कृष्णश्रुति से कर्मयोगी होने तक की तार्किक यात्रा
अरुण नैथानी
योगेश्वर श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व महाभारत में दिखाए उनके विराट रूप जैसा ही विशाल है। उन पर कोई अध्ययन व लेखन पूर्णता का दावा नहीं कर सकता। विद्वानों व ऋषि-मुनियों ने ज्ञान, अध्ययन, अनुभव व अपनी दृष्टि से उनके व्यक्तित्व की व्याख्या की कोशिश जरूर की, लेकिन उसे संपूर्ण कहना अतिशयोक्ति होगी। श्रीराम ने जहां जीवन मूल्यों व आदर्शों की प्रतिष्ठा की, वहीं श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के जरिये कर्म के महत्व को प्रतिष्ठित किया। हालांकि, कई ग्रंथों, संप्रदायों, कथावाचकों व प्रचारकों ने श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व की सतही व्याख्या की, फलतः छवि को लेकर कुछ भ्रम भी उपजे।
लेखक कृष्ण कुमार ने तमाम भ्रामक विचारों को खारिज कर पुस्तक ‘कृष्णश्रुति ः कर्मयोगी कृष्ण’ के जरिये बताने का प्रयास किया कि ‘योगबल से श्रीकृष्ण का चरित्र अग्नि में तप कुंदन होने जैसा है, जिस पर कोई आक्षेप ठहर नहीं सकता।’ लेखक ने अपने व्यापक अध्ययन से बताने का प्रयास किया कि कैसे श्रीकृष्ण जीवनपर्यंत एक महान योगी, महान अग्निहोत्री, महान वैज्ञानिक व महान ब्रह्मचारी बने रहे।
लेखक कृष्ण कुमार ने वृंदावन से द्वारिका तक की यात्रा के साथ विपुल कृष्ण साहित्य का अध्ययन किया। इसे लिखने में उन्हें तीन साल लगे। आर्य समाज की पृष्ठभूमि, संतों का सानिध्य और उनके योग के व्यापक अनुभव ने सृजन को परिपक्व दृष्टि प्रदान की। उन्होंने तार्किक दृष्टि से बताने का प्रयास किया कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व उच्छृंखल नहीं, कर्मयोग से परिपूर्ण था। उन्होंने श्रीकृष्ण जीवन की कई गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया है। वे क्षीरसागर को मोक्ष के रूप में दर्शाते हैं, जहा दूध-सी पवित्रता के बीच जीवात्माएं रस अनुभूति करती हैं। लेखक ने अनेक महापुरुषों द्वारा लिखे ग्रंथों को पढ़कर जो मोती चुने, उसे माला में पिरोकर यह पुस्तक रची है।
लेखक ने श्रीकृष्ण दृष्टि को बताया कि कर्तव्य पालन से ही कर्म सिद्धि संभव है। लेखक ने श्रमसाध्य प्रयासों से रची पुस्तक की विषय वस्तु को ग्यारह अध्यायों में बांटा है। पहले अध्याय में श्रीकृष्ण वंशावली को पढ़ना रोचक लगता है। दूसरे-तीसरे अध्याय में शैशवकाल के प्रसंग, चौथे में ‘गोपी प्रसंग व कंस वध’, पांचवें में ‘सांदीपनी आश्रम में शिक्षाएं’, छठे में ‘द्वारिका की अवधारणा’, सातवें में ‘श्रीकृष्ण की दिनचर्या’, अष्टम अध्याय में ‘राजसूय में कृष्णनीति’, नवम् में ‘तात्विक सम्प्रेषण’, दशम अध्याय में ‘जय में श्रीकृष्ण उद्घोष’ तथा आखिरी अध्याय में ‘महा-भारत में महा-प्रस्थान’ का उल्लेख है। यह सुखद ही है कि लेखक ने पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ की रचना से पहले प्रामाणिक कृष्ण साहित्य का अनुशीलन किया। प्रस्तावना में जिक्र किया गया है कि उन्होंने महाभारत, गर्ग संहिता, वैदिक साहित्य, ब्रह्मचारी कृष्णदत्त साहित्य तथा जैन साहित्य के संदर्भों का पुस्तक में उल्लेख किया है।
निस्संदेह, श्रीकृष्ण जीवन को समझने के लिये यह पठनीय पुस्तक बन पड़ी है।
पुस्तक : कृष्णश्रुति : कर्मयोगी कृष्ण लेखक : कृष्ण कुमार प्रकाशक : सतलुज प्रकाशन, पंचकूला पृष्ठ : 244 मूल्य : रु. 450.