मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

चांद को पा लेने की हसरत

06:47 AM Jul 09, 2023 IST

दुनिया के कई देशों में चंद्रमा पर निज हित साधने के लिए अपने-अपने यान भेजने की होड़ लगी है। चांद पर इंसान के कदम पड़ने के पांच दशक बाद भारत व चीन के अलावा अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा तक एक बार फिर अपना मिशन भेज रही है। भारत चंद्रयान-3 लांच करने ही वाला है। आखिर चांद में ऐसा क्या है जो इसे हर कोई पा लेना चाहता है। दरअसल सबके अभियान बहुउद्देश्यीय हैं। चंद्रमा पर पानी, खनिज व प्रकाश जैसे संसाधनों की संभावनाओं पर सबकी नजर है।

Advertisement

डॉ. संजय वर्मा

किसने सोचा था कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा के अपोलो अभियानों की शृंखला एक बार खत्म होने के बाद इंसान दोबारा चंद्रमा पर जाने की पहल करेगा। खास तौर से चांद की बनावट और उसके वातावरण से जुड़े रहस्यों की थाह लेने के लिए ऐसी कोशिशें फिर कभी होंगी- बीते तीन दशकों में इसका ज्यादा अनुमान तक नहीं लगाया गया था। लेकिन चंद्रमा पर पहली बार इंसान के कदम पड़ने के पांच दशक बाद भारत व चीन के अलावा अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा तक चांद पर एक बार फिर अपना मिशन भेज रही है। कई चरणों वाले नासा के चंद्र मिशन – आर्टेमिस की शुरुआत पिछले साल 2022 में हो चुकी है। अब भारत के तीसरे मून मिशन यानी चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण भी नजदीक है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का चंद्रयान-3 चंद्रमा की सतह पर यान की सुरक्षित लैंडिंग और रोवर के माध्यम से उसकी सतह पर विचरण करने की क्षमताओं का प्रदर्शन करेगा। यह अभियान 2018 में चंद्रयान-2 की नाकामी के बाद इसरो की नई पहल है जो भारत की अंतरिक्षीय महत्वाकांक्षाओं को नए शीर्ष पर ले जा सकता है।
जिस तरह से दुनिया में चंद्रमा को लेकर नई दिलचस्पी जगी है और पृथ्वी के इकलौते प्राकृतिक उपग्रह की छानबीन को लेकर एक नई होड़ पैदा हो गई है, उससे सवाल उठा है कि आखिर चांद में ऐसा क्या है जो इसे हर कोई पा लेना चाहता है। कहीं कोई योजना चांद पर कब्जा करने की तो नहीं है?
कुछ क्षेत्र जिन पर सब देशों का हक
पृथ्वी पर देखें तो कुछ स्थान ऐसे हैं, जिन्हें विश्व विरासत माना जाता है। मिसाल के तौर पर अंटार्कटिका को ही लें। अक्सर बताया जाता है कि अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, चिली, न्यूज़ीलैंड, नॉर्वे और ब्रिटेन अंटार्कटिका पर क्षेत्रीय दावे करते हैं, लेकिन इन दावों को अमेरिका समेत दुनिया के कई देश मान्यता नहीं देते हैं। वर्ष 1961 से लागू हुई अंटार्कटिक संधि (जिस पर साल 2016 तक 53 देश हस्ताक्षर कर चुके थे) के अनुसार, अंटार्कटिका एक वैज्ञानिक संरक्षित क्षेत्र है। यानी जैसे भारत अंटार्कटिका में शोध कार्य की योजनाएं चलाता है, इसी तरह दुनिया के अन्य देश कर सकते हैं। लेकिन उस पर कोई अपना अधिकार नहीं घोषित कर सकता। लेकिन क्या कुछ देश चंद्रमा को लेकर ऐसा कर सकते हैं?

