For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

चुनावी वेला में अतार्किक वायदे

06:34 AM Oct 02, 2023 IST
चुनावी वेला में अतार्किक वायदे
Advertisement

निष्पक्षता पर सवाल

चुनाव के नजदीक आते ही हर दल द्वारा लोकलुभावन घोषणाओं का अम्बार लग जाता है। मगर सीधा-सा गणित है कि मुफ्त के वादों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त पैसा चाहिए जिसकी वजह से राज्यों के आर्थिक स्थिति बिगड़ सकती है। कीमत जनता को ही नये टैक्स के रूप में चुकानी होगी। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में भी कहा गया कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं जिससे वह कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं। ऐसे में रेवड़ी कल्चर पर चुनाव आयोग या शीर्ष अदालत को रोक लगानी चाहिए। ऐसे चुनावी वादों से चुनाव भी प्रभावित होते हैं और उनकी निष्पक्षता पर भी सवाल उठता है।
पूनम कश्यप, नयी दिल्ली

जवाबदेही तय हो

देश में जब भी चुनावों का समय होता है, राजनीतिक पार्टियां लोकलुभावनी घोषणाएं शुरू कर देती हैं। ऐसी घोषणाएं करते समय किसी दल द्वारा यह नहीं बताया जाता कि सत्ता में आने के बाद वह दल वादे पूरे करने के लिए वित्तीय संसाधन कैसे उपलब्ध कराएगा। कोई भी राजनीतिक दल जब भी कोई वादा करे तो वादा तार्किक होना चाहिए। राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले वादों को लेकर भी देश में कोई ऐसी कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे अतार्किक वादों पर अंकुश लग सके तथा राजनीतिक दलों की जवाबदेही भी तय हो सके।
सतीश शर्मा, माजरा, कैथल

Advertisement

सावन के सौदागर

यह हर बार होता है कि नेता चुनाव में आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करते हैं। जनता ही हर बार प्रलोभन में वोट दे देती है। दरअसल, यह हमारे लोकतंत्र की विफलता है िक सात दशक में हम जनता को जागरूक नहीं कर पाये कि उसे अपने विवेक से वोट देना है। हम अपनी जनता को पूरी तरह साक्षर भी नहीं कर पाये। साथ ही चुनाव आयोग व नियामक तंत्र नेता व दलों की जवाबदेही तय नहीं कर पाया है कि यदि वे जीत जाएंगे तो इसका खर्च कहां से लाएंगे। शीर्ष अदालत को मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
अनिल गुप्ता ‘तरावड़ी’, करनाल

लुभावनी राजनीति

विभिन्न राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने जाल में फंसाने के लिए बुढ़ापा पेंशन में बढ़ोतरी, मातृशक्ति को मुफ्त बस यात्रा, बिजली बिल यूनिट दरों में कटौती, बैंक ऋण माफ करना, आमजन को न्यूनतम मूल्य पर राशन देने के वादे कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि जनता को मुफ्त की सुविधा मुहैया कराने से देश की अर्थव्यवस्था पर आर्थिक दबाव पड़ेगा। वहीं इसके परिणामस्वरूप घाटे के बजट की पूर्ति के समय जनता पर ही भारी कर लगाकर वसूली की जाएगी। चुनाव आयोग को चुनावी नीति में परिवर्तन करके स्वच्छ व पारदर्शी चुनाव के लिए राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी प्रचार-प्रसार के इन लुभावने तरीकों पर रोक लगानी चाहिए।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल

Advertisement

मतदाता जिम्मेदार

चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए बिना सोचे-समझे लोकलुभावन वादे कर देते हैं। राजनीतिक दल वादे तो कर लेते हैं, लेकिन जब वादे पूरे करने में देरी होती है तो वे अपने विरोधियों को उंगली उठाने का मौका दे देते हैं। देश के लगभग सभी राजनेताओं ने अपने वोट बैंक की खातिर मुफ्तखोरी की संस्कृति चलाकर देश को आर्थिक रूप से कमजोर ही किया है। लेकिन इसके लिए वे मतदाता जिम्मेदार हैं जो लोकलुभावने वादों पर विश्वास कर अपने कीमती मत का दुरुपयोग कर देते हैं।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर

जनता को दिवास्वप्न

जैसे-जैसे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे सत्तापक्ष और विपक्ष जनता से लोकलुभावन वादे कर रहे हैं। कहीं गैस पर सब्सिडी, कहीं लाडली बहना योजना में बिना काम करे ही पैसा, कहीं बिजली फ्री बिना यह जाने कि यह पैसा आएगा कैसे। खजाना लुटाने पर तुली हैं सरकारें और विपक्ष उससे भी बढ़-बढ़कर जनता को दिवास्वप्न दिखा रहा है। होना तो यह चाहिए कि सिर्फ स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा ही फ्री होनी चाहिए। शिक्षित होकर जनता वैसे ही अपने पैरों पर खड़ी होकर पैसा कमा लेगी। इसके साथ ही हर एक को काम देने की घोषणा चुनावों में होना चाहिए। जनता को भी जागरूक होना होगा।
भगवानदास छारिया, इंदौर

पुरस्कृत पत्र

निष्पक्ष चुनाव प्रभावित

चुनावों के समय अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को खुश करने की स्पर्धा चरम पर होती है। मुफ्त की रेवड़ियों का लालच निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को प्रभावित करता है। इस अनैतिक कसरत ने मतदाताओं को इतनी गहरी नींद में धकेल दिया है कि वह वादे करने वाले दलों या प्रत्याशियों से यह पूछने की जरूरत नहीं समझते कि चुनाव जीतने के बाद वादों की पूर्ति हेतु वे धन कहां से लाएंगे। मतदाताओं के इसी निरपेक्ष भाव के कारण, तर्क की किसी भी कसौटी पर खरा न उतरने वाला यह खेल सभी दलों द्वारा खुलकर खेला जाता है। प्रश्न उठता है कि अतार्किक वादों का यह मकड़जाल निष्पक्ष चुनाव अवधारणा को कब तक कैदी बनाए रखेगा? आखिर किसकी जिम्मेदारी है?
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×