Kumbh in Paryagraj अखाड़ों का अनूठा संसार
हर बारह साल आने वाला महाकुंभ विराटतम मेला है संतों-साधकों और आध्यात्मिक विभूतियों का। श्रद्धालु यहां स्नान व ज्ञान के साथ ही दिव्यता की अनुभूति करने आते हैं। संतों के कुल तेरह अखाड़े आज भी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों के अनुशासन के अधीन कुंभ में वास-तप करते हैं। दशनामी संन्यासियों, बैरागियों, उदासियों के लाखों साधु यहां आये हैं। वहीं देशी-विदेशी श्रद्धालु यहां देखने आये हैं- नागा, अघोरी व किन्नर साधुओं का अद्भुत संसार।
कौशल सिखौला
(धार्मिक मामलों के लेखक)
प्रयागराज में कुंभ महापर्व के अवसर पर संतों का अद्भुत संसार सजा हुआ है। शंकराचार्य सहित अखाड़े, मठ, आश्रम सभी के आचार्य धर्मनगरी में विराजमान हैं। महाकुंभ में जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित अखाड़ों का वैभव देखते ही बनता है। दशनामी संन्यासियों, बैरागियों, उदासियों और निर्मलों के लाखों साधु-संत कुंभ की शोभा बने हुए हैं।
प्रयागराज महाकुंभ मेले की रौनक के साथ ही विभिन्न अखाड़े धार्मिक रीति-रिवाजों और रोचक परंपराओं के लिये सुर्खियों में हैं। संगम में डुबकी लगाने वाले हर श्रद्धालु के मन में जिज्ञासा होती है विभिन्न अखाड़ों की गतिविधियों व तौर-तरीकों को जानने की। दरअसल, आदि शंकराचार्य के महामठामनाय में निर्धारित हैं जगद्गुरुओं और अखाड़ों के नियम-उपनियम। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अखाड़ों में कोई पद उत्तराधिकार से नहीं मिलता।
चार पीठें और 13 अखाड़े
उल्लेखनीय है कि देश में चार पीठों के अलावा और कोई मठ नहीं है। अखाड़ों की संख्या अभी भी तेरह ही है। जिस किन्नर अखाड़े की आजकल खूब चर्चा हो रही है, वह जूना अखाड़े का हिस्सा भर है। तेरह अखाड़ों के साथ-साथ जूना अखाड़े से जुड़े किन्नर अखाड़े, गूदड़ अखाड़े और साध्वियों के माइवाड़े की दैनंदिन गतिविधियां विदेशी श्रद्धालुओं को बहुत आकर्षित कर रही हैं। बैरागी आणि अखाड़ों के निर्मोही, दिगम्बर और निर्वाणी वैष्णव संत अपने तंबुओं में भक्तिधारा बहा रहे हैं।
नागाओं और अघोरियों का अद्भुत संसार
इन्हीं संतों, अखाड़ों व आश्रमों के साथ अपने चारों ओर आग जलाकर साधना करते बाबाओं, नागा संन्यासियों, हठयोगियों और अघोरियों का अद्भुत संसार भी देश-विदेश से आए श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों का मुख्य आकर्षण बना हुआ है। वर्ष 2021 के हरिद्वार कुंभ के दौरान किन्नर अखाड़ा बनाकर जूना अखाड़े ने थर्ड जेंडर का जिस तरह सम्मान बढ़ाया, वह सनातन संस्कृति का अनुपम उदाहरण है। नागा संन्यासियों के सात अखाड़े हैं। इनके नाम हैं जूना, अग्नि, आवाहन, निरंजनी, आनंद, महानिर्वाणी और अटल। सभी तरह के अखाड़ों के स्नान का क्रम भी निर्धारित है। हर महाकुंभ के अवसर पर इनका पालन किया जाता है। प्रशासन इस बात को लेकर खासा सतर्क रहता है कि इस क्रम में किसी तरह का व्यवधान न हो, जिससे किसी अनावश्यक टकराव को टाला जा सके।
शंकराचार्य ने किया था संतई का नियमन
आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य ने केरल के काल्डी ग्राम से निकलकर देश में संतई के नियमन हेतु चार पीठों की स्थापना की थी। इन पीठों पर आसीन होने वाले दसनाम संन्यासियों के लिए नियमों-उपनियमों तथा अधिकार क्षेत्रों का निर्धारण किया था। किसी शंकराचार्य के निधन के उपरांत काशी विद्वत् परिषद को दायित्व सौंपा गया था कि वे गिरी, पुरी, भारती, तीर्थ, आश्रम आदि उपनामों वाले दसनामियों के बीच शास्त्रार्थ कराकर नए शंकराचार्य का अभिषेक करें।
कुछ बदला मगर मूल वही