मिशनों के पीछे की मंशा
कायदे से तो इस मामले में भी अमेरिका आगे हो सकता है। वह चंद्रमा पर अपना दावा ठोक सकता है। वर्ष 1969 में अपोलो-11 के जरिये इंसानों को चंद्रमा पर उतारने और वहां अपना झंडा फहराने वाले अमेरिका ने अपने छह मिशनों से 12 अंतरिक्ष यात्रियों को वहां पहुंचाया है। फिर भी चंद्रमा को वह अपने अधिकार वाला क्षेत्र घोषित नहीं कर सका है। लेकिन अब जिस तरह से चीन, जापान, भारत समेत कुछ अन्य देश चंद्रमा की कक्षा में अपने यान भेजने की योजनाएं चला रहे हैं, चंद्रमा को लेकर उनके कई भावी बहुउद्देश्यीय मिशन भी हैं, ऐसे में संभवतः अमेरिका को ऐसा करना जरूरी लग सकता है। यूं क्या पता उसका आर्टेमिस मिशन ऐसी ही किसी योजना का हिस्सा हो, जिसमें वह इंसानों को दोबारा चंद्र-सतह पर उतारने की योजना पर काम कर रहा है। यही नहीं, भारत का पड़ोसी मुल्क चीन भी चंद्रमिशनों पर जैसी तेजी दिखा रहा है, उससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में यह चर्चा छिड़ गई है कि आखिर चीन का इरादा क्या है।
चीन की तैयारियां
कहा जा रहा है कि चीन धरती के बाद अब चांद पर भी जमीन कब्जाने की प्लानिंग में जुटा हुआ है। इसके लिए चीन बीते कुछ वर्षों से अपने पड़ोसी देश रूस की मदद से चांद पर एक स्पेस स्टेशन स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। स्पेस स्टेशन बनने के बाद चीनी अंतरिक्ष यात्री लंबे समय तक वहां रहने लगेंगे। इस स्पेस स्टेशन की मदद से वह चांद के दक्षिणी ध्रुव पर रोबोटिक बेस स्टेशन बनाने की तैयारी में भी है। गौरतलब है कि अभी तक नासा की मदद से चांद पर जाने वाले अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री केवल 10 घंटे का समय ही उसकी सतह पर गुजार सकते हैं। अगर चीन चांद पर रिसर्च स्टेशन प्रोजेक्ट को सफलतापूर्वक पूरा कर लेता है तो उसके लिए मानवयुक्त मिशन लॉन्च करना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा।
अमेरिका और चीन की योजनाएं

असल में चीन की योजना चांद पर कई तरह के वैज्ञानिक प्रयोग करने की है, जिससे कि वह अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा से आगे रह सके। चंद्रमा पर मानव बस्ती बसाने और खनिजों के उत्खनन के साथ-साथ चीन चंद्रमा के टाइटेनियम, यूरेनियम, लोहे और पानी का इस्‍तेमाल रॉकेट निर्माण के लिए करना चाहता है। अंतरिक्ष में यह रॉकेट निर्माण सुविधा वर्ष 2050 तक अंतरिक्ष में लंबी दूरियां तय करने की उसकी योजना के लिए बेहद जरूरी है। तमाम कारोबारी क्षेत्रों में चीन से मुकाबला कर रहे अमेरिका को चांद और अंतरिक्ष की चीनी योजनाएं आशंकित कर रही हैं। इन्हीं चुनौतियों के मद्देनजर अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा भी वर्ष 2028 तक चंद्रमा पर एक अड्डा यानी बेस स्टेशन बनाना चाहती है। नासा के एडमिनिस्‍ट्रेटर जिम ब्राइडेनस्‍टाइन ने वर्ष 2019 में कहा था कि हम चांद पर इसलिए जाना चाहते हैं क्‍योंकि हम मानव के साथ मंगल ग्रह पर जाना चाहते हैं।
रूस समेत कई देशों के मून मिशन
चंद्रमा पर बस्ती बसाने की योजना चीन-अमेरिका समेत कुछ और मुल्कों की भी है। पिछले वर्ष यूक्रेन से युद्ध में उलझने से पहले रूसी अंतरिक्ष एजेंसी– रॉस कॉसमॉस ने भी घोषणा की थी कि वर्ष 2040 तक वह चंद्रमा पर एक बस्‍ती बसाएगी। इसी योजना के तहत रूसी विज्ञान अकादमी के प्रमुख एजेक्‍जेंडर सेर्गेयेव ने कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज से चंद्रमा बेहद महत्‍वपूर्ण है। रूस-यूक्रेन जंग के कारण इस योजना पर अमल में देरी हो सकती है, लेकिन उधर जापान और दक्षिण कोरिया चंद्रमा के ध्रुवों पर अंतरिक्ष यान भेजने की योजना का ऐलान कर चुके हैं। इन देशों की योजना भी चंद्रमा के प्राकृतिक संसाधनों का इस्‍तेमाल करने की है। इसी तरह यूरोपीय स्पेस एजेंसी (ईएसए) भी चंद्रमा पर एक 'मून विलेज' बनाना चाहती है। हालांकि इन सभी में चीन का चंद्र-अभियान सबसे ज्‍यादा महत्‍वाकांक्षी लग रहा है। फिलहाल वही इकलौता ऐसा देश है जिसने तीन करोड़ डॉलर के निवेश के साथ चांद पर बस्‍ती बसाने और उसका इस्‍तेमाल अंतरिक्ष उत्‍खनन में करने की योजना पर तेजी से काम किया है। पर क्या इन योजनाओं के बल पर चीन सच में चंद्रमा को कब्जा लेगा।
अंतरिक्ष में प्रयोगों को लेकर संधि

