तार्किक सोच
27 जुलाई के दैनिक ट्रिब्यून में भरत झुनझुनवाला का लेख ‘न्याय में देरी से बाधित आर्थिक विकास’ विषय पर चर्चा करने वाला था। लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि जब न्यायालय में अापराधिक मामलों के निपटारे में बहुत समय लग जाता है, उसके बहुत सारे नुकसान होते हैं जैसे जिस योजना में पूंजी को निवेश किया जाना था, उसे निवेश नहीं किया जा सकता। इससे लोगों में अापराधिक प्रवृत्ति में भी वृद्धि हो जाती है। इन सबका भारत के आर्थिक विकास पर बुरा असर पड़ता है।
शामलाल कौशल, रोहतक
आपदाओं का कहर
बाढ़ से लेकर भूस्खलन तक, मानसून से संबंधित आपदाएं हर साल एक आम घटना बन गई हैं। बेतरतीब वनों की कटाई, अवैध निर्माण, लापरवाह खनन और उत्खनन, भारी वर्षा के साथ भूस्खलन की आवृत्ति में वृद्धि हुई है। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में हुई दर्दनाक दुर्घटना भी इसी तथ्य को रेखांकित करती है कि मानव-प्रेरित कारक प्राकृतिक आपदाओं के प्रमुख कारणों में से एक हैं। अधिकारियों को संवेदनशील क्षेत्रों, विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में आपदा से निपटने की तैयारियों के हिस्से के रूप में मानचित्र बनाना चाहिए और अलर्ट भेजना चाहिए।
आकाश कुमार, जगराओं
अनाथों की त्रासदी
25 जुलाई के दैनिक ट्रिब्यून के अध्ययन कक्ष में शोभा रानी गोयल की ‘प्रश्न’ कहानी मातृशक्ति की अंतर्व्यथा कथा का मार्मिक खुलासा करने वाली थी। अनाथालय में बच्चियों का भविष्य असुरक्षित है। युवावस्था में शारीरिक और मानसिक शोषण की शिकार युवतियां समाज के ठेकेदारों से कुछ सवालिया प्रश्न करने पर विवश्ा करती हैं। फरियादी न्याय पाने की खातिर दर-दर की ठोकरें खाते हैं। लोकतंत्र में मर्यादा बिखरी नजर आती है।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल