मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

भारत का भाग्य बदलने वाली ट्रेन

06:25 AM Aug 15, 2023 IST

शंभूनाथ शुक्ल

कई लोग मानते हैं कि अंग्रेजों से मिली आज़ादी, आज़ादी नहीं बल्कि सत्ता का हस्तांतरण था। ठीक वैसे ही जैसे एक पार्टी की सरकार से सत्ता दूसरी पार्टी को मिल जाए। दक्षिणपंथी मानते हैं कि सत्ता के लिए कांग्रेस ने भारत का विभाजन करवाया। दूसरी तरफ वामपंथी मानते हैं कि आज़ादी के बाद सरकार पूंजीपतियों के दबाव में आ गई, इसलिए देश को एक समाजवादी सरकार का ढांचा नहीं मिला। सिर्फ कांग्रेस ही इस आज़ादी को सही मानती है। समाज में भी आज़ादी के कई पक्ष हैं। दलितों का कहना है कि पूरी तरह से सामाजिक न्याय न मिलने से आज़ादी फीकी ही रही। दूसरी तरफ सवर्णवादी मानते हैं कि आरक्षण देकर सरकार ने उनके साथ घात किया। यानी जितने मुंह उतनी बातें।
दरअसल, आज़ादी का हमारे देश में कोई सही चित्र अभी तक नहीं उभरा। हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में असंतुष्ट है। आखिर आज़ादी मिली तो किससे? नौकरशाही यथावत है, पुलिस वैसे ही जनता का उत्पीड़न करती है और पैसे वाले लोग ही हर जगह पर काबिज हैं। एक सामान्य नागरिक जो टैक्स देता है वह अंग्रेजों की सरकार के समय की तुलना में खुद को ज्यादा कमजोर महसूस करता है। यही वजह है कि 1947 में मात्र सत्ता हस्तांतरण होने की बात कही जाती है।
मगर जो लोग आज़ाद भारत का सही मतलब जानते हैं उन्हें पता है कि अंग्रेज भारत को अपना उपनिवेश बनाए हुए थे और अपने इस उपनिवेश के संसाधनों का पूरा लाभ उठाने के लिए उन्होंने जिन-जिन चीजों की भारत में मान्यता दिलाई वे सब अब अंग्रेजों के हाथ से निकल कर भारतीयों के हाथ में आ गई हैं। इनमें सबसे बड़ी चीज है रेल सेवा, जिसने पूरे भारत में एक अनूठी क्रांति की है। रेलवे ही वह उपक्रम है जिसे भारत में लाकर अंग्रेजों ने अपने पांवों पर कुल्हाड़ी चलवा दी। हालांकि यह सच है कि रेलवे ने विलायती माल को भारत के गांव-गांव तक पहुंचाया पर यह भी सच है कि इस रेल सेवा ने ही पूरे देश में एक साथ अंग्रेजों को भारत से भगाने की भावना भी पैदा की।
याद होगा कि गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत आए तो उन्होंने पूरे भारत का एक दौरा रेलवे द्वारा ही किया। इस तरह वे इस विशाल देश से परिचित हो पाए। यह रेलगाड़ी ही थी जिसने गांधी जी का परिचय भारत के किसानों और उनकी गरीबी से कराया। गांधी जी ने भारत भ्रमण करने के बाद से ही सिर्फ धोती पहनने का फैसला किया था। और उस धोती ने उन अंग्रेजों को भारत से जाने को विवश कर दिया जिनके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था।
जब भी कोई ट्रेन मेरे सामने से गुजरती है, मैं उसके सपनों में खो जाता हूं। ट्रेनों ने भारतीयों को एक सपना दिखाया दूर-दूर तक फैले इस विशाल और वृहद देश से जुड़ जाने का। जिस किसी को भी नौकरी नहीं मिलती अथवा बार-बार के सूखे से परेशान होकर वह शहर की राह पकड़ता इसी तरह ट्रेनों में बैठकर चला जाता। दूर देश में कमाने। कोई कलकत्ता जाया करता तो कोई मुंबई और कोई-कोई दिल्ली। कभी सोचिए तो पाइएगा कि भारत में भारतीयों की गतिशीलता के पीछे इन ट्रेनों की सम्मोहक शक्ति ने कितना बड़ा काम किया है। औसत भारतीय ट्रेन देखता है और फिर वह किसी सिनेमाई हीरो की तरह एक ऐसे विशाल शहर की कल्पना करता है जहां गम नहीं है, दुख नहीं है बस खुशियां ही खुशियां हैं।
कालका मेल वह ट्रेन थी जिसने पंजाब, हरियाणा और मारवाड़ से निकले व्यापारियों को नई पनप रही भारत की राजधानी कलकत्ता में जाकर व्यापार करने को उकसाया। हालांकि यह एक प्रश्न उठता है कि भला कोई ट्रेन कैसे किसी को उकसा सकती है पर यह भी कटु सत्य है कि पलायन को ट्रेनें बाकायदा उकसाती हैं। वे एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ती हैं। अब कालका-हावड़ा के बीच करीब दो हजार किमी की दूरी है और कोई भी व्यक्ति एक कोने से दूसरे कोने में आ-जा सकता है। जब यह ट्रेन शुरू हुई यानी कि 1866 में तब ईस्ट इंडिया कंपनी का सारा ध्यान भारत में अपना माल खपाने और यूरोप के उत्पादों के लिए नया बाजार तलाश करने की थी। उन्हें भारत में सस्ते मजदूर मिल रहे थे और बिचौलिये व्यापारी भी तथा हर तरह के उद्योगों को विकसित करने के लिए अनुकूल वातावरण भी।
