शिक्षा को विश्वस्तरीय बनाना हो प्राथमिकता
पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ में छपे एक लेख में कहा गया है कि संसद में सरकार द्वारा रखे आंकड़ों के मुताबिक, भारत से विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या में एक साल में 68 प्रतिशत इजाफा हुआ है। वर्ष 2022 में यह गिनती 7,50,365 रही, जबकि 2021 में 4,44,553 थी। न्यूनतम अनुमान के मुताबिक, इस पर आया खर्च काफी विशाल होगा। लेकिन हम सुधार की अपेक्षा रखें भी कैसे, जब पिछले दो दशक से भी ज्यादा अवधि में, सालाना बजट में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का महज 3 फीसदी खर्च रखा गया हो। उल्लेखनीय है कि इकॉनोमिक सर्वे के अनुसार यह मद केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों की मिलाकर है। शोर चाहे कितना ही मचाएं लेकिन किसी राजनेता या राजनीतिक दल के पास इतनी दूरदर्शिता नहीं कि शिक्षा का बजट बढ़ाया जाए। स्वास्थ्य पर बजट तो और भी कम है, जोकि जीडीपी के 1.5 फीसदी से 2.0 प्रतिशत के बीच झूलता रहता है।
कदाचितzwj;् वे हमें अज्ञानी और अधकचरे बनाए रखना चाहते हैं, जो समय-समय पर बंटने वाली सरकारी खैरातों में मुफ्त की वस्तुएं पाने के लिए पंक्तियों में लगे रहें। क्योंकि कमजोर इंसान को जाति-पाति, धर्म, पंथ इत्यादि के नाम पर बरगलाकर वोट प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करना ज्यादा आसान होता है। अपने देश में सुविधाओं की कमी के कारण युवाओं के पास उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए विदेश जाने के सिवा विकल्प नहीं बचता। जो मौके उपलब्ध हैं भी, वे राजनीतिक लाभ के लिए बनाए विभिन्न किस्मों के आरक्षण कोटों की वजह से बहुत कम रह जाते हैं। फिर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का बुनियादी ढांचा हमारी तेजी से बढ़ती आबादी के बरक्स गति नहीं पकड़ पा रहाndash; आज हम विश्व में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश हैं।
उच्च शिक्षा और अच्छे विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप की ओर हमारे बच्चों का यह पलायन क्या यूं ही जारी रहेगा? हमारी शिक्षा नीतियों, विश्वविद्यालयों की हालत और अन्य व्यावसायिक शिक्षा सुविधाओं पर एक नज़र डालने पर भविष्य के लिए आशा नहीं जगती। हमारे यहां समुचित सुविधाएं और अनुसंधान एवं विकास के लिए वह माहौल नहीं है जो युवाओं को नया सोचने और खोज करने को प्रेरित करे। जहां तकनीक चालित जगत में नित उन्नत अनुसंधान हो रहा है वहीं हमारी पुराने ढर्रे की शिक्षा प्रणाली आज भी रट्टा मारकर परीक्षा उत्तीर्ण करने पर केंद्रित है, यह हमें कहीं नहीं पहुंचा सकती। लगता है हम अपने इतिहास का पुनर्निमाण करने और उसे अपने भविष्य के तौर पर पेश करने पर तुले हुए हैं। यह कृत्य गहन प्रतिस्पर्धा वाली मौजूदा दुनिया में हमें पछाड़कर रख देगा, न ही इससे हमारे विश्वविद्यालयों और लैब्स में क्वांटम फिजिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, नैनो-टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स इत्यादि नवीनतम तकनीकों का वैसा प्रसार हो पाएगा, जो भविष्य को आकार दे रहा है।
आज हम तमाम क्षेत्रों और विधाओं में पश्चिमी जगत और चीन का मुकाबला करना चाहते है, परंतु तरक्की के लिए जो दो अवयव – शिक्षा और स्वास्थ्य – एक पूर्व-शर्त हैं, वह हमारी राजनीतिक सोच में नदारद है। हम रक्षा सामग्री, मेडिकल उपकरण, सेमीकंडक्टर, कंप्यूटर, वाहन, हवाई जहाज और समुद्री जहाजों के आयात पर खरबों-खरबों रुपये खर्च रहे हैं। यह इसलिए कि स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास सुविधाएं नगण्य हैं। हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं, इसलिए अपने उद्योगों का आधुनिकीकरण युद्धस्तर पर करना होगा और इसकी राह शिक्षा एवं स्वास्थ्य से होकर है। भारत सरकार उद्योगों के आधुनिकीकरण में निवेश करने को निजी क्षेत्र की मुख्य भूमिका बनवाने में सफल नहीं हो पाई।