चांद पर चीनी इरादों को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन अक्तूबर 1957 में तत्कालीन सोवियत संघ (मौजूदा रूस) ने जब दुनिया का पहला उपग्रह स्पुतनिक-1 प्रक्षेपित किया था, तो अंतरिक्ष के दोहन और चांद पर कब्जे की आशंकाओं को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बाह्य अंतरिक्ष संधि (आउटर स्पेस ट्रीटी) का एक मसौदा यानी ड्रॉफ्ट तैयार किया था। स्पुतनिक-1 के लॉन्च के दस साल बाद 1967 में लागू की गई यह संधि इसके सदस्य देशों को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए बाहरी अंतरिक्ष का प्रयोग करने की इजाज़त देती है। अंतरिक्ष से जुड़े पहले कानूनी दस्तावेज के रूप में यह संधि अंतरिक्ष के गैरजरूरी दोहन और स्पेस में जनसंहारक हथियारों की तैनाती पर पाबंदी लगाती है। संधि की शर्तों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भले ही अमेरिका चांद पर झंडा फहरा चुका है और चीन का यान इसके दक्षिणी ध्रुव पर उतर चुका है, लेकिन ऐसा करने से चांद इनका नहीं हो जाता है। लेकिन अंतरिक्ष कानूनों में सबसे प्रभावशाली होने के बावजूद इसे लागू करने में मुश्किलें आ सकती है।
चीनी मंसूबों पर आशंकाएं
चांद को लेकर चीनी मंसूबों के मद्देनजर इस संबंध में एक आशंका मिसिसिपी स्कूल ऑफ लॉ विश्वविद्यालय की अंतरिक्ष कानून विशेषज्ञ मिशेल हैनलॉन ने व्यक्त की है। उनका कहना है कि यह सिर्फ दिशा-निर्देशक है और सिर्फ सिद्धांत हैं। इसके अनुच्छेद-2 के अनुसार दुनिया का कोई भी देश चंद्रमा या किसी अन्य खगोलीय पिंड की संप्रभुता का दावा नहीं कर सकता है। लेकिन हैनलॉन का मत है कि जब चांद पर बेस बनाने की बात आती है तो ये चीजें अस्पष्ट हो जाती हैं। हैनलॉन के मुताबिक, किसी जगह बेस बनाना एक तरह से उस क्षेत्र पर कब्जा ही है। यानी चीन या उसके जैसे विस्तारवादी इरादों वाला कोई देश चाहे तो इन आक्रामक तरीकों से चंद्रमा पर कब्जा कर सकता है।
इतना क्यों लुभाने लगा चांद
नासा के अपोलो अभियानों के समय (1969-1972 की अवधि में) नासा और पूरी दुनिया को लगता था कि चंद्रमा की सतह बिल्कुल सूखी है, लेकिन अब सभी जानते हैं कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भारी मात्रा में बर्फ और भाप के रूप में पानी मौजूद है। इसके अलावा मंगल ग्रह और सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी अब चंद्रमा को सर्वाधिक संभावना वाला अंतरिक्षीय पिंड है। अगर इंसानी बस्तियां नहीं बस सकीं तो भी चंद्रमा पर ऐसे उपकरण लगाए जा सकते हैं जो सुदूर अंतरिक्ष की टोह लेने में मदद कर सकते हैं। वहां मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाली हाइड्रोजन का इस्तेमाल दूसरे ग्रहों को जाने वाले रॉकेटों के ईंधन के रूप में किया जा सकता है। असल में, पृथ्वी से प्रक्षेपित किये जाने वाले रॉकेटों की अधिकतम ऊर्जा इस ग्रह के वायुमंडल और गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने में ही खर्च हो जाती है। ऐसे में चंद्रमा के रीफ्यूलिंग स्टेशन अंतरिक्ष यानों के रॉकेटों को सौरमंडल के ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचाने लायक ईंधन दे सके तो करिश्मा अंतरिक्ष के अब तक के प्रेक्षणों को बदलने का चमत्कार कर सकता है। भारत के चंद्रयान समेत अन्य मिशनों से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि चंद्रमा की सतह के अंदर पानी के विशाल भंडार हैं। खास तौर पर उसके दक्षिणी ध्रुव में, जहां नासा की योजना आर्टेमिस-3 के यान को उतारने की है। साथ ही यह भी पता चल चुका है कि चंद्रमा के ध्रुवीय इलाकों में स्थित विशाल गड्ढों के किनारों पर सूर्य लगातार चमकता है। इस तरह पानी और सूरज की रोशनी का संयोजन उस क्षेत्र में सौर पैनलों से बिजली पैदा करने और पीने का पानी तैयार करने, ऑक्सीजन का निर्माण करने और रॉकेट ईंधन बनाने के लिए सबसे उपयुक्त है।
चंद्रयान की उपलब्धियां
ध्यान रखना होगा कि नासा की योजना चंद्रमा के ध्रुवीय इलाके में वर्ष 2024 में वाइपर (वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर) को भेजने की है। वाइपर का उद्देश्य यह जानना है कि क्या उस क्षेत्र में वास्तव में सौर बिजली पैदा की जा सकती है और पानी का इस्तेमाल पीने, ऑक्सीजन व रॉकेट ईंधन बनाने में हो सकता है। जहां तक भारत की चंद्रमा संबंधी उपलब्धियों का सवाल है तो हमारे देश ने चंद्रयान मिशन की शुरुआत वर्ष 2008 में की थी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन- इसरो ने 22 अक्तूबर 2008 को जब अपना चंद्रयान-1 रवाना किया था, तो सिवाय इसके उस मिशन से कोई उम्मीद नहीं थी कि यह मिशन अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदमों का सबूत देगा। लेकिन अपने अन्वेषण के आधार पर सितंबर 2009 में जब चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी होने के सबूत दिए तो दुनिया में हलचल मच गई। चंद्रयान-1 से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाए गए उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद की सतह पर पानी को चट्टान और धूलकणों में वाष्प यानी भाप के रूप में उपलब्ध पाया था। चंद्रमा की ये चट्टानें दस लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी बताई जाती हैं। उल्लेखनीय है कि इसी तरह का एक अन्य उपकरण सितंबर, 2019 में भेजे गए चंद्रयान-2 के रोवर ‘प्रज्ञान’ के साथ भी चांद पर भेजा गया था। इस रोवर का मकसद दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद वहां की सतह में पानी और खनिजों की खोज करना था, हालांकि चंद्रयान-2 मिशन नाकाम हो गया। लेकिन इससे भारत के हौसले पस्त नहीं हुए। शायद यही वजह है कि आज दुनिया के कई देश चांद को पा लेना चाहते हैं।

लेखक विज्ञाान संबंधी मामलों के जानकार हैं।
सभी फोटो लेखक के सौजन्य से।

Advertisement

Advertisement