विषम परिस्थितियों में जीवटता सीखें कुदरत से
सीताराम गुप्ता
कुछ दिन पहले की बात है। पार्क में घूमते हुए कुछ पेड़ों पर नजर पड़ी। फिशटेल पाम के चार वृक्ष थे। उन चारों वृक्षों के तनों के ऊपरी हिस्सों में पीपल के पेड़ उगे हुए थे। वे कई-कई फुट के हो चुके थे। वे ऐसे बढ़ रहे थे जैसे सामान्य रूप से जमीन पर अथवा मिट्टी में बढ़ते हैं। फिशटेल पाम के वृक्षों को भी उनके उगने अथवा बढ़ने पर कोई आपत्ति नहीं दिखलाई पड़ रही थी। प्रकृति में जितनी विभिन्नताएं देखने को मिलती हैं उतनी ही विषमताएं भी देखी जा सकती हैं। कहीं वर्षों से कोई पेड़ किसी सूखे से टीले पर डटा हुआ दिखलाई पड़ता है तो कहीं कोई पेड़ वर्षों किसी नदी अथवा तालाब के किनारे पानी के अंदर ही डूबा हुआ दिखलाई देता रहता है। घरों की छतों पर पानी की टंकियों के आसपास पीपल, बरगद अथवा पिलखन के पेड़ उगना और विषम परिस्थितियों में लगातार बढ़ते रहना आम बात है।
पहाड़ों की ऐसी-ऐसी ढलानों पर कई विशाल वृक्ष दिखलाई पड़ जाते हैं जहां एक नन्हे से कंकड़ का ठहर पाना भी मुश्किल हो। कई पेड़ किसी दुर्घटना के कारण ऐसी अवस्था में आ जाते हैं कि वे सीधे नहीं हो सकते। उनके मोटे-मोटे तने जमीन के समानांतर हो जाते हैं लेकिन वे हार नहीं मानते और इसी अवस्था में बढ़ना शुरू कर देते हैं। उनके तनों से नई शाखाएं निकलकर ऊपर की ओर बढ़ने लगती हैं। एक हरा-भरा पहाड़ भूस्खलन के कारण तहस-नहस होकर सैकड़ों फुट नीचे आ गिरता है लेकिन कुछ ही सालों में वो पुनः हरा-भरा होकर जीवित प्रतीत होने लगता हैै। कितना संघर्ष करना पड़ता होगा इन सबको संतुलन बनाए रखने और हर हाल में जीवित बने रहने के लिए।
एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है। गांव में हमारे घर के सामने गली के दूसरी ओर जो चौपाल थी उसमें छत से बरसात का पानी निकलने के लिए बनी हुई मोरी में छत से कोई दो-ढाई फुट नीचे दीवार पर ही पीपल का एक पौधा उग आया। बरसात के दिनों में कोई बीज बहकर मोरी के रास्ते आया और उस जगह पर अटक गया। परिस्थितियों ने उसे वहीं अंकुरित होने के लिए विवश कर दिया। उस अंकुर में दो पत्तियां भी निकल आईं जो धीरे-धीरे कुछ बड़ी हो गईं, लेकिन पौधे को जड़ें फैलाने के लिए पर्याप्त अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया। उसका दस-बारह इंची तना कालांतर में अपेक्षाकृत कुछ मोटा होता रहा लेकिन पत्तियों की संख्या पांच-छह से ज्यादा कभी नहीं हो पाई। कई बार सोचता हूं कि क्या उसे पौधा कहना उचित होगा?
न तो पौधे को जड़ें फैलाने के लिए ही पर्याप्त स्थान मिलने की संभावना थी और न ही अन्य किसी तरीके से पर्याप्त पोषण मिलने की, फिर भी कई सालों तक वह वहीं डटा रहा। महीन सूत बराबर मात्र दो-चार जड़ों के सहारे वो पीपल का पौधा दीवार से जुड़ा या सटा हुआ था। बरसात के दिनों में उसके पत्ते कुछ हरे और चमकदार दिखलाई पड़ते थे। शेष पूरे साल कमजोर और पीले-पीले ही नजर आते थे। हर बार पतझड़ के दौरान वो भी अपनी पहले से ही बेजान हो चुकी इन पत्तियों को गिरा देता और उसके बाद उस पर भी कुछ दिनों के लिए चमकीली कोंपलें लहराने लगतीं लेकिन पत्तियों की संख्या कभी बढ़ नहीं पाई। लगता था इस बार जरूर ये पौधा किसी दिन या तो तेज आंधी में उखड़कर धराशायी हो जाएगा या फिर तेज धूप व लू के थपेड़ों से झुलसकर वहीं उलटा लटक जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
उस पौधे के जीवट को देखकर हैरानी होती थी। कई बार उसकी दशा को देखकर दुख भी होता था तो उसके विषम परिस्थितियों में डटे रहने के दमखम को देखकर ईर्ष्या भी होती थी। हम जब तक वहां रहे वो पौधा भी दृढ़ता से जड़ें जमाए दिखलाई पड़ता रहा। संभव है वो आज तक वहीं पर डटा हुआ अपनी नन्ही-नन्ही विजय-पताकाएं फहरा रहा हो। कई बार उस पौधे की याद आती है विशेष रूप से जब विषम परिस्थितियों से आमना-सामना होता है या दूसरे लोगों की विषम परिस्थितियां देखने-सुनने में आती हैं। यदि हम पौधों से अपनी तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि हमारे सामने जीवित रहने और विकास करने के अनेक विकल्प उपलब्ध होते हैं जबकि पौधों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं होता। फिर भी हम उनकी विषम परिस्थितियों से प्रेरणा न लें तो इसमें दोष किसका होगा? हम पेड़-पौधों और प्रकृति की विषमताओं से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
पौधे एक बार जहां उग गए उन्हें हमेशा के लिए वहीं के होकर रह जाना पड़ता है। विषम परिस्थितियों में हम अन्यत्र जा सकते हैं। हम किसी से मदद मांग सकते हैं। हम हर हाल में अपनी परिस्थितियों को बेहतर बनाने का प्रयास कर सकते हैं। हम अपनी रिहाइश अथवा कारोबार बदल सकते हैं। यदि कहीं रहने में असुविधा हो रही हो तो उस स्थान अथवा घर को भी बदल सकते हैं। लेकिन पौधों के लिए ये कठिन ही नहीं, असंभव है। जब एक पौधा अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व को बचाए रख सकता है तो अनेक विकल्पों के बावजूद हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? परिस्थितियां चाहे कितनी भी विषम क्यों न हों, हमें उनके सम्मुख हथियार डालने की बजाय डटे रहकर नए विकल्पों की तलाश में जुट जाना चाहिए। साथ ही फिशटेल पाम के वृक्षों की तरह दूसरों को स्वीकार करने की क्षमता का विकास भी अपने अंदर करने का प्रयास करते रहना चाहिए।