सम्बन्धों को सहेजने की सीख देते प्रभु जगन्नाथ
डॉ. मोनिका शर्मा
जगन्नाथ रथयात्रा ईश्वरीय स्वरूप संग जुड़े पारिवारिक अपनेपन का जीवंत उदाहरण है। यात्रा के इस पर्व में भगवान जगन्नाथ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से दशमी तक आमजन के बीच रहते हैं। इस समय मानवीय जीवन से जुड़े रिश्तों के भाव-चाव भी देखने को मिलते हैं। रथयात्रा के पहले दिन प्रभु जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर विराजकर गुंडीचा मंदिर के लिए निकलते हैं। वहां कुछ दिन बिताकर वापस जगन्नाथ मंदिर लौटते हैं। आस्था में रचा-बसा यह परिवार बोध का भाव मन को छूने वाला है।
स्नेहमयी जुड़ाव की झांकी
हर वर्ष होने वाली रथयाथा का यह आयोजन जितना भव्य होता है उतना ही दिव्य भी। यह पर्व भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के स्नेहमयी जुड़ाव की झांकी भी है। तीनों भाई-बहन एक साथ जिस तरह अपनी मौसी के घर जाने को निकलते हैं, पारिवारिक सम्बन्धों से जुड़ने का एक दैवीय परिवेश बनता है। यह भाई-बहन के आपसी स्नेह से जुड़े चाव-लगाव को भी लिए है। इस पर्व को लेकर पद्म पुराण में वर्णित एक कथा यह भी है कि एक बार प्रभु जगन्नाथ से बहन सुभद्रा ने नगर देखने की इच्छा जताई। अपनी लाड़ली बहन की इस अभिलाषा को पूरा करने के लिए जगन्नाथ और बलभद्र सुभद्रा को रथ पर बैठाकर नगर दिखाने निकल पड़े। तीनों नगर घूमते हुए अपनी मौसी के घर गुंडीचा भी पहुंचे। गुंडीचा मंदिर को गुंडीचा बाड़ी भी कहते हैं। बाड़ी का अर्थ घर होता है। मौसी यानी अपनी एक परिजन के घर में तीनों भाई-बहन सात दिन रहकर वापस जगन्नाथ मंदिर लौटते हैं। उस समय से जगन्नाथ रथयाथा निकालने की परंपरा चली आ रही है। रथों की वापसी की यात्रा की यह रस्म बहुड़ा यात्रा कहलाती है। देखा जाए तो ईश्वर असल में अपनों से जुड़ाव के इसी पावन भाव को तो सींचते हैं। भाई-बहन के अनुराग को जीवंत बनाता अपने आराध्य से जुड़ा यह पक्ष सचमुच सुंदर और अनुकरणीय है।
परम्परा के रंग
रथयाथा के समापन से पहले तीनों का रथ गुंडीचा मंदिर में रहता है। जहां परंपरागत भाव-चाव के लिए उनका स्वागत-सत्कार किया जाता है। उनके लिए कई प्रकार के पकवान बनाने की भी रीत है। जिसका आज भी पूरी तरह से पालन किया जाता है। यह रिवाज इस विश्व प्रसिद्ध पर्व के माध्यम से कितना सहज और प्रेमपगा-सा संदेश देती है। अपनों के आने पर मान-मनुहार करने का। स्नेह जताने का यह पावन भाव जितना दैवीय शक्तियों से जुड़ा है, उतना ही आम जीवन में भी मायने रखता है। रथयाथा का भक्तिमय परिवेश सामाजिक जीवन को पोसने वाले इस स्नेहमयी बर्ताव की तो आज सबसे अधिक दरकार है। अंध-विश्वास के बजाय अपने आराध्य की उपासना से जुड़ी इन परम्पराओं के व्यावहारिक पक्ष को समझने की जरूरत है। जो सम्बन्धों को सहेजने वाली हैं। समाज को जोड़ने वाली हैं। अपनों के स्वागत-सत्कार का सुंदर और भावपूर्ण उदाहरण हैं। इतना ही नहीं, हर वर्ष रथयाथा में सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का भी अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
दायित्वबोध का संदेश
कहते हैं कि भगवान सात दिन बाद जब अपने महल लौटते हैं तो देवी लक्ष्मी उनसे रुष्ट हो जाती हैं। यह बात पारिवारिक दायित्व बोध और आपसी संवाद के महत्व को समझाती है। साथ ही अपनों से शिकायत करने और रूठने-मनाने का सुंदर-सा उदाहरण भी है। जगन्नाथ रथयाथा के अंतिम अनुष्ठान में भगवान जगन्नाथ का रथ मंदिर के द्वार पर आता है तो मां लक्ष्मी की नाराजगी से प्रभु जगन्नाथ को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। इसको लेकर यह कथा प्रचलित है कि माता लक्ष्मी इस बात को लेकर क्रोधित होती हैं कि प्रभु जगन्नाथ भाई-बहन के साथ अकेले ही यात्रा पर चले गए। ऐसे में वे सुभद्रा और बलभद्र को तो मंदिर में प्रवेश दे देती है पर प्रभु जगन्नाथ को भीतर नहीं आने देतीं। मंदिर के कपाट बंद कर मां लक्ष्मी नाराजगी जताती हैं। तब भगवान जगन्नाथ माता लक्ष्मी को उनकी प्रिय मिठाई रसगुल्ला खिलाकर उनकी मनुहार करते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा मांगते हैं। ‘नीलाद्री बीजे’ कहे जाने वाले इस दैवीय अनुष्ठान में आम जीवन के लिए कितनी सुंदर सीख है। अपनी गलती पर क्षमा मांग लेने की सहजता भी और अपनों से सही संवाद करने की सीख भी। परिवारजनों के बीच संवाद की कमी आज के दौर में रिश्तों की टूटन का सबसे बड़ा कारण है। स्वयं प्रभु जगन्नाथ सम्बन्धों को सहेजने की सीख देते हैं।