स्वस्थ-विवेकशील समाज बनाने की हो पहल
‘हल्ला बोल’, ‘दंगल’, ‘ताल ठोक के’, ‘महाभारत’, ‘आर-पार….’ ये वे कुछ नाम हैं न्यूज चैनलों के डिबेट-कार्यक्रमों के, जो रोज़ यह दावा करते हैं कि वे इनके माध्यम से अपने दर्शकों का ज्ञान-वर्धन करते हैं। ऐसे ही एक ‘ज्ञानवर्धक’ कार्यक्रम में कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने पैगम्बर मोहम्मद के बारे में कुछ ऐसा कह दिया कि देश में जैसे आग-सी लग गयी है। इसी ‘आग’ के चलते राजस्थान के उदयपुर और महाराष्ट्र के अमरावती में दो व्यक्तियों की नृशंस हत्या कर दी गयी। संबंधित राजनीतिक दल ने अपनी प्रवक्ता को ‘हाशिये पर का तत्व’ (फ्रिंज एलीमेंट) बताकर उसे पार्टी से निलंबित कर दिया है। वैसे प्रवक्ता ने क्षमा मांग ली है, पर ‘आहत’ हुए लोगों का गुस्सा शांत नहीं हो रहा। प्रवक्ता का यह भी कहना है कि डिबेट में कही गयी बातों से वह उत्तेजित हो गयी थी, इसलिए उनके मुंह से कुछ आपत्तिजनक शब्द निकल गये।
धार्मिक भावनाओं का मामला बहुत संवेदनशील है, इसलिए इस संदर्भ में कुछ भी बोलने से पहले सौ बार तोलने की बात कही जाती है। बहरहाल सारा मामला अब न्यायालय में है और सभी पक्ष यह अपेक्षा कर रहे हैं कि कोई हल शीघ्र निकले। इस मामले में जो कुछ हुआ है, उसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। न प्रवक्ता के बयान का कोई बचाव किया जा सकता है, और न ही इस मुद्दे को लेकर फैल रही हिंसा का कोई औचित्य बताया जा सकता है। लेकिन विवेक का तकाज़ा है कि देश का हर नागरिक इस संदर्भ में अपनी भावनाओं पर काबू रखे और अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक हो। कर्तव्य यह है कि धार्मिक उन्माद का वातावरण शांत हो। दुनिया का हर धर्म शांति, करुणा, भाईचारे की शिक्षा देता है। हम यह भी जानते हैं कि सत्य एक ही है, विद्वान अलग-अलग तरीकों से उसकी व्याख्या भर करते हैं। धर्म के सारे रास्ते एक ही ईश्वर तक पहुंचाने वाले हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि ईश्वर-अल्लाह एक हैं, इसीलिए गांधी ने ‘सबको सनमति’ देने की बात कही थी। पर सब कुछ जानते हुए भी हम समझना नहीं चाहते, इसीलिए टीवी की बहस तक में भड़क जाते हैं, मेरा धर्म और तेरा धर्म की बात करने लगते हैं, जबकि सब धर्म एक आदर्श जीवन जीने की राह बताने का ही काम करते हैं। जीवन के इस आदर्श में नफरत के लिए कोई जगह नहीं है- नहीं होनी चाहिए। किसी की भावनाओं को आहत करने का अधिकार न किसी को है, और न होना चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में किसी का भी हक नहीं बनता कि वह धार्मिक भावनाओं के नाम पर नफरत का ज़हर फैलाये। इस नफरत को समाप्त करने के लिए हर नागरिक को हर संभव प्रयास करना होगा।
समाज में भाईचारा बना रहे इसके लिए जो प्रयास अपेक्षित हैं, उन्हीं का हिस्सा है हमारा संविधान जो हमने स्वयं अपने लिए बनाया है। यह संविधान देश के हर नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, समानता का अधिकार देता है। धर्म के नाम पर किसी को भी कोई विशेषाधिकार नहीं है हमारी व्यवस्था में। न ही हमारा संविधान धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की अनुमति देता है। आसेतु हिमालय यह भारत सबका है- उन सबका जो इस देश के नागरिक हैं। और नागरिक होने की पहली और सबसे महत्वपूर्ण शर्त है, संविधान