बचपन को पटरी पर लाने की दरकार
आज के इस भागदौड़ भरे जीवन में संवेदनाएं दम तोड़ रही हैं, संस्कार और सहनशीलता तिरोहित होते जा रहे हैं। पश्चिमी संस्कृति और बाज़ारवाद की होड़ ने मानो इंसानियत को अपने पंजों में जकड़ लिया हो। फिर भी आज अगर दुनिया के तमाम देशों में भारतीय मूल के युवा शीर्ष पदों पर अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ रहे हैं तो कहना न होगा कि इस सफलता के मूल में वे तमाम हमारे पारिवारिक संस्कार ही हैं जिनकी पुष्टि आज पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक अपने शोध में कर रहे हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि प्रकृति के साथ जीना, परिवार का संबल और आध्यात्मिक ऊर्जा हमें मुश्किल हालात में जूझने की ताकत देते रहे हैं। मगर यदि हमने अपने संस्कारों और नैतिक मूल्यों की द्रुतगामी गिरावट को न रोका तो प्रतिभा के झंडों को भी झुकने से रोकना कठिन हो जायेगा।
यह प्रकृति के साथ जीने और परिवार के संबल का ही परिणाम है जो कठिन परिस्थितियों में भी जूझने की आध्यात्मिक ऊर्जा देते हैं। परंतु ऐसे मूल्यों के पतन स्वरूप आज परिवारों के बिखराव और वृद्धाश्रमों के प्रसार की चिंताजनक स्थिति बनती जा रही है। दरअसल, संवेदनहीनता और असहनशीलता के बीज बाल-मन में तब से ही आरोपित होने शुरू हो गये हैं जब से संयुक्त परिवारों में दरारें पड़ने लगी हैं। मगर क्या हमने सोचा है कि परिवार आखिर क्यों बिखर रहे हैं? दरअसल, इस बिखराव के बीज बचपन के धरातल पर ही पाये जाने लगे हैं। बदलाव के इस संक्रमणकालीन दौर का सबसे ज्यादा असर बच्चों पर है। उनका दादा-दादी और नाना-नानी से जुड़ाव न के बराबर हुआ तो फिर वे भविष्य में अपने मां-बाप की भी अनदेखी करने लगे। मोबाइल पर ज्यादा लगे रहने के कारण वे जिंदगी की हकीकत से उदासीन हो गये। उनमें मानवीय संवेदनाएं कम हुई हैं। कभी हमने सोचा कि अमेरिका में लगातार बच्चों द्वारा अपने सहपाठियों को बार-बार बंदूक- गोली से उड़ाने की घटनाएं क्यों हो रही हैं? भारत के कई नामी स्कूलों में भी अब सहपाठियों की हत्या करने की खबरें आ रही हैं। हम क्यों इस खतरे की घंटी को महसूस नहीं कर रहे हैं।
बड़ा संकट यह है कि बच्चों में स्वाभाविक बचपन खत्म हो रहा है। कहने को तो वे इंटरनेट और मोबाइल से जुड़कर हाईटैक हुए हैं मगर अपनी जड़ों से कटे हैं। अपने आसपास से बेखबर हैं। अपनों से दूर हैं। बदलती कुदरत से अनजान हैं। रिश्तों से बेखबर हैं। उनके पैरों तले की वो जमीन खिसक रही है जिस पर खड़े होकर पुरानी पीढ़ियां अपना भविष्य संवारती थीं। आये दिन घंटों ऑनलाइन गेम-कार्टून देखने वाले बच्चे ही कार्टून बन रहे हैं। वे उस ताकत को खो रहे हैं जो बड़े होकर संघर्ष की ताकत देती थी। एक घटना आईना दिखाती है। पिछले दिनों तब हंगामा मचा जब हिमाचल में एक विधायक ने एक ग्रामीण प्राइमरी स्कूल के बच्चों से अपने देश का नाम पूछा तो वे नहीं बता पाये। इस खबर से शिक्षा विभाग में खलबली मच गई। हलचल दिल्ली तक हुई और इस बात पर मंथन हो रहा है कि खोट कहां रह गयी। ये हालात क्यों पैदा हुए? क्या टीचर दोषी हैं? अभिभावक दोषी हैं? या zwj;वो आबोहवा जो आज बच्चों में आभासी दुनिया का इतना नशा भर देती है कि उन्हें अपनी जमीन का पता तक नहीं होता।
अब हरियाणा सरकार के शिक्षा विभाग ने इस दिशा में एक रचनात्मक पहल की है। गर्मियों की छुट्टियों में किताबी होमवर्क देने के बजाय व्यावहारिक जीवन संवारने के लिये होमवर्क दिया जा रहा है। शिक्षक व अभिभावकों के तालमेल से इन छुट्टियों के लिये बेहद उपयोगी रोड मैप बनाया गया है।
यह पक्की बात है कि यदि पूरे देश में ये कोशिशें सिरे चढ़ें तो हम विद्यार्थियों की गर्मियों की छुट्टियों को जीवन संवारने के अवसर में बदल सकते हैं। इसके लिये जरूरी है कि उन्हें उबाऊ व किताबी होमवर्क न दिया जाये। बल्कि इस बार व्यावहारिक जीवन का होमवर्क दिया जाये। ताकि बच्चे अपने परिवार, रिश्तों, रिवायती जीवन शैली, आसपास के माहौल, हमारे रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली वस्तुओं, खानपान की चीजों व परंपरागत जीवन शैली से परिचित हो सकें।
