मंगलकारी बम
गंगा-जमुना का मायका उत्तराखंड आजादी के बाद से ही सामाजिक आंदोलनों के जरिये रचनात्मक बदलाव के लिये जाना जाता है। इसी धरती से ही गौरा देवी द्वारा शुरू किया गया चिपको आंदोलन आज भी पूरी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक माना जाता है, जिसमें महिलाओं ने पेड़ों से जुड़कर पेड़ों के कटान को रोका था। इसी तरह बेटी के कन्यादान के समय वृक्ष लगाने का मैती आंदोलन भी खासा चर्चा में रहा। इतना ही नहीं, उत्तराखंड की अस्मिता को लेकर चलाये गये आंदोलन में मसूरी, खटीमा व रामपुर तिराहा कांड में महिला आंदोलनकारियों की शहादत इतिहास के पन्नों में दर्ज है। उत्तराखंड के बारे में कहावत है कि ‘पहाड़ की जवानी व पानी पहाड़ के काम नहीं आते।’ उत्तराखंड की आबादी के बराबर आबादी का प्रवासित होना इसकी बानगी दर्शाता है। हजारों गांव आज खाली हो गये हैं, जिनमें अब जंगली जानवरों का वर्चस्व है। जो उत्तराखंड की खेती व फल उत्पादन के लिये नासूर बन चुके हैं। खासकर बंदरों , जंगली सूअरों व तेंदुओं की बढ़ती अप्रत्याशित आबादी से ग्रामीण जन-जीवन बुरी तरह त्रस्त है। वे फसलों को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संकट के समाधान और वन्य जीवों को जंगल तक सीमित करने के मकसद से नया रचनात्मक आंदोलन उभरा है ‘बीज बम’ अभियान। जिसका मकसद है कि जंगलों में उत्तराखंड में उगने वाली सब्जियों व फलों को कुदरत के सान्निध्य में उगाया जाये ताकि जंगली जानवर, बंदर व अन्य जीवों को खाने के लिये जंगल के भीतर ही सब्जी-फल मिल सकें। जिससे वे मानव बस्तियों में उत्पात मचाने न आ सकें। खासकर उत्तराखंड में बंदरों के उत्पात से लोगों को राहत मिल सके। दरअसल, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद में द्वारिका प्रसाद सेमवाल द्वारा कुछ साथियों व छात्रों की मदद से शुरू किये गये ‘बीज बम’ अभियान को जनता का आशातीत प्रतिसाद मिल रहा है। यह अभियान उत्तराखंड की साढ़े तीन सौ ग्राम पंचायतों व करीब ढाई सौ स्वैच्छिक सामाजिक संगठनों के सहयोग से सिरे चढ़ रहा है। जो इस आंदोलन की सार्थकता और स्वीकार्यता का पर्याय ही है।
यह सुखद ही है कि ‘बीज बम’ आंदोलन केवल उत्तराखंड में ही जंगल में मंगल नहीं कर रहा है बल्कि देश के 18 राज्यों व चार दूसरे देशों में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है। इस आंदोलन की सार्थकता का पता इस बात से चलता है कि जुलाई माह में चलने वाले एक सप्ताह के कार्यक्रम के दौरान दो लाख से अधिक बीज बम जंगलों में डाले गये हैं। इन बीज बमों में स्थानीय सब्जियों-फलों के बीज शामिल हैं। कद्दू, तोरी, मक्का व शहतूत आदि के बीजों को उगाने के मकसद से बिखेरा गया है। इस आंदोलन का एक आधार स्तंभ हिमालयन पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान यानी जाड़ी है, जो अभियान को बीज उपलब्ध कराने में सहायक है। इस आंदोलन की सफलता का पता इस बात से चलता है कि इस बार बीज बम सप्ताह के दौरान नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका व दक्षिण अफ्रीका के कुछ संगठनों ने भागीदारी की। इतना ही नहीं, अब आंदोलन साल में एक बार मनाये जाने वाले बीज बम सप्ताह की सीमाओं से निकलकर वर्षपर्यंत चलने वाला कार्यक्रम बन चुका है। विभिन्न संगठनों, विभागों तथा शिक्षण संस्थानों के लोग वर्षपर्यंत अपनी सुविधा से बीज बम तैयार करके जंगलों में डाल रहे हैं। इस अभियान को जनता का सकारात्मक प्रतिसाद तो मिला ही है, सरकार भी इस पर्यावरण संरक्षण आंदोलन को लेकर सकारात्मक रुख दिखा रही है। राज्य के शिक्षा मंत्री ने घोषणा की है कि इस रचनात्मक बीज बम आंदोलन को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जायेगा। निस्संदेह, पर्यावरण संरक्षण और वन संपदा की रक्षा के लिये सरकारी कार्यक्रमों के बजाय जनांदोलन महत्वपूर्ण व ठोस भूमिका निभाते हैं। ऐसे स्वत:स्फूर्त आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में बदलावकारी साबित हुए हैं। सरकार व विभिन्न पर्यावरण संगठनों का दायित्व है कि ऐसे रचनात्मक आंदोलन का वित्तीय पोषण करें ताकि स्वयंसेवी संगठनों का उत्साह बना रहे। ग्लोबल वार्मिंग संकट के इस दौर में पर्यावरण संरक्षण के जनांदोलन को प्रोत्साहित करना वक्त की जरूरत भी है।