भारत सरकार को सभी बड़े उद्योगपतियों के लिए एक समान मौके मुहैया करवाने चाहिए और साथ ही सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों को सुनियोजित ढंग से ऊपर उठाना चाहिए। तरजीह वाले क्षेत्रों की शिनाख्त करके उन्हें मदद, प्रोत्साहन व छूटें देकर बढ़ावा देना होगा। जब तक इस उपलब्धि को राष्ट्रीय हित की तरह लेकर, सुनियोजित और समयबद्ध ढंग से नहीं पाया जाएगा तब तक हम उन्नत जमात में शामिल नहीं हो सकते।
विडंबना है कि जिस रूस और अन्य पश्चिमी मुल्कों से हम खरबों डॉलर का आयात कर रहे हैं उन्हीं से तकनीक देने को कह रहे हैं ताकि वे वस्तुएं भारत में बन सकें, पर इसमें सफलता न्यून रही। कंप्यूटिंग क्षमता की बात करें तो आज भी हमारे पास सुपर कंप्यूटर नहीं है और सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में तो हमारी स्थिति उस बच्चे की मानिंद है जो अभी चलना सीख रहा है। दवा क्षेत्र में, मुख्य घटक सामग्री और नवीनतम खोज के लिए हम अभी भी चीन और पश्चिमी मुल्कों पर निर्भर हैं।
सूची बहुत लंबी है लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं कि हमारी उपलब्धियां नहीं हैं ndash; बेशक हमारे पास आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे विश्वस्तरीय संस्थान हैं लेकिन हमारी जरूरत के हिसाब से बहुत कम हैं और बड़ी बात यह कि यहां से प्रशिक्षित होकर निकली प्रतिभाओं को हम उचित माहौल देकर देश में नहीं रोक पा रहे। इन संस्थानों से पढ़कर निकले अधिकांश स्नातक उच्च शिक्षा या रोजगार के लिए पश्चिमी देशों का रुख करते हैं। जाहिर है यहां पर वैसा मुफीद माहौल और अवसर नहीं हैं कि वे स्वदेश में रहना चुनें। सिलिकॉन वैली की तर्ज पर भारत में तंत्र बनाना होगा ताकि हम अपनी चोटी की प्रतिभाओंं को देश में ही बनाए रखें। यह ब्रेन-ड्रेन हमारा बड़ा घाटा है। ध्यान का केंद्र उद्योगों और विश्वविद्यालयों के बीच साझेदारी बनाने और अनुसंधान के लिए सरकारी धन मुहैया करवाने पर हो। विकसित देशों में यही युक्ति कारगर रही है, जहां पर वे आपसी तालमेल से चलते हैं।
हमें याद रखना होगा कि विदेशी ताकतों का हित इसी में है कि हम आत्मनिर्भर न बन पाएं। मौजूदा रिश्तों में, वे अपनी उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर रक्षा उत्पादों की खपत के लिए भारत को एक बड़े बाज़ार की तरह देखते हैं। उन्हें विश्व में हमारी सामरिक और भू-राजनीतिक स्थिति का भान है, चीन के साथ चल रही अपनी तनातनी में हमारी क्या हैसियत है, इसका भी उन्हें बखूबी पता है। लोकतंत्र और अधिनायकवादी व्यवस्था में बंटी इस दुनिया में वे हमें एक बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में देखते हैं। समाधान है आत्मनिर्भर बनना, लेकिन यह कहने या आकांक्षा करने भर से नहीं होगा। इस प्राप्ति की डगर बहुत लंबी है, दार्शनिक टैगोर के शब्दों में कहें तो : ‘जहां सोच भयमुक्त हो और सम्मान बरकरार रहे, जहां ज्ञान सहजता से उपलब्ध हो… जहां उत्तमता की प्राप्ति हेतु अथक प्रयास हों, जहां तर्क की निर्मल धारा नकारात्मक आदतों के शुष्क रेगिस्तान में जाकर विलुप्त न हो।’
अपने देश के करोड़ों लोगों को गरीबी से ऊपर उठाने का काम कोई बच्चों का खेल नहीं है। स्वच्छता, महिला समानता और आत्मनिर्भरता बनाने के जुमले एक परिपूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य माहौल के बिना अर्थहीन हैं। शिक्षा पाठ्यक्रम से पीरियोडिक टेबल, डार्विन का सिद्धांत और लोकतंत्र विषय को हटाने से भविष्य की राह नहीं बनने वाली।
लेखक मणिपुर के पूर्व राज्यपाल हैं।