आज बच्चों को मां-बाप व टीचर के बजाय मोबाइल कंपनियों के सूत्रधार ज्यादा ज्ञान दे रहे हैं। पहले तो ‘ब्ल्यू व्हेल’ जैसे एक ऑनलाइन गेम का खतरा था जो बच्चों का जीवन लील रहा था, आज तो हजारों ‘ब्ल्यू व्हेल’ जैसे कार्यक्रम हैं।
चिंताजनक है कि आज बड़ों के साथ बच्चों की भी याद करने की क्षमता कम हो रही है। कभी हमें तमाम मोबाइल नंबर याद रहते थे। मोबाइल के साथ लैंडलाइन के भी। आज इक्का-दुक्का नंबर ही याद रहते हैं। क्यों न बच्चों को परिवार व रिश्तेदारों के नंबर याद करना सिखाएं। बच्चे फास्ट फूड के बजाय स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक खाना सीखें। उन्हें अंकुरित अनाज खाना सिखाया जाये ताकि उन्हें इस जीवनी शक्ति का लाभ जीवन में लगातार मिल सके। बच्चे प्रकृति से जुड़ सकें, इसके लिये प्रयास किये जाएं। प्रकृति के हर पल के बदलाव को महसूस करें। बच्चों को फसलों व फलों के पौधों के उगने और फल आने की प्रक्रिया के बारे में बताया जाये। वे गमलों में रोज पानी डालें, पौधों की देखभाल करें। इससे उन्हें पौधों के विकास की जानकारी मिल सकेगी। एक समय बच्चों के मानसिक विकास के लिये पहेलियां सिखाने पर जोर दिया जाता था, क्यों न इन छुट्टियों में एक बार फिर नई शुरुआत की जाये। ये सब इस रचनात्मक होमवर्क का हिस्सा है।
फिक्र की बात है कि बच्चे आज अपने घर में मौजूद चीजों के बारे में भी नहीं जानते। नहीं जानते कि किचन में मां किन धातुओं के बर्तनों का उपयोग करती है। आटे, दाल व चावल की किस्मों से लेकर नमक तक के विभिन्न खाद्य पदार्थों की जानकारी उन्हें दी जाए। वे मसालों के बारे में नहीं जानते कि हम कौन-कौन सा मसाला रोज प्रयोग करते हैं।
हरियाणा द्वारा निर्धारित छुट्टियों के होमवर्क में उल्लेख है कि अभिभावक कोशिश करें वे अपने दादा-दादी व नाना-नानी के साथ समय बिताएं। वे अपने चाचा-ताऊ, बुआ-मामा, मौसा-मौसी के बारे जानते हों, अन्यथा अंग्रेजों की तरह सिर्फ अंकल-आंटी ही याद रह जाएंगे। निश्चय ही इस प्रयोग से हमारी बिखरती संयुक्त परिवार प्रणाली को मजबूती मिलेगी। हमें आत्मसंयम व आत्मबल बढ़ाने के लिये आध्यात्मिक शक्ति से बच्चों को अवगत कराना चाहिए। बच्चों को कोई न कोई प्रार्थना, भजन, शबद या धार्मिक गीत याद होना चाहिए ताकि वे अपने परिवार के संस्कारों से जुड़ सकें। मोबाइल से दूरी बनाने के लिये चुटकले सुनाने, सांप-सीढ़ी, लूडो तथा कैरम आदि परंपरागत खेलों से भी उन्हें रूबरू कराना चाहिए। जाहिर है बच्चे इन परंपरागत खेलों से जुड़कर ऑनलाइन गेम की लत से दूर हो सकेंगे। हालिया वैज्ञानिक अनुसंधान बता रहे हैं कि जल्दी उठने का संबंध हमारे स्वास्थ्य से होता है। फलत: बच्चों की दिनचर्या ऐसी हो कि वे स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रह सकें।
फिक्र की बात यह भी है कि बच्चे किताबों-अखबारों से दूर होते जा रहे हैं। बच्चों का सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिये अखबार पढ़ने की आदत डाली जानी चाहिए। उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे रोज कितनी देर मोबाइल व टीवी देखते हैं और कितनी देर किताब व अखबार पढ़ते हैं। जाहिर है अब समय की मांग है कि बच्चे अपनी जमीन, संस्कार, परिवार व समाज की जड़ों से जुड़ें। बच्चे आज अपनी जमीन छोड़कर कृत्रिमताओं में जी रहे हैं। इससे उनका शारीरिक व मानसिक विकास रुक रहा है।
यहां यह भी स्मरण कराना जरूरी है कि करीब डेढ़ दशक पहले हरियाणा में तामझाम से शुरू की गयी एजुसेट संचार शिक्षा प्रणाली दयनीय हालत में होकर निपट चुकी है। ऐसे में आशा की जानी चाहिए कि अब नयी रचनात्मक उपयोगी पहल न केवल हरियाणा में निरंतर जारी रहेगी बल्कि देश के अन्य राज्य भी बचपन के धरातल पर आदर्श के नये बीज अंकुरित करने को तत्पर होंगे।