शिमला जैसे खतरे की ज़द में हैं कई शहर
कभी जम्मू-कश्मीर तो कभी हिमाचल प्रदेश और कभी उत्तराखण्ड में दैवी आपदाओं की होड़ लगी है। ये आपदायें प्रकृति की नाराजगी के स्पष्ट संकेत हैं जिन्हें हम पढ़ नहीं पा रहे हैं। यहां तक कि अपने ही वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की चेतावनियों की अनदेखी की जा रही है। जिसका दुष्परिणाम हम जोशीमठ और शिमला में देख रहे हैं। इससे पहले प्रकृति का रौद्र रूप हम 2013 में केदारनाथ में देख चुके हैं। अमरनाथ में भी 1996 और 2012 में देख चुके हैं। नैनीताल में सन् 1880 में हुए भूस्खलन में 151 लोगों के कालग्रस्त होने का इतिहास हम नहीं भूले हैं। अब वहां बनिया नाला लोगों को बेचैन कर रहा है। भूस्खलन की जो भयावह तस्वीर शिमला की नजर आयी वैसी ही आशंका पहाड़ों की रानी मसूरी में भी नजर आ रही है।
सन् 1864 में जब अंग्रेजों ने शिमला को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था तो उसकी आबादी मात्र कुछ सैकड़ा में थी। आजादी के बाद हुई जनगणना में वहां की आबादी 46,150 दर्ज हुई जो कि हिमाचल प्रदेश के पूर्ण राज्य घोषित होने पर 1971 में 56,032 हो गयी। अब तक की नवीनतम 2011 की जनगणना में वहां की जनसंख्या 1,69,578 हो गयी। सन् 2011 में मात्र 36 वर्ग किमी में फैले शिमला शहर का जनसंख्या घनत्व 4,800 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी हो चुका था। शिमला नगर निगम के रिकार्ड के अनुसार इस छोटे से क्षेत्रफल में 34 वार्ड और 46,306 घर हैं। फिलहाल देश में नयी जनगणना तो नहीं हुई मगर शिमला की वर्तमान जनसंख्या 2.32 लाख तक पहुंचने का अनुमान है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि एक छोटा-सा शिमला इतने अधिक लोगों और उनकी असीमित जरूरतों के बोझ को कब तक ढो सकेगा? आबादी बढ़ने के साथ ही नगर का विस्तार हो रहा है। जिसके लिये हरियाली और खास कर वृक्षों का पातन और उनकी जगह इमारतों के जंगल उग रहे हैं। नतीजतन अत्यधिक बोझ के कारण जमीन मकानों समेत खिसक रही है।
संकट केवल शिमला का नहीं है। हिमालय के लगभग सभी शहरों की स्थिति शिमला जैसी ही है। जोशीमठ हमारे सामने शिमला से भी ज्वलंत उदाहरण बनकर सामने आ गया था। इसरो और रिमोट सेंसिंग एजेंसी द्वारा इसी साल फरवरी में भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील भारत के जिन 147 जिलों का एटलस जारी किया गया है उनमें 108 जिले केवल हिमालयी राज्यों के हैं। जिनमें सभी 13 जिले उत्तराखंड के तथा हिमाचल प्रदेश के 12 में से 10 जिले हैं। इसी तरह जम्मू-कश्मीर के भी 8 जिले संवेदनशील जिलों की सूची में इसरो ने शामिल किये हैं। संवेदनशीलता की दृष्टि से शिमला जिला 61वें नम्बर पर है। जबकि उससे कहीं अधिक संवेदनशील मंडी, हमीरपुर, बिलासपुर, चम्बा और किन्नौर जिले हैं। जब ये स्थिति हम शिमला की देख रहे हैं तो उसी हिमाचल के बाकी संवेदनशील जिलों पर मंडराते खतरे की कल्पना की जा सकती है।
इसरो और रिमोट सेंसिंग के नवीनतम भूस्खलन संवेदनशीलता एटलस पर गौर करें तो उत्तराखंड की स्थिति बेहद चिंताजनक नजर आती है। भूस्खलन की दृष्टि से देश के सर्वाधिक संवेदनशील जिलों में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले हैं, जिन्हें नम्बर एक और दो पर रखा गया है। सन् 1998 में केदारघाटी के मनसूना और गौंडार क्षेत्र में कई गांव खिसक गये थे। उसी साल 18 अगस्त को पिथौरागढ़ के मालपा में हुए भूस्खलन में प्रोतिमा बेदी समेत लगभग 200 मानसरोवर यात्री और अन्य लोग मारे गये थे।
