जीने का मंत्र
जीवन के संघर्ष और आंधियों से दुखी एक नाविक जहाज से उतरकर बाहर आया। समुद्र के मध्य अडिग और अविचलित चट्टान की स्वच्छता को देखकर उसको कुछ शांति मिली। वह थोड़ा आगे बढ़ा और एक टेकरी पर खड़ा होकर चारों ओर दृष्टिपात करने लगा। उसने देखा समुद्र की उत्ााल तरंगें चारों ओर से उस चट्टान पर निरंतर आघात कर रही हैं तो भी चट्टान के मन मंे न रोष है और न विद्वेष। संघर्षपूर्ण जीवन पाकर भी उसे कोई ऊब और उत्तेजना नहीं है। मरने की भी उसने कभी इच्छा नहीं की। यह देखकर नाविक का हृदय श्रद्धा से भर गया। उसने चट्टान से पूछा, ‘तुम पर चारों ओर से आघात लग रहे हैं, फिर भी तुम निराश नहीं हो चट्टान!’ तब चट्टान की आत्मा धीरे से बोली, ‘तात! निराशा और मृत्यु दोनों एक ही वस्तु के उभयपृष्ठ हैं; हम निराश हो गए होते तो एक क्षण ही सही दूर से आए अतिथियों को विश्राम देने, उनका स्वागत करने से वंचित रह जाते।’ नाविक का मन एक चमकती हुई प्रेरणा से भर गया। जीवन में कितने भी संघर्ष आएं, अब मैं चट्टान की तरह जीऊंगा ताकि हमारी न सही, भावी पीढ़ी और मानवता के आदर्शों की रक्षा हो सके।
प्रस्तुति : मुकेश ऋषि