यम-नियम के अनुपालन से ही नैतिक उत्थान
कुछ गतिविधियों से बचने और कुछ मर्यादाओं में बंधने पर ही मनुष्य आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग पर बढ़ता है। कुछ चीजों से बचाव यम और कुछ का पालन नियम हैं। असल में ऋषि पतंजलि के आठ योग सूत्रों के अहम अंग हैं यम और नियम। इन्हें समझने और उसी अनुरूप पालन करने से मनुष्य का व्यक्तित्व बेहतरी की ओर रूपांतरित होने लगता है।
विजय सिंगल
प्राचीन ऋषि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में, योग (अष्टांग योग) के आठ अंग बताए हैं, जिनके निष्ठापूर्वक अभ्यास से शरीर और मन की अशुद्धियां दूर हो जाती हैं; और आत्मा का ज्ञान प्रकट हो जाता है। योग के ये अंग हैं- यम (बुरे कर्मों से बचना), नियम (अच्छे व्यवहार का पालन), आसन (बैठने की मुद्रा), प्राणायाम (श्वास का नियमन), प्रत्याहार (इंद्रियों का उनके विषयों से निग्रह), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (स्वयं के स्वरूप का ध्यान); एवं समाधि (चेतना का आत्मा में विलय)।
मुक्ति के इस अष्टांगिक मार्ग के पहले दो घटकों- यम एवं नियमों का वर्णन सूत्र संख्या 2.30 से लेकर 2.45 तक में किया गया है। यमों में कुछ गतिविधियां बताई गई हैं, जिनसे मनुष्य को सदा बचना चाहिए। नियमों में कुछ मर्यादाएं निर्धारित की गई हैं, जिनका पालन करना आवश्यक है। दोनों (यम एवं नियमों) ने मिलकर नैतिकता के ऐसे सिद्धांतों को स्थापित किया है, जिनके अनुसरण से व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग पर आगे की यात्रा के लिए स्वयं को तैयार कर सकता है।
अहिंसा (हिंसा का त्याग), सत्य (झूठ से दूर रहना), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (विषय वासना से इंद्रियों का निग्रह) तथा अपरिग्रह (अपनी आवश्यकता से अधिक सामग्री का संग्रह न करना)- ये पांच संयम (यम) हैं। इन नैतिक सिद्धांतों को महान सार्वभौमिक व्रत कहा गया है; और आत्म-साक्षात्कार के इच्छुक व्यक्ति से हर परिस्थिति में इन दोषों से दूर रहने का आग्रह किया गया है।
जिन आचार-व्यवहारों (नियमों) का पालन जरूरी बताया गया है, वे हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान। शौच का तात्पर्य शरीर और मन की स्वच्छता से है। द्वेष, भय, अहंकार और ईर्ष्या आदि से मुक्त होने पर मन को स्वच्छ कहा जाता है। एक मुक्त मन ही प्रसन्न मन होता है। संतोष तृप्ति की अवस्था को दर्शाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति जान जाता है कि वासना के विषयों से प्राप्त सुख क्षणिक तथा भंगुर है। इसलिए वो सांसारिक वस्तुओं के पीछे नहीं भागता। जो कुछ भी उसको प्राप्त होता है, वो उसी में संतुष्ट रहता है। जीवन के प्रति संतोष का भाव विकसित करके मनुष्य उस परम आनंद का अनुभव कर सकता है, जो स्वयं में निहित है।
तप से आशय है संयम, अर्थात इंद्रियों को वश में रखना। आत्म-अनुशासन से शरीर स्वस्थ बनता है; और दृष्टि, श्रवण आदि इंद्रियों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती है। स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है स्वयं का अध्ययन। यह पवित्र धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन को भी इंगित करता है। ये दोनों अर्थ परस्पर विरोधी नहीं हैं, क्योंकि धार्मिक ग्रन्थ भी आत्म का ही ज्ञान प्रदान करते हैं। ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है ईश्वर के प्रति पूर्ण और बिना शर्त समर्पण। सच्चे प्रेम और अनन्य भक्ति द्वारा व्यक्ति सर्वोच्च शक्ति को उसी रूप में प्राप्त कर लेता है, जिस रूप में वह उसकी पूजा करता है।