शिमला और जोशीमठ भविष्य के लिए प्रकृति की गंभीर चेतावनी है। इन दो नगरों की ही जैसी बाकी पहाड़ी नगरों की कहानी है। आर्थिक गतिविधियों के कारण पर्यटन, तीर्थाटन के महत्व के चलते छोटे कस्बों में आसपास के गांवों की ओर जनसंख्या आकर्षित होने लगी और ये कस्बे धीरे-धीरे नगरों में बदलने लगे। प्रशासनिक दृष्टि से ब्लाक, तहसील और जिला मुख्यालयों में जन-सुविधाओं और आर्थिक कारणों से जनसंख्या बढ़ने लगी तो ये छोटे कस्बे भी नगर और महानगर बनने लगे। लेकिन इस तेजी से हो रहे नगरीकरण पर शासन-प्रशासन आंखें मूंदता गया और नगरों के सुनियोजित विकास के लिए मास्टर प्लान या नगर नियोजन की जरूरत नहीं समझी गयी।
दरअसल, ये जितने भी पहाड़ी नगर हैं वे पहाड़ से आये भूस्खलनों पर बसे हुए हैं, जिनकी धारक क्षमता सीमित है। इनमें से कुछ भूस्खलन सक्रिय रहे तो कुछ सुप्त हो गये जो कि अब जनसंख्या के दबाव में जाग्रत हो रहे हैं। उत्तरकाशी का वरुणवत बड़ी मुश्किल से थमा है। नगरों की जमीन के ऊपर इमारतों के जंगलों का बोझ और बिना सीवरलाइन के इमारतों का मलजल सोकपिटों के माध्यम से धरती के अंदर जाने से पहाड़ी नगरों के नीचे दलदल होता गया, जैसा कि जोशीमठ में हुआ। सरकारों द्वारा जनसंख्या को एक ही कमजोर स्थान पर केन्द्रित होने से रोकने के लिये नये नगर या गांव नहीं बसाये गये।
जो बेहद चिंताजनक स्थिति आज शिमला की है उससे अधिक नाजुक स्थिति मसूरी की है। संवेदनशीलता में शिमला 61वें नम्बर पर है जबकि देहरादून का रैंक 29वां है जहां मसूरी है।
नि:संदेह इस हालात में कभी भी मसूरी और नैनीताल में भी खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है। शिमला की तरह मसूरी और नैनीताल को भी अंग्रेजों ने ही पहाड़ियों पर बहुत सीमित जनसंख्या के लिए बसाया था। उत्तराखंड आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा कराये गये एक अन्य अध्ययन के अनुसार मसूरी के केम्प्टी फॉल, लाल टिब्बा और भट्टाफॉल सर्वाधिक खतरे वाले क्षेत्र हैं। इसका कारण भूवैज्ञानिक सुशील खंडूड़ी ने टेक्टॉनिक डिसकंटिन्युटी और तीव्र अस्थिर ढलान माना है। इस अध्ययन में भट्टाघाट और लाल टिब्बा के उत्तर पश्चिम क्षेत्र को भूस्खलन के लिये अत्यधिक संवेदनशील बताया गया है, जबकि कंपनी गार्डन के उत्तर, लाल टिब्बा के उत्तर पूर्व, जबरखेत के पश्चिम और क्यारकुली के दक्षिण पश्चिम के क्षेत्र उच्च संवेदनशीलता में माने गये हैं। इन क्षेत्रों में अक्सर भूस्खलन होते रहते हैं। इसी प्रकार परी टिब्बा, जबरखेत, क्यारकुली एवं भट्टा के पश्चिमी क्षेत्र, बार्लोगंज के उत्तर पश्चिम और खट्टापानी के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को मध्यम दर्जे की संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। इस अध्ययन में मसूरी क्षेत्र के 31.6 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम जोखिम या संवेदनशील श्रेणी, 21.6 प्रतिशत उच्च संवेदनशील श्रेणी और 1.7 प्रतिशत क्षेत्र को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है।
अंग्रेजों द्वारा बसाये गये मसूरी और शिमला की ही तरह नैनीताल की स्थिति है। नैनीताल में सबसे बड़ा भूस्खलन 18 सितंबर, 1880 को हुआ था, जिसमें 151 लोग मलबे के नीचे दब कर मर गये थे, जिनमें लगभग सभी यूरोपियन ही थे। इस विनाशकारी भूस्खलन से पहले वहां लगातार 40 घंटों तक 25 इंच (510 मिमी) से 35 इंच (890 मिमी) तक अतिभारी वर्षा हुई थी। यह शहर पहले ही मानवीय बोझ तले दबा जा रहा था उस पर हाइकोर्ट का बोझ डालकर इसका लगभग कचूमर ही निकल गया।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।