तथापि जैसे-जैसे अखाड़ों और आश्रमधारी बाबाओं का जोर बढ़ता गया , समय के साथ तमाम मर्यादाएं बदलती चली गई। शंकराचार्य जैसे सनातन जगत के सर्वोच्च पद की रिक्ति पूर्ति अब मृत शंकराचार्य की इच्छा या वसीयत के आधार पर होने लगी है। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित मान्यताएं और शंकर महामठामनाय लिखित मर्यादाएं अब बिखर रही हैं। पिछले वर्ष ज्योतिर्पीठ और शारदापीठ के दोनों पदों पर आसीन शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के ब्रह्मलीन होने के बाद इन दोनों पीठों पर जिस प्रकार उत्तराधिकार के आधार पर जगद्गुरु विराजमान हुए, वह प्रकरण आज भी न्यायालयों में विचाराधीन है।
धार्मिक विवादों पर निर्णय का अधिकार मठों को
आदि शंकराचार्य ने उत्तर के बद्रीनाथ में ज्योतिर पीठ, दक्षिण के श्रंगेरी में श्रंगेरी पीठ, पूर्व की जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम की द्वारिका में शारदा पीठ की स्थापना की थी। सनातन धर्म से संबंधित सभी निर्णयों और विवादों के निर्धारण का अधिकार उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम स्थित इन्हीं चार मठों को दिया गया था। दसनाम संन्यासियों के निरंजनी, आनंद, महानिर्वाणी, अटल, जूना, अग्नि और आवाहन अखाड़ों का संचालन इन्हीं शंकराचार्य पीठों के अधीन था। सनातन हिन्दू धर्म के तमाम अधिकार इन्हीं चार मठों के हवाले थे और किसी भी विवाद का अंतिम निस्तारण शंकराचार्य करते थे। कालांतर में शंकराचार्यों का महत्व घटता चला गया और अखाड़ा परिषद, आश्रम परिषद, षड्दर्शन साधु समाज, संत समिति, आचार्य महामंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, श्रीमहंत आदि प्रभावशाली होते चले गए। आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित मान्यताओं को भुलाकर शंकराचार्यों की दर्जन भर नई पीठ संन्यासियों द्वारा बना ली गई। एक-एक पीठ पर कई-कई शंकराचार्य हो गए। शंकराचार्य पद शास्त्रार्थ के बजाय प्रभाव से मिलने लगे।
रामानंद महाराज की वैष्णव परंपरा
यही स्थिति वीतराग स्वामी रामानंद महाराज द्वारा स्थापित जगद्गुरु रामानंदाचार्य पीठों की भी हुई। रामानुजाचार्य पीठ और बैरागियों के अखाड़े भी इसी तरह प्रभावित हुए। अनेक धाराएं अलग होती गई, अनेक तंत्र हावी होते रहे। वास्तव में शंकराचार्य जैसे वरिष्ठ पदों पर विद्वान संत आने चाहिए। चयन भी शंकर अनुशासन ग्रंथ के आधार पर होता रहा है। शंकराचार्य जैसे वरिष्ठतम धार्मिक पद पर आसीन होने वालों का चयन शास्त्रार्थ के माध्यम से होना चाहिए ताकि सर्वोच्च स्थान पर सर्वमान्य संत आसीन हो। विद्वत् परिषद के पदों पर भी योग्य विद्वानों का आना जरूरी है। यह तभी संभव है कि देश की आध्यात्मिक जनता को सही दिशा मिल पाए। उनके मन में किसी विषय विशेष को लेकर कोई दुविधा न हो।
उदासीन और निर्मले पंथ
गुरुनानक देव तथा तीजी पातशाही से से संबद्ध उदासी अखाड़ों की संख्या अब दो है। इस परम्परा में लाखों साधु-संत हैं तथा चारों कुंभ नगरों सहित उदासीनों के अनेक आश्रम हैं। अंतिम अखाड़ा सिख संतों से जुड़ा है जो निर्मल पंथ का अनुसरण करता है। बहरहाल सत्य सनातन सभ्यता का मूर्तरूप एक बार फिर से कुंभ के रूप में जीवंत हो उठा है। प्रयागराज में विभिन्न संप्रदायों, पंथों, खुलासों, अनियों एवं मढ़ियों की सांस्कृतिक परंपराएं साकार हो गई हैं। विश्व का महानतम जनकुंभ प्रारंभ हो चुका है। देश-दुनिया से करोड़ों श्रद्धालु आध्यात्मिक लाभ के लिए प्रयागराज के महाकुंभ में जुट रहे हैं। वर्तमान में आपाधापी एवम् सांस्कृतिक पराभव के दौर में कुंभ दर्शन एक बार फिर से प्राचीन सनातन जीवंत परंपराओं को साकार कर रहा है। निश्चित रूप से महाकुंभ में आने वाले देश के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था व विश्वास को बनाये रखने के लिये जरूरी है कि सनातन परंपराओं की गरिमा अक्षुण्ण रहे।