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कुरीति की आड़ में भयादोहन की अनीति

06:35 AM Sep 12, 2023 IST

दीपिका अरोड़ा

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सदियों से प्रचलित दहेज प्रथा आज भी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनी हुई है। एक तरफ वे लोग हैं जो वैवाहिक बंधन के नाम पर सौदेबाज़ी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते तो दूसरी ओर समाज में एक ऐसा स्वार्थी वर्ग पनप रहा है जो दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग करने में किंचित मात्र भी संकोच नहीं करता। बीते दिनों एक ऐसे ही झूठे मामले के विरुद्ध कड़ा संज्ञान लेते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने महिला द्वारा ससुराल पक्ष पर लगाए गए झूठे दहेज उत्पीड़न एवं दुष्कर्म के आरोपों को ‘घोर क्रूरता’ बताते हुए अक्षम्य करार दिया।
दरअसल, दहेज उन्मूलन हेतु स्थापित धारा 498-ए का दुरुपयोग विगत कुछ वर्षों से चिंताजनक रूप धारण करने लगा है। बलात्कार एक भयावह अत्याचार है किंतु ऐसे मामले भी देखने में आए जहां संपत्ति विवाद अथवा अन्य पारिवारिक कारणों के चलते ससुराल पक्ष से संबद्ध किसी व्यक्ति पर मिथ्यारोप जड़ दिए गए। अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार मामले पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने 498-ए की आड़ में मिथ्या दोषारोपण के अनवरत बढ़ते प्रकरणों को लेकर गंभीर चिंता जताई थी, जोकि कतई निराधार नहीं।
निस्संदेह, दहेज प्रथा समूचे समाज के लिए अभिशाप है, जिसके कारण अनेक बेटियों को मानसिक, शारीरिक अथवा सामाजिक संताप झेलना पड़ता है। आईपीसी-1860 के सामान्य प्रावधान को सशक्त बनाने के उद्देश्य से ही साल 1983 में इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए जोड़ी गई। इसके तहत, कोई महिला पति अथवा ससुरालजनों द्वारा क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने या मानसिक, शारीरिक अथवा अन्य किसी प्रकार से प्रताड़ित किए जाने पर इसके विरोध में शिकायत दर्ज़ करा सकती है। दोष सिद्ध होने पर अपराधी को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत, 3 वर्ष की क़ैद तथा जुर्माना हो सकता है अथवा दहेज अधिनियम, 1961 के अनुसार, पांच वर्ष की क़ैद तथा 15,000 रुपये तक जुर्माना भरना पड़ सकता है।
कदाचित‍् इसी कानून का दुरुपयोग होने पर भी पति सपरिवार चपेट में आ सकता है। पर्याप्त सबूतों के अभाव में त्वरित जमानत न मिलने के कारण निरपराध होते हुए भी महीनों कारावास में काटने पड़ सकते हैं। मुकदमेबाज़ी से लेकर बरी होने तक की कानूनी प्रक्रिया के दौरान न केवल पूरे परिवार को आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है अपितु शारीरिक-मानसिक स्थिति सहित सामाजिक प्रतिष्ठा पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
ज्ञातव्य है, पत्नी द्वारा दहेज उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज़ करवाने के कारण दो वर्ष तक मानसिक दबाव झेलने वाले राजधानी दिल्ली निवासी 45 वर्षीय राजेश जायसवाल ने इस संदर्भ में एक वीडियो जारी करते हुए आत्महत्या कर ली थी। बाराबंकी का विकास भी आईपीसी की धारा 498-ए का मुकदमा लिखे जाने तथा ससुरालजनों द्वारा दी गई प्रताड़ना न सह पाने के कारण जीवन की जंग हार बैठा।
संवेदनात्मक स्तर पर आहत व्यक्ति यदि आत्मघात की ओर उन्मुख होने लगे तो समूचे समाज व व्यवस्था के लिए यह अत्यंत गंभीर प्रश्न बन जाता है। हालांकि, भारतीय संविधान में कोई निश्चित कानून नहीं जिसके माध्यम से दहेज का झूठा मामला दायर करने पर पत्नी को सज़ा मिलना तय हो सके किंतु दहेज मामले नियम, 2023 के अनुसार, न्यायालय अपनी समझ व शक्ति का प्रयोग करते हुए ऐसा कर सकता है। दक्षिण मुंबई के एक बिजनेसमैन को दहेज उत्पीड़न तथा आपराधिक मामले में राहत प्रदान करते हुए मुंबई हाईकोर्ट ने झूठा मामला दर्ज़ करवाने वाली पत्नी को 50 हज़ार रुपए जुर्माना भरने को कहा। पति द्वारा रखी तलाक की मांग को भी मंज़ूरी मिल गई।
सामाजिक,मानसिक, शारीरिक अथवा आर्थिक, किसी भी प्रकार का संत्रास झेलना यद्यपि सरल नहीं तथापि विषम परिस्थितियों से घबराकर आत्मघात का मार्ग अपनाना सर्वथा अनुचित है। स्थिति का दृढ़तापूर्वक सामना करने हेतु आवश्यक है कि पत्नी द्वारा झूठे केस में फंसाने संबंधी दी गई धमकी को चैटिंग, ऑडियो रिकॉर्डिंग अथवा मैसेज आदि के रूप में सुरक्षित रखा जाए। ठोस प्रमाण शिकायत दर्ज़ करवाने तथा त्वरित जमानत दिलवाने में सहायक बन सकते हैं। पत्नी द्वारा दहेज मामले में फंसाने की धमकी देकर घर छोड़ने पर वैवाहिक अधिकारों की प्रतिस्थापन धारा-9 के तहत, उसे अपने पास बुलाने हेतु न्यायालय में याचिका दाख़िल की जा सकती है। पति के पक्ष में यह पुख्ता सबूत होगा कि पत्नी अपनी इच्छानुसार घर छोड़कर गई।
नि:संदेह महिलाओं का सम्मान व सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु दहेज उन्मूलन कानूनों का कठोरतापूर्वक लागू होना अति आवश्यक है किंतु निजी स्वार्थ अथवा विद्वेष के चलते कानूनी प्रावधान को प्रहार के रूप में प्रयुक्त करना पूर्णत: अनैतिक है। कानून का ध्येय यदि अपराधियों को दंडित करना है तो निर्दोषों की रक्षा व सम्मान यकीनी बनाए रखना भी उसके दायित्व के अंतर्गत आता है। कानून किसी अपराधी को समुचित दंड न दे पाए अथवा इसकी आड़ में किसी निरपराध को दंड भोगना पड़े; दोनों ही स्थितियां सामाजिक विकास में बाधक हैं। कानून की धारा, जिसका प्रयोग एक वर्ग की रक्षार्थ किया जाना हो, जब हथियार बनकर दूसरे वर्ग पर वार करने लगे तो ऐसे में समग्र सामाजिक उत्थान की संकल्पना भला कैसे संभव है?

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