लैंगिक भेदभाव से मुक्त कानून से ही न्याय
क्षमा शर्मा
हाल ही में केरल हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने कहा कि यदि किसी महिला के साथ दुष्कर्म होता है, उसे शादी का झांसा दिया जाता है, उसे फंसाया जाता है तो वह कानून की मदद लेकर अपराधी को सजा दिला सकती है, मगर यदि किसी पुरुष के साथ ऐसा हो, तो उसे कानून की कोई मदद नहीं मिलती। यह किस तरह का कानून है। कानून को लैंगिक भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। इससे पहले एक और मुकदमे में भी वह ऐसे ही विचार रख चुके हैं।
पिछले दिनों केरल के ही एक अभिनेता और निर्देशक पर एक अभिनेत्री ने दुष्कर्म का आरोप लगाया तो उन्होंने अपने फेसबुक लाइव में उस अभिनेत्री का नाम लिया जबकि ऐसा करना कानूनन अपराध है। लेकिन इस अभिनेता ने कहा कि जब मेरा नाम खुलेआम लिया जा रहा है तो मैं उस अभिनेत्री का नाम क्यों न लूं। क्या कोई समझ सकता है कि इस तरह के आरोप के बाद मेरे परिवार, मित्र, नाते-रिश्तेदारों पर क्या बीत रही है। अभिनेता की पोस्ट पर बहुत लोगों ने कहा कि आजकल ऐसा ही हो रहा है। इस तरह के झूठे मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार 2020 में हर रोज भारत में सतहत्तर दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए थे। वर्ष 2014 में दिल्ली महिला कमीशन ने एक रिपोर्ट में बताया था कि अप्रैल, 2013 से जुलाई, 2014 तक दुष्कर्म के जितने मामले दर्ज कराए थे, उनमें से 53.2 प्रतिशत झूठे पाए गए थे। दर्ज कराए गए 2753 मामलों में 1287 मामले सही और 1464 झूठे थे। सोचें कि जब एक साल का आंकड़ा यह है, तो एक दशक का कितना होगा। कहा तो यह भी जाता है कि भारत में नए दुष्कर्म कानून बनने के बाद झूठे मामले बढ़ते जा रहे हैं। यह भी बताया जाता है कि अक्सर जब किसी कारण से शादी नहीं हो पाती, माता-पिता को पता चलता है कि लड़की, लड़के के साथ लिव इन में थी, या कि दोनों के बीच संबंध रहे हैं और अब शादी नहीं हो पा रही, तो उन्हें लगता है कि इससे समाज में बहुत बदनामी होगी। इसलिए बहुत से मामलों में वे लड़कियों पर दुष्कर्म का मामला दर्ज कराने का दबाव डालते हैं। कई बार अन्य कारणों जैसे प्राॅपर्टी, या लड़के के माता-पिता के साथ रहना, कोई प्रेम प्रसंग, लिव इन का टूट जाना, लड़ाई के बाद बदला लेने के लिए आदि के कारण भी ऐसे मामले दर्ज करा दिए जाते हैं। कुछ उदाहरण देखिए-इसी साल अप्रैल में एक स्त्री ने अपने पति पर आरोप लगाया था कि उसके पति ने शादी से पहले उसके साथ दुष्कर्म किया था। लेकिन अदालत में वह इस बात को साबित नहीं कर पाई थी। तब अदालत ने उस पर दस हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया था।
इंदौर में भी एक महिला ने अपने पड़ोसी और उसके दोस्तों पर सामूहिक दुष्कर्म का आरोप लगाया था। बाद में जांच के दौरान पता चला कि इससे पहले भी वह ऐसा आरोप लगा चुकी है। सरकार की तरफ से उसे दो लाख का मुआवजा भी दिया गया था। बहुत से लोग कहते हैं कि झूठे मामलों की बाढ़ का कारण सरकारों की तरफ से मिलने वाला मुआवजा भी है। सबसे ज्यादा हैरत तो यह देखकर होती है, कई बार यदि ऐसे मामलों में लड़की की जान चली जाए तो उसके घर वालों को तरह-तरह के आर्थिक लाभ से लाद दिया जाता है। इसमें बहुत से राजनैतिक दल बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। आखिर क्यों? लड़की के साथ अपराध हुआ, उसकी जान चली गई, बदले में पीड़िता के घर वालों को क्यों ऐसे लाभ मिलने चाहिए। इन कारणों से माता-पिता में भी लालच की भावना बढ़ती है। मुआवजे की आस में बहुत बार वे भी अपनी ही लड़कियों से ऐसे केस दर्ज करा देते हैं। जो कई बार झूठे पाए जाते हैं।
