पश्चिम को दिया मानव एकता-सामंजस्यता का संदेश
तुषार जोशी
भारत भूमि के अवतारी संतों में से एक परमहंस योगानन्द का जन्म 5 जनवरी, 1893 को भगवतीचरण घोष व माता ज्ञानप्रभा घोष के यहां गोरखपुर में हुआ। माता-पिता ने नाम चुना मुकुंद लाल घोष। मुकुंद के आने वाले अवतारी जीवन का परिचय तब ही से मिल गया था जब उनकी मां उन्हें अपने गुरु वाराणसी के महान लाहिड़ी महाशय के पास आशीर्वाद दिलाने ले गई थी। लाहिड़ी महाशय ने बालक मुकुंद के माथे पर हाथ रखते हुए कहा था ‘तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन बनकर वह अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले कर जाएगा।’
युवा मुकुंद को स्वामी योगानन्द गिरी बनाने का कार्य उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर् गिरी जी ने किया। दरअसल श्रीयुक्तेश्वर् जी के गुरु लाहिड़ी महाशय व हिमालय निवासी अमरगुरु महावतार बाबाजी की योजना के अनुरूप योगानन्द को पश्चिम में क्रिया योग के प्रसार के लिए भेजा जाना था। इसी योजना के अनुसार जून, 1915 में योगानन्द को कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री प्राप्त हुई व जुलाई, 1915 में उन्होंने स्वामी योगानन्द के रूप में संन्यास जीवन ग्रहण किया।
अपने गुरु के सुझाव पर व जनकल्याण की इच्छा लिए सन् 1917 में स्वामी योगानन्द ने बंगाल के एक छोटे से गांव दीहिका से एक ऐसे विद्यालय की शुरुआत की जहां बच्चों में आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों सहित एक पूर्ण मानव विकसित किया जा सके। 1918 में कासिम बाज़ार के महाराज सर मणींद्र चंद्र नंदी की सहायता से स्वामी योगानन्द अपने छात्रों के बढ़ते समूह को रांची स्थानांतरित कर सके व संस्थान का नाम रखा ‘योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय’। बाद में इस संस्थान का नाम ‘योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया’ (वाय.एस.एस.) पड़ा जो आज भी देशभर में योगानन्द जी की शिक्षाओं का प्रसार कर रहा है।
ईश्वरीय इच्छा अनुरूप स्वामी योगानन्द को 1920 के इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ रीलिजस लिबेरल्स सम्मेलन बॉसटन अमेरिका में व्याख्यान देने का मौका मिला जो की उनके पाश्चात्य मिशन की पहली सीढ़ी बना। वर्ष 1925 में अपने अंतर्राष्ट्रीय मिशन सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एस.आर.एफ.) के हेडक्वारटर की स्थापना लॉस एंजल्स में की। भारत के योग विज्ञान की चिंगारी जो स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो के अपने भाषण में जगाई थी। उसे अगले 32 वर्षों (1920-1952) तक ज्वाला बनाने का कार्य परमहंस योगानन्द ने किया। परमहंस की उपाधि उन्हें अपने गुरु श्रीयुक्तेश्वर् जी द्वारा सन् 1935 के अपने भारत दौरे के समय दी गई।
आधुनिक मानव के पुनः उत्थान के लिए योग विज्ञान महावतार बाबाजी द्वारा लाहिड़ी महाशय को प्राप्त हुआ व गुरु परंपरा द्वारा श्रीयुक्तेश्वर् जी व योगानन्द जी को। योगानन्द ने इस विज्ञान को जन साधारण तक पहुंचाने के लिए इसे शक्ति संचार व्यायाम, हंस: ध्यान प्रविधि, ॐ प्रविधि व क्रिया योग प्रविधि के रूप में क्रमबद्ध किया, जिसे आज वाय.एस.एस. ऑफ इंडिया के माध्यम से सीखा जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के कठिन समय के दौरान एक ओर जहां पूरा विश्व ही युद्ध की जर्जरता से जूझ रहा था, वहीं भारत का एक संन्यासी भारत के योग विज्ञान द्वारा पूर्वी व पश्चिमी देशों के बीच मानव एकता व सामंजस्यता का संदेश दे रहा था। इसी कारण से उन्हें फादर ऑफ योग इन द वेस्ट के नाम से जाना जाता है। आज के समय में परमहंस योगानन्द की आत्मकथा ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ विश्व की सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली आध्यात्मिक पुस्तकों में से एक है। ‘एक ऐसा रत्न जिसकी कीमत अतुल्य है, जिसके समान संसार ने कभी देखा ही नहीं, श्री परमहंस योगानन्द प्राचीन भारत के ऋषियों-मुनियों व भारत के आध्यात्मिक वैभव के आदर्श प्रतिनिधि रहे हैं।’