एकदा
दिवाली के दिन डाकिया मोहल्ले के घर-घर जाकर बख्शीश मांग रहा था। आगे चलकर एक जान-पहचान वाली लड़की का घर आया। डाकिये ने सोचा बच्ची से बख्शीश न लूंगा, उसका माथा देखकर मुड़ जाऊंगा। उसने बच्ची का द्वार खटखटाया। दरवाजा खोलते ही बच्ची डाकिए को एक उपहार का डिब्बा देकर कहने लगी, ‘दादा जी! दिवाली की यह भेंट आपके लिए है। मना मत करना। ‘डाकिया हंस कर बोला, ‘बिटिया! तुम्हारे हाथ की छुई हुई हर चीज मेरे लिए ईश्वरीय सौगात है। यह मेरे पास यादगार के तौर पर रहेगी। मैं तो तुम्हें दिवाली की अाशीष देने आया हूं।’ यह कहकर डाकिए ने बच्ची का सिर पुचकार दिया। डाकिये ने घर पहुंचकर जब डिब्बा खोला तो वह उसमें रखे जूतों को देखकर हतप्रभ रह गया। उसकी पूरी रात दुविधा में बीती। कभी वह बिवाई से फटे अपने नंगे पांव को देखता, कभी जूतों को और कभी उसके जेहन में वह दिव्यांग बच्ची घूमती जो ठीक से चल नहीं पाती। अगली सुबह उसने डाकघर जाकर पोस्ट मास्टर से कहा, ‘साहब जी, मेरी बदली कर दो। मैं आज के बाद उस मोहल्ले में नहीं जा पाऊंगा। पोस्ट मास्टर ने कारण पूछा तो डाकिये ने बताया, ‘उस अपंग बच्ची ने तो मेरे नंगे पांव के लिए जूते दे दिए, किंतु मैं उस बच्ची को पांव कैसे दूंगा?’
प्रस्तुति : राजकिशन नैन