शिव के रौद्र रूप को समर्पित कालभैरव जयंती
आर.सी.शर्मा
भगवान शिव के रौद्र रूप को कालभैरव कहा जाता है। धार्मिक और आध्यात्मिक जगत में शिव के इस रौद्र रूप का बहुत महत्व है। क्योंकि माना जाता है कि शिव का रौद्र रूप हमारे दुखों को काटता है। अध्यात्म के संसार में रौद्र रूप का अर्थ है- अज्ञानता और माया का नाश करना। शिव का रौद्र रूप सृष्टि के चक्र को गति प्रदान करता है। शिव के रौद्र रूप को सर्वअंतर्यामी और सर्वोत्तम भाव प्रतीक माना गया है।
शिव के तांडव का स्वरूप
शिव के रौद्र रूप को मानवमात्र के लिए कल्याणकारक माना गया है, इसलिए हम इंसानों के लिए शिव के रौद्र रूप का बहुत महत्व है। शिव के रौद्र तांडव से जहां सृष्टि का विनाश होता है, वहीं शिव के आनंद तांडव से सृष्टि खिल उठती है। इससे उसकी उत्पत्ति होती है। यही वजह है कि शिव के नटराज रूप को विनाश और विकास दोनों का साझा रूप समझा जाता है। बस फर्क है तो इतना कि शिव के तांडव की मुद्रा क्या है? वह रौद्रमय है या आनंदमयी। कालभैरव भगवान शिव के उग्र और भयंकर रूप के रूप में पूजे जाते हैं। उनका रूप अत्यंत तात्विक और भीषण होता है, जो मृत्यु और समय के परम रक्षक के रूप में जाना जाता है। वे न केवल भय और शत्रु के विनाश के देवता हैं, बल्कि उन्हें काल (समय) के नियंता के रूप में भी पूजा जाता है।
भय का नाश
कालभैरव अष्टमी या कालाष्टमी इसी शिव के रौद्र रूप की जयंती है। इसी दिन कालभैरव अर्थात् रौद्र शिव का जन्म हुआ था। सदियों से यह मान्यता है कि जिस दिन भगवान शिव के इस रौद्र रूप का जन्म हुआ था, उस दिन अगर कालभैरव की पूजा की जाए तो मनुष्य के भय का समूल नाश हो जाता है। कालाष्टमी के दिन भगवान शिव, माता पार्वती और कालभैरव की पूजा की जानी चाहिए। भैरव का अर्थ ही भय को हरने वाला है। इसलिए कालभैरव की पूजा करने से इंसान के सभी तरह के भौतिक और आध्यात्मिक भयों का अंत हो जाता है। इसलिए कालाष्टमी के दिन हर धार्मिक और अध्यात्म प्रिय व्यक्ति को कालभैरव की पूजा करनी चाहिए।
आराधना विधि
कालाष्टमी या कालभैरव अष्टमी को कालभैरव की पूजा करने के लिए सबसे पहले दिन में सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए और नित्य क्रिया आदि करके स्वच्छ हो जाना चाहिए। जिस घर में लंबे समय से कोई बीमार व्यक्ति सही न हो रहा हो, उसकी तकलीफ, उसका रोग दुखों का कारण बन गया हो, उसे यह कालभैरव की पूजा जरूर करनी चाहिए। अगर आपके आसपास गंगा नदी है तो इस दिन गंगा में स्नान करें या घर में गंगाजल है तो उसे जल में डालकर स्नान करें। इस दिन जब व्रत रहें तो पितरों को याद करें और ‘ह्रीं उन्मत्त भैरवाय नमः’ का जाप करें। इसके उपरांत कालभैरव की आराधना करें।
कालभैरव की उत्पत्ति
भगवान शिव के कालभैरव रूप की उत्पत्ति उनकी ब्रह्मा और विष्णु जी से नाराजगी का नतीजा थी। जब किसी बात पर भगवान शिव का ब्रह्मा और विष्णु के साथ विवाद हो गया तो इस पर उनके गुस्से से कालभैरव की उत्पत्ति हुई। लेकिन क्षमा मांगने पर वह कालभैरव के कोप से बच गये। इनके क्षमा मांगते ही भगवान शिव पुनः अपने रूप में आ गये। लेकिन कालभैरव पर ब्रह्म हत्या का दोष चढ़ चुका था।
महाकालेश्वर और डंडाधिपति
भगवान कालभैरव को महाकालेश्वर और डंडाधिपति भी कहा जाता है। वाराणसी मंे दंड से मुक्ति मिलने के कारण इन्हें दंडपाणि भी कहा गया। ब्रह्मा जैसा ब्रह्म और भय किसी और को न हो, इसलिए कालाष्टमी के दिन कालभैरव की पूजा की जाती है। कालाष्टमी के दिन कालभैरव की पूजा और व्रत पूरे विधि-विधान के साथ करना चाहिए। ऐसा करने से जीवन के सभी तरह के कष्टों और भयों से मुक्ति मिलती है।
कालभैरव जयंती का महत्व इस बात से भी जुड़ा है कि यह दिन समय और काल के उपासना से जुड़ा हुआ है। इस दिन भक्त काल के देवता की पूजा करते हैं, ताकि उनके जीवन में समय का सही सदुपयोग हो, जीवन में कोई भी विघ्न न आए, और वे किसी भी प्रकार के भय और संकट से मुक्त रहें। कालभैरव की पूजा से जीवन में सफलता, धन और समृद्धि भी आती है।
शुभ मुहूर्त
कालभैरव जयंती का शुभ मुहूर्त 22 नवंबर को शाम 6 बजकर 7 मिनट से प्रारंभ होकर 23 नवंबर को शाम 7 बजकर 56 मिनट पर खत्म होगा।
कालभैरव जयंती के दिन भगवान शिव यानी भगवान शिव के रौद्र रूप की पूजा करने के लिए बेलपत्र पर ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाना चाहिए। कालभैरव जयंती के दिन भूलकर भी मन में किसी बात को लेकर अहंकार नहीं लाना चाहिए और इस दिन भूलकर भी किसी बेजुबान पशु-पक्षी को परेशान नहीं करना चाहिए।
कालभैरव जयंती का आयोजन विशेष रूप से उन स्थानों पर अधिक धूमधाम से होता है, जहां कालभैरव के मंदिर हैं, जैसे कि काशी (वाराणसी), जहां कालभैरव का सबसे प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। इसके अलावा, उज्जैन और हरिद्वार जैसे धार्मिक स्थलों पर भी इस दिन विशेष आयोजन होते हैं।
इ.रि.सें.