आर्थिक चुनौतियों में उम्मीदों का उजाला
जब संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ था तो उम्मीद थी कि इस बार संसद में गंभीर चर्चा होगी। रिकार्ड स्तर पर प्रस्ताव पारित होंगे। देश कोरोना संक्रमण या महामारी के विकट प्रभाव से निजात पा रहा है। अब एक नई कर्मशक्ति के साथ पूरा देश, शहर, कस्बे और गांव निर्माण पथ पर चलेंगे। जन-जन की कठिनाइयां हल होंगी। रुकी हुई अर्थव्यवस्था चल निकलेगी। जिस प्रकार देश ने रिकार्ड स्तर पर टीकाकरण अभियान में सफलता प्राप्त की है और दो सौ करोड़ से अधिक टीके लग गये हैं, उसी प्रकार इसकी विकास दर को भी गति मिलेगी। यह दर आठ प्रतिशत ही नहीं, दस प्रतिशत से भी ऊपर जा स्वत:स्फूर्त स्तर को प्राप्त कर लेगी।
आगे बढ़ने में कुछ दिक्कतें आ गयी हैं। महंगाई नियंत्रणहीन हो रही है। बेकारी की समस्या का हल नजर नहीं आता। तिस पर भारत में लगा विदेशी निवेश फैडरल ब्याज दरों के प्रभाव से उड़न छू हो रहा है। मोदी सरकार के भ्रष्टाचार के ‘जीरो टॉलरेंस’ नारों के बावजूद, भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी। पश्चिमी बंगाल से पंजाब तक सरकारों में बैठे भाग्य नियन्ताओं का कच्चा चिट्ठा खुल जाने के बाद भ्रष्ट चेहरे सबको चौंका रहे हैं। कोरोना की वापसी से लेकर मंकी पॉक्स तक अपने लौटते कदमों या प्रवेश की आहट के साथ देश के सेहत ढांचे के लिए चुनौती बन रहे हैं।
उम्मीद थी कि इस संसद सत्र में इन गंभीर समस्याओं पर विशद चर्चा होगी और सब पक्ष अपनी-अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं को भूलकर मिलजुल कर नव चिंतन पथ पर अग्रसर होंगे। इस पथ प्रयाण की भूमिका आकर्षक थी। सरकार ने मानसून सत्र से पहले क्या बोलना है, किन शब्दों की सीमा रेखाओं में बोलना है। और आंदोलित विपक्ष के अपेक्षित व्यवहार की विवरणिका प्रसारित कर दी गयी थी। इसके प्रति मुखर अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार पर बन्दिशें लगाने की विपक्ष की हायतौबा के बावजूद उम्मीद थी कि इस बार पिछले संसद सत्रों की तुलना में यह मानसून सत्र अधिक सार्थक और कारगर होगा।
सत्र शुरू हुआ और पहले महंगाई पर चर्चा हो, इसके विपक्षी कोलाहल के कारण लगातार सदन अवरुद्ध होने लगा। यहां तक कि लोकसभा और राज्यसभा में पीठाध्यक्षों को रिकार्ड स्तर पर सांसद निलंबित करने पड़े। चार सांसद पूरे सत्र के लिए और तेईस आंशिक अवधि के लिए। इस निर्णय के विरुद्ध संसद के अंदर और बाहर प्रदर्शन हुआ। गतिरोध के बादल निलंबित सांसदों के राज्य सभा में लौटने के साथ छंट सकते थे। तभी संसद में कांग्रेस के नेता अधीर के राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कह देने पर फिर होहल्ला और हंगामा शुरू हो गया। प्रस्तावित छोटे-बड़े प्रस्तावों की अर्धशतक संख्या फिर संसद की कार्यवाही के गतिरोध-अवरोध की शिकार होती लगी। फिर जब संसद में महंगाई पर चर्चा के लिए तैयार होने की खबर आयी तो देश का आम आदमी संसद के इस महत्वपूर्ण सत्र को गतिरोध की धारा में डूबता देखकर मुंहबाये खड़ा रहा। राजनीति के प्रांगण में यह अगंभीरता देश के आम नागरिक को या महामारी से प्रताड़ित नये और पुराने बेकारों को नेत्र विस्फारित करने पर मजबूर करती रही। उन्हें काम कहीं मिलता नहीं। कार्य योग्य जनता में से आधी चिंतित है और बेरोजगारी के नये आंकड़ों के मुताबिक इस जून में पच्चीस लाख लोगों ने नौकरियां गंवा दी हैं। कोरोना तो अभी विदा नहीं हुआ और देश को नया आर्थिक रोग लग गया मन्दी का। नये निवेश की बात छोड़िये, विद्यमान निवेश भी मांग की कमी की कठिनाई झेलने लगा। चलते काम प्रोत्साहित हो उछाल लेने की बजाय, निष्प्राण हो जाने का संकट झेलने लगे। कारण था इस आयात आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश में रुपये का विनिमय में लगातार गिरता मूल्य और दूसरी ओर निरंतर बढ़ती हुई महंगाई।
