India's Oskar Entry ऑस्कर में भारतीय फिल्मों की अनदेखी
ऑस्कर के लिए इस बार भी भारत की एंट्री ‘लापता लेडीज’ खाली हाथ रही। डायरेक्टर किरण राव की इस फिल्म समेत हमारी फिल्मों में क्या कमी है जो अब तक कोई भी ऑस्कर नहीं जीत सकी। सवाल है कि क्या वहां समीक्षक हमारी फिल्मों पर ध्यान नहीं देते?
डीजे नंदन
बीते दिनों भारतीय फिल्मों के प्रशंसकों के लिए तब निराशाजनक खबर आयी कि ऑस्कर अवार्ड 2025 की ‘इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ कैटेगरी के लिए शॉर्टलिस्ट हुई 15 फिल्मों में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि ‘लापता लेडीज’ का नाम नहीं है। डायरेक्टर किरण राव की फिल्म लापता लेडीज, जिसने दर्शकों को खूब इंटरटेन और इम्प्रेस किया था। सवाल है कि दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने के बावजूद हमारी फिल्मों में आखिर क्या कमी होती है, जो ऑस्कर में रिजेक्ट हो जाती हैं। कोई भारतीय फीचर फिल्म आजतक ऑस्कर अवार्ड नहीं जीत सकी। आखिर किस कारण ऑस्कर मंच पर आलोचक या समीक्षक हमारी फिल्मों पर ध्यान ही नहीं देते? क्या भेदभाव होता है या फिर उनकी बनावट, कथ्य की बुनावट और मैसेजिंग में ग्लोबल अपील नहीं होती?
मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान
भारत ने आजतक ऑस्कर अवार्ड में प्रतिस्पर्धा के लिए 35 से ज्यादा फिल्में ‘बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म’ श्रेणी में भेजी हैं, लेकिन किसी को ऑस्कर नहीं मिल सका। जो फिल्में इस अवार्ड के नजदीक पहुंची, उनमें- मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे (1988) और लगान (2001), ये तीन ऐसी फिल्में थीं जो शॉट लिस्ट हुईं और अंतिम पांच नामांकित फिल्मों में जगह बनायी। जो फिल्में पुरस्कार के लिए शॉट लिस्ट तो हुईं, लेकिन अंतिम पांच में नहीं आ सकी, उनमें 2023 में एसएस राजामौली की ‘आरआरआर’ और 2022 में गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ नॉमिनेट तो हुई थी, लेकिन अंतिम पांच में चयन नहीं हुआ। कुछ और फिल्में जिनसे उम्मीद थी,लेकिन शॉट लिस्ट नहीं हुई। इस साल लापता लेडीज को फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ने 29 फिल्मों के समूह में से चुना था। लग रहा था कि ग्रामीण भारत में लैंगिक मुद्दों और महिला सशक्तीकरण विषय को हास्य और गंभीर कहानी में पिरोकर पेश करने वाली लापता लेडीज ज्यूरी को प्रभावित करेगी। लेकिन उम्मीद पूरी न हो सकी।
भेदभाव नकारते हैं जानकार
विशेषज्ञ यह मानने से हिचकते हैं कि हमारे साथ भेदभाव होता है। वे वजहें गिनाते हैं कि हमारी फिल्मों और विदेशी खासकर पश्चिम की फिल्मों का कंटेंट भिन्न है। वहीं गीत, संगीत, नाटकीयता और सांस्कृतिक संदर्भों की भरमार होती है, जो कि ऑस्कर की ज्यूरी को समझ में नहीं आती और पर्याप्त कलात्मकता भी नहीं पाती। फिर मार्केटिंग और प्रचार की भी काफी कमी होती है। एक बात यह भी कि भारत से भेजी जाने वाली फिल्में सही तरीके से नहीं चुनी जातीं। वहीं हमारी फिल्मों में ग्लोबल अपील नहीं होती। हालांकि कुछ फिल्मों ने हाल में वैश्विक सिने दर्शकों का ध्यान खींचा है। बेहतर हो सकता है अगर भारत के फिल्मकार फिल्मों का विषय ग्लोबल चुनें यानी ग्लोबल स्टोरीटेलिंग पर फोकस करें, लॉबिइंग और प्रचार पर अधिक व्यय करें। -इ.रि.सें.