मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

मौद्रिक उपायों से अर्थव्यवस्था को गति

06:22 AM Oct 13, 2023 IST
मधुरेन्द्र सिन्हा

अक्तूबर माह की अपनी मौद्रिक नीति समीक्षा में रिजर्व बैक ऑफ इंडिया ने मुद्रास्फीति के खतरे को दरकिनार रखते हुए रेपो रेट न बढ़ाने का फैसला किया। रेपो रेट के न बढ़ने से ब्याज दरें स्थिर रहीं। यह एक बड़ा कदम है जो तेजी से बढ़ती हुई इकोनॉमी को बढ़ावा देगा। इससे पहले भी रिजर्व बैंक ने रेपो रेट न बढ़ाने का फैसला किया था और इसलिए इस बार यह लग रहा था कि मुद्रास्फीति को थामने के लिए रिजर्व बैंक रेपो रेट बढ़ाएगा। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और उसका एक बड़ा कारण यह था कि भारतीय अर्थव्यवस्था घरेलू खपत के कारण बढ़ रही है। घरेलू मांग बढ़ने के कारण मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में स्थिरता आई है। लेकिन कंपनियों की समस्या है कि वे न केवल ऊंची मुद्रास्फीति दर बल्कि बढ़ी हुई ब्याज दरों से परेशान थीं। ऐसे में रिजर्व बैंक ने समझदारी भरा एक कदम उठाया और रेपो रेट को यथावत‍् रहने दिया।
यहां पर एक बात समझने की है कि दुनियाभर के केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को थामने के लिए ब्याज दरों का सहारा लेते हैं और उसे बढ़ाते रहते हैं। भारत में भी यह प्रयोग किया जाता है। एक आक्रामक मौद्रिक नीति के तहत रेपो रेट बढ़ाना एक सामान्य-सी बात रही है। अमेरिका और पश्चिम के देशों ने इसे खूब आजमाया लेकिन वहां ब्याज दरें इतनी बढ़ गईं कि कारोबारियों को आर्थिक मोर्चे पर जूझना पड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि न तो मुद्रास्फीति घटी और न ही इकोनॉमी संभल पाई। इस परीक्षण की असफलता को देखकर अब अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक ने भी अपने पैर खींच लिये। आलोचकों का मानना है कि यह कदम प्रतिगामी है और इससे नुकसान हो रहा है। इसलिए फेडरल रिजर्व भी ब्याज दरें बढ़ाने से बच रहा है। समस्या है कि पहले तो वहां शून्य ब्याज दरों पर काम हो रहा था जो अब बढ़कर 4 फीसदी से भी ज्यादा हो गई। इससे कारखानों में निवेश करके मुनाफा कमाना घाटे का सौदा होता जा रहा है। अब स्थिति यह होती जा रही है कि वहां महंगाई तो है ही, इकोनॉमी भी फिसल रही है। स्थिति इस सीमा तक जा रही है कि फेडरल रिजर्व को बड़े पैमाने पर नोट छापने पड़ सकते हैं जिसका दूरगामी असर होगा।
बहरहाल, भारत में भी रिजर्व बैंक ने रेपो रेट न बढ़ाकर एक विराम दिया है क्योंकि उसका मानना है कि छह बार रेपो रेट बढ़ाने के बावजूद भारत में महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सका। दरअसल भारत में महंगाई हमेशा रोजमर्रा के सामानों की कीमतों से जुड़ी रहती है। इनमें सब्जियां, फल, चावल-दाल वगैरह जैसी रोजमर्रा की चीजें होती हैं। इनकी कीमतें सीजन के हिसाब से होती हैं। सूखा या फिर अतिवृष्टि से इनकी कीमतें बढ़ जाती हैं। टमाटर एक छोटा-सा उदाहरण है। ऐसे में रेपो रेट में बढ़ोतरी करके समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सकता। इसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था