का पालन। हमारा धर्म, हमारी जाति, हमारा वर्ग, हमारा वर्ण, सब सांविधानिक मर्यादाओं से बंधे हुए हैं। समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधारों पर खड़ा हमारा संविधान सर्वोपरि है। उसकी अवहेलना, उसका अपमान दोनों अपराध हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश ने हाल ही में अमेरिका में रह रहे भारतवंशियों को संबोधित करते हुए देश के संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की बात कही है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि हमारी अदालतों की जवाबदेही भी संविधान के प्रति ही है। सच बात तो यह है कि सवाल सिर्फ न्यायपालिका की जवाबदेही का नहीं है। कानून बनाने वाली हमारी संसद की जवाबदेही भी हमारे संविधान के प्रति ही है और कार्यपालिका भी इसी जवाबदेही से बंधी हुई है। देश के एक सामान्य नागरिक से लेकर देश के ‘प्रथम नागरिक’, राष्ट्रपति, तक का यह दायित्व बनता है कि वह संविधान की मर्यादाओं में काम करे। पर एक जवाबदेही और भी है, जो संविधान के प्रति जवाबदेही से कम महत्वपूर्ण नहीं है- यह जवाबदेही समाज के प्रति होती है। जिस समाज में हम रहते हैं, जो समाज हमने स्वयं अपना जीवन जीने के लिए बनाया है, उसके प्रति भी हमारी एक जवाबदेही है। वह समाज स्वस्थ रहे, यह दायित्व भी हमारा ही है- और यहां स्वस्थ रहने का मतलब मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य से है। हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के इस स्वास्थ्य के प्रति निरंतर जागरूक रहें- इस संदर्भ में न कोई कोताही बरतें और न ही किसी को कोताही बरतने दें। यही एक अच्छे और सच्चे नागरिक का कर्तव्य है।
आज देश, समाज में, धर्म के नाम पर नफरत की जो आंधी फैल रही है, फैलाई जा रही है, उसे हर कीमत पर रोकना होगा। किसी को कोई हक नहीं बनता कि वह दूसरे की धार्मिक भावनाओं को आहत करे। इसके लिए हर एक को अतिरिक्त सावधानी बरतने की ज़रूरत है। हम से ऐसा कुछ हो न जाये, हमारे मुंह से ऐसा कुछ निकल न जाये, जिससे दूसरे की भावनाएं आहत हों, यह सावधानी हमारे अस्तित्व की एक शर्त है। क्या हम इसके प्रति जागरूक हैं?
उदयपुर में जो कुछ हुआ, अमरावती में जो कुछ हुआ, अथवा देश के अन्य हिस्सों में सांप्रदायिकता की आग फैलाने की जो कोशिशें हो रही हैं, वे सब यही बताती हैं कि हम अपने अस्तित्व की एक महत्वपूर्ण शर्त को भूल रहे हैं, या समझना नहीं चाहते। दोनों ही बातें खतरनाक हैं- हमारे अस्तित्व के लिए खतरा हैं। इसी खतरे की आशंका को समझते हुए हमारे संविधान-निर्माताओं ने धर्म-निरपेक्षता या पंथ-निरपेक्षता को हमारे संविधान के एक महत्वपूर्ण आधार के रूप में स्वीकार किया था। यह धर्म-निरपेक्षता हमारी आवश्यकता भी है और हमारी ताकत भी। और यहां भी दूसरे को सहने नहीं, स्वीकार करने की आवश्यकता है। जब हम इस स्वीकृति का महत्व समझ लेंगे तो हमारी टीवी बहसों के नाम ‘हल्ला बोल’ या ‘दंगल’ या ‘आर-पार’ नहीं होंगे। तब बहस एक-दूसरे को हराने के लिए नहीं, एक-दूसरे को समझने के लिए होगी। यही समझ समाज को स्वस्थ और विवेकशील बना सकती है। यह बात हमें जितनी जल्दी समझ आ जाये, उतना ही हमारे लिए अच्छा है। नफरत नहीं, प्यार हमें मनुष्य बनाता है। आइए, हम मनुष्य बनने, बने रहने की कोशिश करें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।