आर्थिकी को गति भी देगा अंधाधुंध चुनावी खर्च
मधुरेन्द्र सिन्हा
लोकसभा चुनाव आ गये हैं और पूरे देश में हलचल है। राजनीतिक दल, उनके उम्मीदवार और सरकार सभी सक्रिय हैं। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता प्रचार में निकल पड़े हैं और सभाएं होने लगी हैं। बड़े नेताओं के तूफानी दौरे अब शुरू होने वाले हैं। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है कि बड़े पैमाने पर पैसा बंटेगा और लगेगा। एक लोकसभा क्षेत्र में चुनाव में खर्च की एक सीमा तय है और लोकसभा चुनाव में इस बार यह 95 लाख रुपये है जो पिछली बार से कहीं ज्यादा है। लेकिन सच्चाई है कि खर्च कई गुना ज्यादा होगा। देश में कुल कितना खर्च होने की संभावना है, इस पर बहस जारी है लेकिन अनुमान है कि इस बार यह पिछले लोकसभा चुनाव से दुगना होगा।
वर्ष 2024 में लोकसभा की 543 सीटों के चुनाव के लिए खड़े उम्मीदवार कितना खर्च करेंगे, यह उनके सामर्थ्य, उनकी पार्टियों और इलाके पर निर्भर करेगा। कई चुनाव क्षेत्र बहुत बड़े होते हैं और काफी खर्चीले भी होते हैं। स्वतंत्र संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 75-80 चुनाव क्षेत्र ऐसे रहे हैं जहां 2019 के चुनाव में हर निर्वाचन क्षेत्र में खर्च औसतन 40 करोड़ रुपये हुआ जबकि खर्च की सीमा महज 70 लाख रुपये प्रति उम्मीदवार थी। संस्था का कहना है कि उस चुनाव में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए जो अनुमान से कहीं ज्यादा है। इसके पहले यानी 2014 में आम चुनाव में 30,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि 1999 में कुल खर्च 10,000 करोड़ रुपये था जिसे उस समय भी बहुत अधिक माना गया था।
अब 2024 का यह चुनाव कितना खर्चीला होगा, इसका भी अंदाजा लगाना उचित रहेगा। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस लोकसभा चुनाव में कुल 11.2 खरब रुपये यानी लगभग 14 अरब डॉलर खर्च होंगे। यह राशि पड़ोसी देश पाकिस्तान के कुल सालाना बजट के एक-तिहाई से भी ज्यादा है। और अगर इतना खर्च हुआ तो यह दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव होगा। इसमें सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार की भूमिका होगी। ज़ाहिर है, सत्तारूढ़ दल सबसे ज्यादा खर्च करेगा। कई निर्वाचन क्षेत्रों में रिकॉर्ड खर्च होगा। सरकारी एजेंसियों की रोक-टोक के बावजूद खर्च में कमी नहीं आएगी क्योंकि सवाल फिर वही यानी अस्तित्व का है और कोई भी हारना नहीं चाहता है। हर उम्मीदवार चाहे वह दमदार न हो, बड़ा खर्च करने से बाज नहीं आ सकता है, क्योंकि एक जीत उसकी जिंदगी बदल सकती है।
चुनाव में उम्मीदवार तरह-तरह के खर्चों के लिए पैसे लगाते हैं जिनमें कार्यकर्ताओं से लेकर व्यवस्था करने वाले ठेकेदारों को बड़ी राशि मिलेगी। लोकसभा चुनाव में हर उम्मीदवार को हजारों कार्यकर्ताओं की सेवा लेनी होती है। हर बूथ पर कार्यकर्ता रखने से लेकर प्रचार करने तक। वह जमाने गये जब पार्टी या उम्मीदवार के नाम पर कार्यकर्ता खुद ब खुद आ जाते थे और अपना योगदान देते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है, कार्यकर्ता की हैसियत और उसकी ताकत के हिसाब से उसे पैसे मिलते हैं जो वह उस पूरी चुनाव अवधि यानी दो या तीन महीने तक पाता रहता है। यह भी एक तरह का रोजगार है। ऐसे ही पैसे ट्रांसपोर्टरों, रसोइयों, खाने-पीने का सामान बेचने