब के करैगा। नत्थू मात्थे पै तेवड़ी चढ़ाते होये बोल्या- करणा कराणा के है, बस ईब तो सुरजे किसान धोरै जांगा। उसके ढब्बी नैं हैरानी तै बूज्झी- किसान धोरै क्यूं? नत्थू बोल्या- उस धोरै हल है।