जोर के बोल और नसीहत का मखौल
तिरछी नज़र
शमीम शर्मा
आज एक ट्रक के पीछे लिखा मजेदार वाक्य पढ़ने को मिला- मां को इक्कीस साल लग जाते हैं जिस बेटे को जेंटल बनाने में, बीवी को इक्कीस मिनट भी नहीं लगते, उसी को मेंटल बनाने में।
कमाल है लोगों की सोच का। कितनी आसानी से अपनी दुर्बलताओं का दोष वे दूसरों के सिर मढ़ देते हैं। बचपन में जब किसी जगह या वस्तु से टकरा कर कोई बच्चा गिर जाता है तो मां उस जगह और वस्तु पर मुक्का मारती है या लात मारती है। वह दरअसल बच्चे को चुप करवाने के लिये यह दर्शाती है कि बच्चे का कसूर नहीं है बल्कि जहां ठोकर लगी है, उस जगह का कसूर है। बस इसीलिये हमारे लाडले अपनी गलतियों को शिरोधार्य नहीं करते बल्कि दूसरों के कन्धों पर लादते रहते हैं।
किसी समझदार ने अपने दोस्त को तंदुरुस्ती के उपाय बताते हुये कहा- दाल मूंगी अर जनानी गूंगी। क्या गज़ब कहावत है! औरतें बोलें ही न! हर आदमी को शान्त स्वभाव की घरवाली चाहिये। आमतौर से घर-परिवारों में लोग बोलते कम ही हैं, चीखते-चिल्लाते ज़्यादा हैं। और अगर यह चिल्लाना गली या चौराहों पर हो जाये तो गालियां तो उनकी वाणी का अनिवार्य तत्व हो जाता है। मैंने आज तक बिरले ही देखे जो गालियों से परहेज़ करते हों। एक बार मैंने पांच-छह साल के एक लड़के को बहुत गन्दी गाली देते हुये सुना तो पूछे बिना नहीं रहा गया कि उसने गाली कहां से सीखी। बच्चे का जवाब था- पापा से।
घर में औरतें अपने बेटों और पतियों को समझाने में लगी रहती हैं कि धीमी आवाज़ में बात किया करें। यह सुनकर तो आदमी और जोर से बोलता है। जैसे कि कोई प्रेस्टीज कोश्चन आ गया हो। मजेदार बात यह है जब औरतों को उम्र के लिहाज़ से ऊंचा सुनना शुरू हो जाता है तो वे अपने पति से रिक्वेस्ट करती हैं कि ज़रा ज़ोर से बोलो। तब आदमी को ऊंचा बोलना स्वीकार नहीं होता।
औरतें भी सारी उम्र ‘सुनते हो, सुनते हो’ कहकर गुजार देती हैं। मानो उन्हें पूरा विश्वास हो कि उन्हें सुना ही नहीं जा रहा।
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एक बर की बात है अक नत्थू की यमराज तै भेंट होगी। नत्थू बूज्झण लाग्या- रै मेरे फूफे न्यूं बता, जद कोय माणस हरियाणा मैं मरै है तो थम उसकी आत्मा नैं लेण खुद क्यूं नी जाते? यमराज बोल्या- भाई! गया था मैं एक बर। नत्थू नैं बूज्झी- फेर के होया? यमराज बोल्या- वो हरियाणे आला मेरै ताहिं बोल्या- तू पाच्छै बैठ, झोट्टा तेरा भाई चलावैगा।