वालों, होटलों-रेस्तरां, प्रिंटिंग प्रेस वालों, संचार साधनों की व्यवस्था करने वालों को भी मिलते हैं। इसकी भी संख्या लाखों में होती है। झंडे-पर्चे की अगर पार्टी ने व्यवस्था कर दी तो ठीक है अन्यथा उम्मीदवार खुद ही उन पर खर्च करता है और यह राशि मोटी होती है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों की मदद के लिए कई तरह से खर्च करते हैं। यह सारा खर्च लगातार बाज़ार में पहुंचता रहता है। ऐसे ही एक अवधि तक लगातार पैसे खर्च होते रहते हैं और फिर अर्थव्यवस्था में ही जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि चुनाव में सिर्फ उम्मीदवार, राजनीतिक दल या उनके समर्थक ही पैसा खर्च करते हैं। सरकारें भी बड़े पैमाने पर खर्च करती हैं। कर्मचारियों तथा पैरा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों की तैनाती, उनके खाने-पीने से लेकर वाहनों की व्यवस्था पर सरकारें बड़े पैमाने खर्च करती हैं। इसके अलावा भी अन्य तरह के सामानों की खरीद की जाती है जिस पर भारी खर्च आता है। यह खर्च भी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जाता है। खरीदारी और खपत बढ़ती जाती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था खपत पर आधारित है और इसका विकास खपत पर ही निर्भर करता है। आपको याद होगा कि श्रीमती निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में यह बात कही थी कि देश में घरेलू खपत बढ़ने से अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर पड़ा है। जीडीपी के विकास की दर बढ़ी है। पूंजी प्रवाह से ही हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ती है। इस बार इतना धन आ रहा है कि इसका असर निश्चित रूप से पड़ेगा। चुनाव जैसे मामले में जहां पैसा संबद्ध लोगों को मिलता है वहां खर्च भी तेजी से होता है। इस धन का बड़ा हिस्सा व्हाइट मनी नहीं होता है और चंदे वगैरह के रूप में आता है जो बैंकों वगैरह में फिर जमा नहीं होता है बल्कि सीधे खर्च कर दिया जाता है। खर्च करने की यह प्रक्रिया अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में तेजी लाती है। चुनाव में लाखों लोगों को अस्थायी रोजगार मिलता है और उनके पारिश्रमिक का पैसा भी खर्च होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां नकदी का प्रवाह कम होता है वहां चुनाव के समय काफी हलचल रहती है क्योंकि उम्मीदवारों या पार्टियों का पैसा उन तक पहुंचता है। यह उनके काम आता है और वे खरीदारी करते हैं तथा खपत बढ़ाते हैं। यह सरकारी योजना मनरेगा की ही तरह है जहां उन्हें थोड़े समय के लिए ही सही पारिश्रमिक मिलता है और उनके खर्च पूरे करने में काम आता है। यह खपत बड़े पैमाने पर होती है और इससे काफी पैसा इधर से उधर होता है। इससे बाजारों में तेजी आ जाती है।
बेशक यह अस्थायी है लेकिन इसका असर दूरगामी होता है। कई मामलों में इसका असर चक्रीय भी होता है। कुछ क्षेत्रों में यह फिर निवेश की तरह काम करता है जिसके अपने फायदे हैं। इस बार संभावना है कि इतनी बड़ी राशि यानी 14 अरब डॉलर तक खर्च हो सकता है। यह राशि पाकिस्तान के सालाना बजट का एक-तिहाई है और यह अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों पर असर डालेगा। इसका सकारात्मक असर अवश्य दिखाई देगा और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। इंतजार कीजिये चुनाव खत्म होने का।
लेखक आर्थिक पत्रकार हैं।