मार्गदर्शन करने वाले नैतिक पाठ
यम व नियम नैतिकता के वे पाठ हैं जो मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं और बताते हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं। ये मूल्य-प्रणालियां व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा आध्यात्मिक अभ्यास की दृढ़ नींव रखती हैं। मन, वचन और कर्म से जब इन सिद्धांतों का पालन किया जाता है, तब आत्म-साक्षात्कार के मार्ग की सब बाधाएं दूर हो जाती हैं और व्यक्ति अंतरतम चेतना को समझने के योग्य हो जाता है। इन मूल्यों में दृढ़ता से स्थापित होने पर मनुष्य भौतिक सम्पन्नता एवं आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
असत्य और हिंसा से बचें
आत्म-ज्ञान के नैतिक साधन होने के कारण, यमों और नियमों को अनैतिक तरीकों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। पतंजलि ने बताया है कि हिंसा तथा असत्य जैसे बुरे कर्म, जो आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं; लोभ, क्रोध अथवा भ्रम के कारण पैदा होते हैं। किसी भी रूप में और किसी भी मात्रा में किए गए इन कर्मों का अंतिम परिणाम निरन्तर दुख ही होता है। इसलिए मनुष्य को ऐसे कर्मों के दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए सदा उनसे बचना चाहिए।
नकारात्मक विचारों से सिर्फ बाधाएं
आध्यात्मिक विकास के पथ पर, एक आकांक्षी को नकारात्मक विचारों के रूप में असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इस तरह के विचार स्वयं की अवचेतन गहराई में सुषुप्त पड़े संचित संस्कारों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन योग सूत्रों में यह समझाया गया है कि इस तरह के कष्टदायक विचारों के उभरने पर निराश नहीं होना चाहिए। जरूरत है अप्रिय विचारों का मुकाबला सचेत रूप से करने की। जैसे ही व्यक्ति अपने विद्वेषपूर्ण विचारों के दुष्चक्र के प्रति जागरूक हो, उसे सद्भावनापूर्ण विचारों का आह्वान करके अप्रिय विचारों को समाप्त करने का सचेत प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी के प्रति नफरत का प्रतिकार उसके प्रति प्रेम जगाकर किया जा सकता है।
आध्यात्मिक अनुशासन
ऐसे कठोर आध्यात्मिक अनुशासन की व्यावहारिकता पर अक्सर संदेह व्यक्त किया जाता है। यद्यपि सामान्य जीवन में इन सिद्धांतों का पालन कठिन प्रतीत होता है, वास्तव में ऐसा नहीं है। दैनिक व्यवहार में यह सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह उन दीयों की तरह हैं जो प्रत्येक व्यक्ति के पथ को रोशन करते हैं। इनका प्रकाश व्यक्ति को बार-बार होने वाले प्रलोभनों के चंगुल और अनावश्यक भय एवं अवांछित संशयों से बचाता है। यमों और नियमों का जो कोई भी जितना अधिक पालन करता है, उसे उतना ही अधिक लाभ होता है।
जब यमों और नियमों को आत्मसात कर लिया जाता है और स्वेच्छा से उनका पालन किया जाता है, तब इंद्रियां स्वयं ही नियंत्रण में आने लगती हैं और मन की अशुद्धियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं। इस प्रकार शुद्ध हुआ मन आत्मा के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने में सक्षम हो जाता है। तब सहज और स्वाभाविक रूप से अधिक सकारात्मक विचार उभरने लगते हैं; और मनुष्य का व्यक्तित्व बेहतरी की ओर रूपांतरित होने लगता है। जब व्यक्ति आध्यात्मिक अनुशासन में सिद्ध हो जाता है, तब वह इस नाशवान संसार में आत्मज्ञान के प्रकाश में जीवन व्यतीत करता है।