शाकंभरी रूप में भी प्रकट हुई थीं मां दुर्गा
चेतनादित्य आलोक
मार्कंडेय पुराण के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा तिथि को माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है, जो वास्तव में देवी दुर्गा का ही रूप हैं। मान्यता है कि इस दिन मां दुर्गा ने मानव कल्याण के लिए शाकंभरी रूप धारण किया था।
कथा है कि कई वर्षों तक दानवों के उत्पात से त्रस्त एवं सूखा और अकाल से ग्रस्त भक्तों ने जब देवी दुर्गा से अपने कष्ट हरने के लिए प्रार्थना की, तब माता दुर्गा शाकंभरी रूप में प्रकट हुईं, जिनकी हज़ारों आंखें थीं। अपने भक्तों की दुर्दशा से द्रवित देवी की हजारों आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की धारा बहती रही, जिससे पूरी पृथ्वी नम हो गई और सर्वत्र हरियाली छा गई। माता शाकंभरी ही ‘देवी शताक्षी’ के नाम से भी प्रसिद्ध हुईं। इन्होंने अपने भक्तों के कल्याणार्थ अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, सब्जियां, फल एवं वनस्पतियां प्रकट कीं, जिसके कारण इनका ‘शाकंभरी’ नाम प्रसिद्ध हुआ।
दानवों के उत्पात से त्रस्त एवं सूखा और अकाल से ग्रस्त भक्तों ने जब देवी दुर्गा से अपने कष्ट हरने के लिए प्रार्थना की, तब माता दुर्गा शाकंभरी रूप में प्रकट हुईं। मान्यता है कि अपने भक्तों की दुर्दशा से द्रवित देवीं की आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की धारा बहती रही, जिससे पूरी पृथ्वी नम हो गई और सर्वत्र हरियाली छा गई।
पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का आरंभ होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त हो जाता है। इसी दिन माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। सनातन मान्यताओं के अनुसार इस दिन निर्धन, दुखी और असहाय व्यक्तियों को अन्न, शाक, सब्जियां (कच्ची), फल एवं जल आदि का दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है और माता दुर्गा प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है। दुर्गा सप्तशती के ‘मूर्ति रहस्य’ में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है :-
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया॥
अर्थात् देवी शाकंभरी का वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं, यानी माता कमल के पुष्प पर ही विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है।