भारत का एक बड़ा हिस्सा समुद्र तटीय है और ऊष्ण कटिबंधीय इलाका है जो जूट और कपड़े के लिए मुफीद है। इसके अलावा मैदानी इलाके में भरपूर गर्मी तथा कृषि के लिए खूब उपजाऊ है। फलों की पट्टी है खासकर आम के लिए तो यह क्षेत्र स्वर्ग है। एक तरह से भारत में कृषि उत्पाद और बागवानी की भरपूर संभावनाएं उन्होंने देखीं और नया माल खपाने हेतु बाजार भी। एक तरफ तो खूब धनाढ्य राजे-महाराजे थे और बड़े से बड़े व्यापारी जिनके पास न तो पैसे की कमी थी न उनके शौक कमतर थे। यही कारण रहा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों और अफसरों ने एक तरफ तो इन राजा-महाराजाओं और व्यापारियों को यूरोपीय माल खपाने की जिम्मेदारी सौंपी तो दूसरी तरफ मजदूरों को इतनी कम पगार पर रखा कि वे सिवाय पेट भरने के और कुछ सोच ही न पाएं।
अंग्रेजों को व्यापार बढ़ाने के लिए इस कालका मेल ने अपना बड़ा रोल अदा किया। इससे एक तरफ तो मारवाड़ी और खत्री व्यापारी आए तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर। यही कारण है कि यह पहली ट्रेन थी जिसमें ढेर सारे जनरल कोच और पर्याप्त संख्या में फर्स्ट और सेकंड तथा इंटर व थर्ड क्लास के कोच जोड़े गए। ताकि हर एक को इसमें चलने में सुविधा रहे। यह वह ट्रेन थी जिसमें अंग्रेज वायसराय सफर करता था और जब भी गर्मी आती तथा राजधानी कलकत्ता से शिमला शिफ्ट होती, पूरी अंग्रेज सरकार इसी गाड़ी में बैठकर चलती। यही कारण रहा कि यह ट्रेन भारत का भाग्य बदलने में बड़ी अहम रही। तब कलकत्ता में जूट उद्योग पनप रहा था और बंगाल का तटवर्ती इलाका जूट के लिए मुफीद था पर इसके लिए खूब मजदूर चाहिए थे तथा कारखानों को लगाने के लिए खूब जमीन। यह सब बंगाल में मिला इसीलिए पूरे बंगाल में जूट उद्योग पनपा तो उसके साथ ही जूट के दलाल भी। चाय उद्योग पनपा और पूरे देश में उसका बाजार तैयार हुआ। मगर इन उद्योग-धंधों को पनपाने के लिए किसान को दर बदर कर दिया गया।
दरअसल किसान से नकदी में लगान वसूली के चलते बंगाल के किसान कलकत्ता आकर मजदूरी करने लगे और इतने कम पैसों पर कि ईस्ट इंडिया के एक सामान्य किरानी के पास भी दस-दस नौकर हुआ करते थे। यही वजह रही कि कलकत्ता मजदूरों की भी मंडी बनती चली गई।
बचपन में कानपुर में कालका मेल को देखा करता जो बिना ब्रेक के धड़धड़ाती हुई चली जाती। उस समय भी उसमें जो लोग सफर करते थे वे कोई आम यात्री नहीं होते थे। या तो बड़े व्यापारी अथवा अधिकारी या मंत्रीगण। कालांतर रेलवे को हवाई सेवाओं ने पस्त कर दिया था। पर रेलवे के जरिये माल ढुलाई तब भी रेल मार्ग से ही सस्ता पड़ता था इसलिए व्यापारी चाहते थे कि गुड्स ट्रेनें तो चलें पर पैसेंजर ट्रेनों की आवाजाही कम की जाए।
आज़ादी के बाद कोई भी रेलमंत्री यह करने का साहस नहीं कर सकता था और इसकी वजह थी कि ऐसा करने से उसकी लोकप्रियता शून्य पर आ जाती। फिर माल की ढुलाई की बजाय पैसेंजर ट्रेनों को वरीयता दी गई। उनके किराये बढ़ाने पर भी जोर नहीं दिया गया। इसका नतीजा यह निकला कि रेल घाटे में आती चली गई और माल ढुलाई महंगी होती गई। इसका लाभ व्यापारियों को मिला। उन्होंने माल की कमी का रोना रोकर दाम बढ़ाए। यह एक ऐसा व्यतिक्रम था जिसने भारत में रेल सेवा को अपरिहार्य तो बना दिया मगर उसके घाटे से उबरने का कभी कोई प्रयास नहीं किया गया। लेकिन एक दिन तो यह संकट आना ही था कि रेलवे को अपने पैरों पर खड़ा होने की मशक्कत करनी पड़ती।
Advertisement

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement
Advertisement