ऊर्जावान लोकतंत्र में अमर्यादित भाषा
भारतीय राजनीति जिस मोड़ से गुजर रही है उसमें कीचड़ ज्यादा है और तथ्य कम हैं। हर तरफ से हर रोज कुछ न कुछ अनर्गल प्रलाप और सस्ती बातों के अलावा किसी राजनेता पर छींटाकशी आम बात हो गई है। कुंठित लोग जिनमें राजनीतिक नेता बड़े पैमाने पर हैं, किसी के भी बारे में अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। बहुत से तो इसमें अपनी शान समझते हैं और अपने को बड़ा समझने लगते हैं। कुछ तो जानबूझकर ऐसा कहते और करते हैं ताकि मुफ्त में पब्लिसिटी मिले। कई तो संसद और विधानसभाओं में भी अपनी कड़वी जुबान का इस्तेमाल करते हैं।
भारतीय राजनीति में हल्की और सस्ती बातें कहने का चलन काफी समय से है। लेकिन पिछले दो दशकों में यह वीभत्स रूप धारण कर चुका है। उस समय जब राम मनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया कहा था तो काफी विवाद हुआ और बड़ी तादाद में लोगों ने लोहिया का विरोध किया। दरअसल, कांग्रेस में बड़े पद पर रहने के बाद जब वह अलग हुए तो राजनीति में उनकी वह कीमत नहीं रही थी। इस कारण वे कुंठित होने लगे और यह कुंठा उनके व्यवहार और उनके बोल में साफ झलकने लगी।
यही भाव आज के उन ज्यादातर राजनीतिज्ञों में दिखता है जो कुंठा में जी रहे हैं। ऐसे ही नेता अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। सत्ता से विमुख रहना या फिर उसे पाने के लिए किसी भी सीमा तक चले जाना, स्वाभाविक-सी बात है। कई राजनेता ईर्ष्यावश या दुर्भावना से भी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। वह खुद तो सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी बोलते हैं और जब विरोध करना होता है तो दूसरों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कुछ बड़े नेता अपने सलाहकारों की बातों पर चलते हुए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व रहा। जिन्होंने गुजरात में भाषण देते वक्त मर्यादा तोड़ दी और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में मंच से कहा-मौत के सौदागर। इस अपशब्द से ऐसे शीर्ष नेताओं की छवि को ही नुकसान हुआ न कि नरेन्द्र मोदी को। सभी तरफ उनकी आलोचना हुई लेकिन ऐसे नेता बाज नहीं अाए और बाद में भी उन्होंने मोदी पर ज़हर की खेती करने वाला बयान दिया।
लेकिन इस मामले में राहुल गांधी कुछ आगे निकल गये। अपने को प्रेम की दुकान चलाने वाला कहने वाले राहुल ने तो वक्त-बेवक्त तल्ख शब्द कहे। उन्होंने तो बीजेपी और अन्य के लिए भी बहुत ही हल्के शब्दों का इस्तेमाल किया। पिछले दिनों तो उन्होंने कहा जय श्रीराम कहो और भूखे मरो। यह उनके अंदर की खीझ को दिखाता है। अभी चुनाव में थोड़ा वक्त है तो आने वाले समय में क्या-क्या बयानबाजी होती है, कहना मुश्किल है क्योंकि इन दिनों उनके सलाहकार हैं बड़बोले जयराम रमेश जो खुद भी अक्सर हल्की भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
कांग्रेस के अध्यक्ष खड़गे भी काफी कुछ बोल चुके हैं और उनका पीएम मोदी के लिए रावण वाला बयान काफी चर्चा में रहा है। लेकिन सबसे ज्यादा हल्की बात कहते हैं मणिशंकर अय्यर। उन्होंने पीएम मोदी के लिए बहुत ही सस्ते शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने तो नीच, कातिल जैसे शब्दों का खुलेआम इस्तेमाल किया था जिसमें उनकी हताशा साफ झलकती है। कांग्रेसियों की तो सूची काफी लंबी है। चाहे वह अधीर रंजन हों या दिग्विजय सिंह या फिर संजय निरुपम और प्रियंका गांधी। सभी ने मौका देखकर बेहद हल्के शब्दों का इस्तेमाल किया जिससे उनकी खीझ का पता चलता है।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि मोदी और उनकी पार्टी ने ऐसे अमर्यादित शब्दों और टिप्पणियों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने करोड़ों समर्थकों के सामने इन शब्दों और उन्हें बोलने वालों के खिलाफ माहौल बना दिया। नरेन्द्र मोदी को चाय वाला कहकर उनका उपहास उड़ाने वाले विपक्षियों को तो उन्होंने अपने कार्यों और उपलब्धियों से आईना दिखा दिया। आज चाय वाला शब्द मेहनतकश लोगों के सम्मान का प्रतीक बन गया है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेसी ही इस गंदे खेल में शामिल रहे। समाजवादी पार्टी, राजद, डीएमके वगैरह खुलकर अनर्गल भाषा का इस्तेमाल करते रहे। इन दिनों लालू यादव भी सुर्खियों में हैं। उन्होंने पीएम मोदी की मां के निधन के बाद हल्की बातें कीं। खासकर उनके परिवार को लेकर जिसे अब मोदी ने एक पॉजिटिव मुद्दा बना दिया। ठीक उसी तरह जैसे चौकीदार वाला मुद्दा बना था। डीएमके वाले उदयनिधि और ए. राजा तो राम के खिलाफ ही बोलने लगे। उनके मन में बीजेपी ही नहीं राम तक के लिए भी घृणा का भाव है क्योंकि इस समय वे लोग अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें सत्ता हाथ से निकलती दिखती है। ऐसा नहीं है कि ऐसे बोल सिर्फ विपक्षी ही बोलते हैं। सनातनी और बीजेपी के लोग भी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। बाबर की औलादों वाला अपशब्द याद है न? इस तरह के कई अल्फाज उधर से भी इस्तेमाल हुए हैं। ‘पाकिस्तान चले जाओ’ जैसे बोल तो आम हो गये थे। सत्ता में रहने वाले थोड़ा संयत हो जाते हैं फिर भी कोई न कोई कुछ बोलता रहता है।
सवाल यह है कि यह कब तक चलता रहेगा? क्या भारत के छोटे-बड़े नेता इस लोभ को संवरण कर पायेंगे या अपनी कुंठा से बाहर निकलेंगे। सत्ता से बाहर रहने पर आक्रोश और कुंठा स्वाभाविक है। हमने यह देखा है और उन नेताओं को भी जो सोचते हैं कि ऐसा बोलकर वे लोकप्रियता बटोर लेंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि अब जनता पढ़ी-लिखी है और दूसरी बात यह भी है कि यह सोशल मीडिया का जमाना है। अनर्गल और असभ्य किस्म की बातें करने वालों को वहां से तुरंत जवाब मिल जाता है। सोशल मीडिया के खिलाड़ी भी दोनों ओर हैं और अक्सर अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। कई पुलिस के हत्थे भी चढ़ जाते हैं और कुछ जेल भी पहुंच जाते हैं।
लेकिन बड़ा सवाल है कि एक ऊर्जावान लोकतंत्र में क्या वाकई अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कोई सफलता दिलायेगा या फिर बोलने वालों को यह देश असभ्य करार देगा?
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।