जैसे विदेशों से आयात, सस्ती दरों पर वह सामान उपलब्ध कराना आदि होता है। इन सबसे ही कीमतें काबू में आती हैं न कि ब्याज दरें बढ़ाने से। यह बात रिजर्व बैंक को अच्छी तरह से समझ में आ गई है। जब सुब्बा राव रिजर्व बैंक के गवर्नर थे तो महंगाई रोकने के लिए उन्होंने एक दर्जन से भी ज्यादा बार रेपो रेट में बढ़ोतरी की थी जिसका धक्का कारोबार को लगा। कारखानों में उत्पादित वस्तुओं की लागत बढ़ गई और महंगाई घटने की बजाय बढ़ने लगी। यह प्रयोग बाद में भी किया गया लेकिन सफलता नहीं मिली। रिजर्व बैंक ने अप्रैल, 2022 से लेकर मई, 2023 तक छह बार रेपो रेट बढ़ाया लेकिन महंगाई उसके द्वारा रखी गई सीमा के बाहर ही रही। इसलिए अब इस अस्त्र का रिजर्व बैंक संभल कर इस्तेमाल कर रहा है। ऊंचे रेपो रेट के अपने नुकसान हैं और इसका फायदा जल्दी देखने को नहीं मिलता।
दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था में नकदी का बहुत बड़ा योगदान है। अभी भी आधी अर्थव्यवस्था नकद पर चलती है, ऐसे में रेपो रेट बढ़ाकर महंगाई नियंत्रित करने के बारे में सोचना गलत है। एक फॉर्मल इकोनॉमी में तो यह संभव होता रहा है लेकिन भारत में नहीं। अमेरिका और यूरोप में भी इस समय रेपो रेट के इस्तेमाल और उसके फायदों पर बहस छिड़ी हुई है। आलोचक कहते हैं कि मुद्रास्फीति रोकने के लिए फेडरल रिजर्व के पास ले-देकर एक हथौड़ा है जिसे वह चलाता रहा है चाहे उसका कितना ही बुरा असर क्यों न पड़े।
अमेरिका में इस समय कम वेतन पाने वाले इसका असर झेल रहे हैं क्योंकि मुद्रास्फीति तो निंयत्रण में आ नहीं रही है, उलटे उनकी नौकरियां जा रही हैं। आप टीवी या अन्य मीडिया माध्यमों पर अमेरिका में होमलेस लोगों की दुर्दशा देख सकते हैं कि कैसे गरीबों की कतारें एक वक्त का भोजन पाने के लिए लगी हुई हैं। दरअसल अमेरिका में बड़ी-बड़ी कंपनियां मुद्रास्फीति का बहाना लेकर अपने उत्पादों की कीमतें बढ़ाती जा रही हैं। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है क्योंकि अमेरिका एक पूंजीवादी देश है। और यही समस्या की असली जड़ है न कि व्यवस्था में धन की अधिकता। धन के प्रवाह को सीमित करना अब रेपो रेट के जरिये संभव नहीं होता दिख रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट न बढ़ाकर बड़ा फैसला किया है। यह छोटे और मंझोले उद्योगों को राहत देगा। इस समय देश को मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसमें बड़े उपक्रमों से कहीं ज्यादा मंझोले और लघु उपक्रमों की भूमिका होगी क्योंकि ये कम पूंजी में ज्यादा रोजगार दे सकते हैं।
भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने कहा है कि भारत को 7-7.50 फीसदी की दर से बढ़ना चाहिए तभी वह आर्थिक महाशक्ति बन पायेगा। इसके लिए मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। एक बढ़िया इन्फ्रास्ट्रक्चर और उद्योगों के उपयुक्त माहौल इसके लिए जरूरी है। इसके लिए कम लागत पर पूंजी की उपलब्धता उतनी ही जरूरी है। इस दृष्टि से देखा जाए तो रेपो रेट में बढ़ोतरी न करना एक सही कदम है।

Advertisement

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement
Advertisement