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दुनिया की बड़ी महामारी बनता अकेलापन

06:36 AM Mar 22, 2024 IST
दुनिया की बड़ी महामारी बनता अकेलापन
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क्षमा शर्मा

छ दिन पहले एक खबर आई थी कि अमेरिका में चार करोड़ लोग अकेलेपन के शिकार हैं। वहां 2012 के मुकाबले 2015 तक अकेले लोगों की संख्या पंद्रह प्रतिशत तक बढ़ी। अमेरिका की लगभग चौंतीस करोड़ आबादी को देखते हुए यह एक बड़ी संख्या है। बताया जाता है कि 1960 में बिना परिवार के रहने वाले लोगों की संख्या 13 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 29 प्रतिशत हो गई है। अकेले रहने वाले चौंसठ प्रतिशत लोगों में अवसाद का खतरा बहुत होता है। अमेरिका में अकेले रहने वाले लोगों में से अधिकांश की उम्र पैंतालीस से चौंसठ वर्ष तक है। उसके बाद तीस वर्ष से लेकर चवालीस वर्ष तक के लोग हैं। भारत के बारे में भी कहा जाता है कि यहां पैंतालीस वर्ष के लगभग साढ़े बीस प्रतिशत लोग अकेलेपन के शिकार हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि दुनिया भर में लगभग सवा अरब लोग अकेलेपन के शिकार हैं और अकेलापन महामारी का रूप लेता जा रहा है। विश्व में दस प्रतिशत किशोर और पच्चीस प्रतिशत बुजुर्ग अकेले रहते हैं। दुनिया के लिए यह एक गम्भीर खतरा है।
यह लेखिका अकसर अपने आसपास के ऐसे लोगों से मिलती है जो अकेले रहते हैं। वे पार्कों में दिखाई देते हैं। अकसर आते-जातों से बातें करने की कोशिश करते हैं लेकिन बातें भी किस हद तक की जा सकती हैं। अनाथालय में रहने वाले बच्चों और किशोरों की स्थिति तो और भी दारुण है। उनके पास तो परिवार या अपना कहलाने वाले के नाम पर कोई नहीं है। तकनीक ने अकेलेपन को और बढ़ाया है। बच्चों से बातें करने की फुरसत माता-पिता को नहीं है और बच्चे इन दिनों माता-पिता से बात नहीं करना चाहते। वे चौबीसों घंटे मोबाइल में उलझे रहना चाहते हैं। इसके अलावा उन पर सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर का इतना प्रभाव है कि वे उन जैसे क्यों नहीं बन सकते, वे हमेशा इस खयाल में रहते हैं। तकनीक ने जहां सुविधाएं सौंपी हैं वहां अलामतें भी कोई कम नहीं। अकेलापन इनमें सबसे बड़ी मुसीबत है।
समाज का पुराना ढांचा टूट गया है। गांवों को याद करें तो वहां अकसर बहुत से हम उम्र सवेरे-शाम चबूतरों पर बैठे नजर आते थे। कुछ अपनी कहते थे कुछ दूसरों की सुनते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे गांवों में चबूतरा संस्कृति नष्ट हो गई है। लोग टीवी के कारण अपने घरों में बंद हो गए हैं। खेती-बाड़ी में जहां पहले बहुत से लोग काम करते थे , अब वहां भी ज्यादा लोगों की जरूरत मशीनों ने खत्म कर दी है। कम्युनिटी की जो भावना होती थी, वह कहीं खो गई है। शहरों में मिलने–जुलने के अवसर वैसे भी बहुत कम हैं। एकल परिवारों के कारण अकेलापन बढ़ता ही जाता है। बहुत से बुजुर्ग अकेले रहते हैं। बहुत से बच्चे भी माता-पिता के काम पर चले जाने के बाद घरों में अकेले होते हैं। हमारी सारी भावनाएं, जिम्मेदारियां सिर्फ पैसे के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। सच है कि पैसे के बिना जीवन में कोई भी काम पूरा नहीं हो सकता , लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि पैसा हो भी तो भी कई बार अकेलापन काटे नहीं कटता।
