मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

मनुष्य मात्र माध्यम, देने वाले तो प्रभु

07:33 AM Jun 17, 2024 IST
Advertisement

डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

इधर समाज में एक प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि लोग भंडारे कराते हैं, कोई धार्मिक आयोजन करते हैं, तो बढ़-चढ़कर अपना गुणगान करते हैं। जाने क्यों, अभिमान और गरीबों को दान देने की बातों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने की प्रवृत्ति समाज में इधर कुछ अधिक ही बढ़ गई है। बड़े बूढ़े तो कहा करते थे कि ‘दान’ तो वही सार्थक होता है, जिसका पता अपने आप के सिवा किसी दूसरे को हो ही नहीं।
मुझे अनायास महाकवि तुलसीदास और कविवर रहीम के बीच का प्रसंग याद आ गया। जब महाकवि तुलसीदास जी को यह पता लगा कि कविवर रहीम जी प्रतिदिन ‘स्वर्ण मुद्राएं’ दान करते हैं, पर कभी अपने इस दान का बखान तक नहीं करते, तो तुलसी दास जी ने उन्हें लिखा :-
‘ऐसी देनी देन जू, कित सीखे हो सैन?
ज्यों-ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।’
अर्थात‍्, हे महोदय, ऐसी दान करने की कला आपने कहां से सीखी है, कि ज्यों-ज्यों दान के लिए हाथ ऊंचा करते हो, त्यों-त्यों आपके नेत्र झुकते चले जाते हैं। कविवर रहीम जी ने उत्तर में तुलसीदास जी को जो दोहा लिखा, वह सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया है :-
‘देनहार कोई और है, देवत है दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, याते नीचे नैन।’
अर्थात‍् ‘देनहार’ तो कोई और है, इसीलिए जब भी लोग मेरा नाम लेते हैं, तो शर्म से मेरी नज़रें नीची हो जाती हैं। भला मैं देने वाला कौन होता हूं?
इस प्रकरण में मुझे एक बड़ी प्यारी बोधकथा याद आ गई है, जो आप सबसे साझी कर रहा हूं—
‘एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटा करता था, मगर कठोर परिश्रम के बाद भी उसे सिर्फ आधा पेट भोजन ही खाने को मिल पाता था। एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने उस साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से भेंट हो, तो उनसे मेरे कष्ट का कारण पूछ लेना कि आखिर मुझे मेहनत के बाद भी भर पेट खाना क्यों नहीं मिलता?
कुछ दिनों बाद उसे वह साधु पुनः मिला, तो उस दुखी रहने वाले लकड़हारे ने उसे अपनी विनती याद कराई। साधु ने उसे कहा कि ‘प्रभु ने बताया है कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष है और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए केवल पांच बोरी अनाज लिखे हैं। बस इसलिए प्रभु उसे थोड़ा-थोड़ा सा अनाज देते हैं, जिससे वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।’
कुछ समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला, तो लकड़हारे ने कहा, ‘ऋषिवर! अब जब भी आपकी प्रभु से भेंट हो, तो उनसे कहना कि वे मेरे जीवन का सारा अनाज मुझे एक साथ दे दें, ताकि कम से कम मैं भरपेट भोजन कर सकूं।’ अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढेर सारा अनाज पहुंच गया।
लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उस की विनती स्वीकार कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया है। उसने बिना आने वाले कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर, साधुओं, गरीबों और भूखों को खिला दिया और स्वयं भी भरपेट खाया। अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि कल जितना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने पुनः भूखों और गरीबों को भोजन खिला दिया। आश्चर्य यह कि फिर से उसका भंडार भर गया।
अब तो यह सिलसिला प्रतिदिन चल पड़ा और लकड़हारा भी जंगल मे जाकर लकड़ियां काटने की जगह रोज़ ही जरूरतमंदों को भोजन कराने में व्यस्त रहने लगा। अब उसे भी भर पेट खाना मिलने लगा। कुछ दिन बाद वह साधु पुनः लकड़हारे को मिला, तो लकड़हारे ने कहा, ‘ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में केवल पांच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पांच बोरी अनाज आ जाता है।’
तब साधु ने समझाया, ‘तुम अपने जीवन की चिंता न करते हुए, अपने हिस्से का अनाज साधुओं, गउओं, गरीबों और भूखों को खिला देते हो, इसीलिए प्रभु अब रोज़ उन सब के हिस्से का अनाज भी तुम्हें ही दे रहे हैं, ताकि तुम्हारे माध्यम से वे खा सकें।’ सच तो यही है कि हमको तो परमात्मा ने केवल निमित्त मात्र बनाया है, लोगों तक उनके भाग्य का समान पहुंचाने के लिये, तो निमित्त होने का घमंड कैसा? हमारी भारतीय संस्कृति में तो ‘अतिथि देवो भवः’ इसीलिए कहा गया है कि अतिथि के माध्यम से हमें प्रभु उसके भाग्य का उस तक पहुंचाने का निमित्त बनाते हैं। ‘गीता’ में भगवान यही तो कहते हैं कि ‘कर्त्ता’ तो मैं स्वयं हूं, मनुष्य तो निमित्तमात्र है।
‘कर सकते अभिमान सब, सरल बहुत अभिमान।
विनम्र रहे बिरला मनुज, नित पाता सम्मान।’

Advertisement

Advertisement
Advertisement