गाजियाबाद में भी एक महिला ने पड़ोसी पर आरोप लगाया था कि उसने उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म किया है, बाद में यह मामला भी झूठा साबित हुआ था। महिला पर जुर्माना भी लगाया गया था। आपको उत्तर प्रदेश के विष्णु तिवारी का मामला तो याद ही होगा, जिसने झूठे दुष्कर्म आरोप के कारण पूरे बीस साल जेल में बिताए। जब बाहर आया तो न तो परिवार का कोई सदस्य जिंदा था, कच्चा घर ढह गया था। पास में फूटी कौड़ी नहीं थी, जिससे कोई काम-धंधा शुरू कर सके।
अब जब अदालतें और न्यायाधीश भी इस तरह के मामलों पर टिप्पणी कर रहे हैं, ऐसे केसों को झूठा पाए जाने पर महिलाओं को चेतावनी दे रहे हैं, उन पर मुकदमा चलाने के आदेश दे रहे हैं तो इन बातों पर विचार करना जरूरी है कि जब भी महिलाओं के हितों के कानून बनाए जाएं, उन्हें लैंगिक भेदभाव से मुक्त रखा जाए। जिससे कि जो भी सताया गया हो, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसे कानून की मदद मिल सके। ऐसा न हो कि झूठे आरोप लगाने पर भी किसी को सजा हो और कोई झूठे आरोपों के कारण जिंदगी भर के लिए नेस्तनाबूद हो जाए।
एक बात और, जैसे ही किसी पर दुष्कर्म का आरोप लगता है, उसके फोटो, नाम सब मीडिया द्वारा लगातार सार्वजनिक कर दिए जाते हैं। बार-बार फोटो दिखाए जाते हैं। आरोपी को एक तरह से अपराधी ही साबित कर दिया जाता है। लेकिन जब यही व्यक्ति आरोप मुक्त हो जाता है तो कहीं कोई खबर नहीं आती। जबकि लड़की का न नाम सार्वजनिक किया जाता है, न ही कोई फोटो दिखाई जाती है, चाहे आरोप झूठा साबित हो जाए। इसलिए यह भी जरूरी है कि जब तक आरोप साबित न हो जाएं, जिस तरह से लड़कियों की पहचान छिपाई जाती है, लड़कों की भी पहचान छिपाई जानी चाहिए। आखिर उनके मानव अधिकारों का ध्यान भी रखा जाना चाहिए। यदि यह माना जाता है कि लड़की की पहचान इसलिए छिपाई जानी चाहिए जिससे कि उसे सामाजिक बदनामी न झेलनी पड़े, तो लड़कों के बारे में भी यही सच है। ऐसा क्यों मान लिया गया कि लड़कों को सामाजिक बदनामी और बहिष्कार का कोई डर नहीं होता।
इसके अलावा न केवल दुष्कर्म कानून बल्कि यौन प्रताड़ना कानून, दहेज कानून, घरेलू हिंसा कानूनों में भी सुधार की जरूरत है। जिन कानूनों में मात्र नाम लगते ही गिरफ्तारी की जाती है, जब तक आरोप साबित न हो जाएं तब तक किसी को गिरफ्तार न किया जाए। कई बार तो दहेज कानून के अंतर्गत सारे नाते-रिश्तेदारों के नाम लगा दिए जाते हैं। बहुत से मामलों में भारी रकम लेकर समझौते किए जाते हैं।
यदि लड़कियों को सचमुच कानून की मदद चाहिए तो उन्हें उन लड़कियों, महिलाओं से खुद को अलग करना होगा, जो निजी लाभ या किसी से बदला लेने अथवा सबक सिखाने या ब्लैकमेलिंग के लिए उन कानूनों का दुरुपयोग करती हैं, जो सताई गई महिलाओं की मदद के लिए बनाए गए हैं। इसके अलावा जब भी कोई नया कानून बने, उससे पहले न केवल स्त्रियों, बल्कि पुरुषों की राय भी ली जाए। तभी कानून वास्तविक रूप से सभी को मदद दे सकते हैं। उन्हें एकपक्षीय हर्गिज नहीं होना चाहिए।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।