इस साल के शुरू में जिस डॉलर का मूल्य बहत्तर रुपये था, वह अब अस्सी रुपये और आजकल थोड़ा-सा ऊपर चल रहा है। आज परचून महंगाई 7.0 प्रतिशत है, खाने-पीने की चीजों में 7.75 प्रतिशत और सब्जियों की दर 7.37 प्रतिशत। तिस पर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता को अपनी ऊंची कीमतों में जकड़ने वाले पेट्रोलियम उत्पाद अभी तक किसी भी राहत से इनकार कर रहे हैं, चाहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह कुछ कमी दिखायें, तो भी।
अब संसद में झगड़ा यह हुआ कि ऐसे विकट महंगाई के समय में सरकार ने अपनी जीएसटी की नयी दरें खाने-पीने की चीजों, पैक्ड आटा, अनाज, पनीर, लस्सी, शहद, गुड़, दूध पर क्यों लगा दी? यह तो महंगाई को और बढ़ाने वाली बात हो गयी। सरकार कहती है जीएसटी की जिस बैठक में यह जीएसटी लगाया गया, उसमें राज्य भी शामिल थे। उनकी सहमति से कर लगा। अब इसका घोर विरोध क्यों? लेकिन संसद का यह विरोध सड़कों से उभरा है। लोगों की कठिनाई बढ़ी है तो कर वापस भी तो लिये जा सकते हैं। लेकिन इसका फैसला संसद को करना था, उसके मानसून सत्र को करना था। लेकिन वह तो इतने दिन कोलाहल के गतिरोध में उलझा रहा? रुके और ठिठके हुए लोग अपने भाग्य नियन्ताओं के कोलाहल थमने का इंतजार करते रहे? रोजमर्रा की चीजों के आकाश छूते स्तर के नियंत्रित होने का इंतजार करते रहे, जिन्होंने उनके बजट के बखिये उधेड़ दिये हैं।
लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। यह आर्थिक वर्ष प्रारंभ हुआ था उद्घोषणाओं के इस हंगामे के साथ कि देश ने अपने निर्यात में रिकार्ड तोड़ वृद्धि प्राप्त कर ली है। यह असत्य नहीं था, परन्तु हम कैसे भूल गये कि हमारा देश एक आयात आधारित अर्थव्यवस्था है। अपनी जरूरत के पेट्रोलियम उत्पादों का पचासी प्रतिशत तो हम विदेशों से आयात करते हैं। उधर विश्व की व्यावसायिक और राजनीतिक परिस्थितियां कुछ इस प्रकार बदलीं कि रूस और यूक्रेन के भयावह युद्ध ने आपूर्ति संकट पैदा कर दिया। पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतों ने ऑयल और नैचुरल गैस कमीशन की आय में वृद्धि कर दी, लेकिन हमारे पेट्रोलियम उत्पादन का स्वदेशी निष्कासन और भी घटा दिया।
इसके साथ एक विडम्बना और भी है कि हमारी मुख्य निर्यात वस्तुएं कच्चे माल के लिए विदेशों से आयात पर निर्भर करती हैं। इसलिये निर्यात के मुकाबले हमारे अधिक आयात कम होकर रुपये के बदले हमारी डॉलर के लिए बढ़ती मांग कम हो तो कैसे? नतीजा, आयात के मुकाबले निर्यात का यह विनिमय घाटा कम नहीं हुआ, और पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती जरूरतों ने डॉलर के मुकाबले हमारे रुपये की कमर तोड़ दी। हमारे पास विदेशी मुद्रा का भंडार है। लेकिन पिछले नौ महीनों में रुपये के मूल्य के स्तर को आरक्षण की छतरी देने के लिए (रिजर्व बैंक के शब्दों में) हमने सत्तर अरब डालर व्यय कर दिये।
उधर, विदेशी संस्थागत निवेशकों ने इस बरस 28.4 अरब डालर के शेयर बेच दिये, और हमारी 22.6 अरब डालर की कमर्शियल कर्जदारी के ब्याज का भुगतान भी हमारे सिर पर है। इस मझधार से कैसे बाहर आया जाये? रास्ता स्पष्ट है। महंगाई का प्रहार नियंत्रित करना होगा। कुछ मूल जरूरी वस्तुओं पर जीएसटी लोगों को बहुत खल रहा है, इससे छुटकारा दिया जाये। लेकिन इससे भी सर्वोपरि यह कि इस आयात आधारित व्यवस्था की प्रकृति बदलनी चाहिये। जितनी जल्दी हम आत्मनिर्भर हो सकें उतना ही अच्छा।
लेखक साहित्यकार हैं।