कई बार कुछ दान-पुण्य करने और अन्य सहायता करने के लिए एक वृद्धाश्रमों में जाना होता है। यह साधन सम्पन्न लोगों के लिए हैं और एक मंदिर से जुड़ा है। एक ही उम्र के लोग हैं। बातचीत भी करते हैं। एक साथ रहते हैं । लेकिन बातें करिए तो एक अजीब किस्म की निराशा दिखाई देती है। कइयों के पास अपने घर हैं, लेकिन वे वहां नहीं रहना चाहते क्योंकि सुरक्षा की गारंटी नहीं। बच्चे बाहर हैं और जीवनसाथी दुनिया में नहीं। घर में बच्चे हैं तो वे बेपरवाह हैं। इसलिए वहां कैसे रहें। कइयों के बच्चे विदेश में रहते हैं । वहां ये जाना नहीं चाहते। अपने परिवेश से बाहर दूसरी दुनिया में मन नहीं लगता। फिर वहां बच्चे दिनभर काम पर चले जाते हैं और दिनभर घर में अकेले ही रहना पड़ता है। कई बार बच्चों के साथ चले जाने पर तरह-तरह के भेदभाव और दुर्व्यवहार के शिकार भी होते हैं। इन्हें आठ-दस लाख की पूंजी खर्च करके यहां रहने को ठिकाना मिला है। लेकिन देखा जाए तो अपने देश में ऐसे कितने लोग होंगे जिनके पास इतनी बड़ी पूंजी है। हमारे यहां अकेलेपन को ध्यान में रखकर शायद ही कोई योजनाएं बनती हों। अकेलापन जैसे कोई समस्या ही नहीं है। फिर अकेलेपन से उपजा अवसाद और दूसरी बीमारियों के बारे में तो कौन सोचे। बुजुर्गों ने तो चलिए अपनी जिंदगी जी ली लेकिन बच्चों , किशोरों और स्त्रियों की समस्या का क्या हो। आज भी भारत में एक अकेली और साधनहीन स्त्री का रहना बड़ा मुश्किल है। दूसरी तरफ स्त्रियों को सपने दिखाने वाले विमर्शकार कहते हैं कि अकेली स्त्री सब तरह से सुखी होती है। वह आजाद होती है। आजादी की यह भी कैसी परिभाषा है कि हमें अपने अलावा कोई और नहीं चाहिए। देखा जाए तो यह बात सिवाय परिवार के कहीं और लागू नहीं की जाती । क्योंकि किसी दफ्तर में आप अकेले नहीं होते। औरों के साथ मिलकर ही काम करना पड़ता है। इसी तरह बस , मेट्रो या रेलगाड़ी में सफर करते हुए भी आपको दूसरों के साथ ही दिन-रात काटनी होती है। जिस अमेरिका ने लोगों को यह सिखाया कि अकेलापन कितनी अच्छी चीज है, आज इस बात पर वहां त्राहि-त्राहि मची है। बुजुर्ग परेशान हैं। बच्चे-किशोर परेशान हैं।
लेकिन उन विमर्शकारों को क्या कहा जाए जिन्होंने कारपोरेट के जाल में फंसकर अकेलेपन को सबसे अच्छी बात की तरह देखा। एक अकेला आदमी कम्पनियों के लिए सबसे अच्छा उपभोक्ता होता है। परिवार में मान लीजिए पांच लोग रहते हैं तो एक फ्रिज , एक टीवी, एक गैस, एक कार या स्कूटर, एक वॉशिंग मशीन , एक घर से ही काम चल जाता है। लेकिन यही पांच जब अकेले रहते हों तो सबके लिए अलग-अलग चीजें चाहिए। इसी में कम्पनियों और उद्योग का भारी मुनाफा छिपा है। इसीलिए अकेलेपन की एक चमकीली तसवीर तमाम प्रचार माध्यमों के जरिये दशकों से परोसी जा रही है। किसी ने इन बातों पर शोध नहीं किया है कि आखिर मनुष्य को अकेला करके आप उसका क्या भला कर रहे हैं। हां नारा जरूर लगा रहे हैं कि अपने लिए जिओ, एंजॉय करो, घूमो , फिरो क्योंकि यह जिंदगी एक ही बार मिलती है। जिंदगी भर बस दूसरों की जिम्मेदारियां उठाते रहोगे तो अपनी जिंदगी कब जिओगे।
लेकिन जरा किसी अकेले रहने वाले से तो पूछें कि वह वास्तव में कितना खुश है। उसे जीवन की यह रंगीली तसवीर सिवाय काली के कुछ और नहीं दिख रही। आज पश्चिम में इसीलिए परिवार को वापस लाने के बारे में सोचा जा रहा है। क्योंकि वहां के समाज ने अकेले रहकर देख लिया है। पता चल गया है कि अकेले रहने के मुकाबले अपनों के बीच रहना कितना सुखद है। क्या हम भी कोई सीख ले सकते हैं।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं

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