मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

विदेश नीति में दुविधा व संशय के निहितार्थ

07:52 AM Jun 24, 2024 IST

ज्योति मल्होत्रा
Advertisement

हालिया चुनावी परिणामों से, राजनीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की और हिंदुत्व के गढ़ के ऊपर भाजपा की मजबूत पकड़ ढीली पड़ी है और परेशानी बढ़ी है। 18वीं लोकसभा के आगामी मानसून सत्र की दृश्यावली अवश्य ही भविष्य का मंज़र प्रस्तुत करेगी। लेकिन एक बड़ा खेल जो शेष दुनिया में चल रहा है, जिसमें अमेरिका, रूस, चीन मुख्य ध्रुव हैं, यह देखना रोचक होगा कि ये देश अशांत क्षेत्र में स्थिरीकरण शक्ति की हैसियत रखने वाले भारतीय दावे को किस तरह लेंगे।
प्रथम चीज़ सर्वप्रथम, गत सप्ताह के शुरू में, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार 79 वर्षीय अजीत डोभाल की–इस शक्तिशाली पद पर विराजमान, खुफिया विभाग के पूर्व मुखिया और अब तीसरी बार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार– नई दिल्ली में अपने अमेरिकी समकक्ष जैक सुलचि से भेंटवार्ता हुई, जिसका एक मुख्य उद्देश्य अमेरिका से भारत को महत्वपूर्ण तकनीकों के हस्तांतरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था। इस मुलाकात का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता से पहले, डोभाल और सुलिवन बगैर सहायकों व कमरे में किसी और की मौजूदगी रखे बिना मिले और यह बैठक कम-से-कम 30-40 मिनट चली। अवश्य ही किसी टेबल लैंप के बेस में या कीमती कलाकृति के पीछे रिकॉर्डिंग उपकरण छिपाया रहा होगा –जेम्स बॉन्ड की फिल्मों के शौकीन अब इतना तो जानते ही हैं- और दोनों ने ही बाद में अपने-अपने अधिकारियों से निजी वार्ता के मुख्य बिंदु साझा किए होंगे।
परंतु यहां गलती न करें। बाकी मुलाकातें चाहे कितनी भी अहम रही हों जैसे कि आईसीईटी जैसी महत्वपूर्ण तकनीकों को लेकर या प्रधानमंत्री-सुलिवन भेंट या फिर विदेश मंत्री एस जयशंकर और सुलिवन के बीच ‘चाय पर चर्चा’, कोई भी डोभाल-सुलिवन के मध्य निजी बातचीत जितनी महत्वपूर्ण नहीं थी (गौरतलब है कि इस बीच अमेरिका के उप-विदेशमंत्री कर्ट कैम्पबेल, जो कि चीन के मामले में अमेरिका के शीर्ष कूटनीतिज्ञ हैं, वे भी दिल्ली में थे)। और इसीलिए शेष तमाम विवरण नेपथ्य में चला गया– इसमें दिल्ली में शानदार सजावट वाला हैदराबाद हाउस, जो कि उच्चतम स्तर की तमाम राजनयिक वार्ताओं के लिए मुलाकात-स्थल है, वहां दिया आधिकारिक भोज भी शामिल है – यह शिष्टाचार निभाने के साथ अपने रुख पर दृढ़ रहने के उद्देश्य से भी है।
अवश्य ही बातचीत का एक विषय न्यूयॉर्क वासी और खालिस्तान के पैरोकार गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या के प्रयास में भारत की कथित संलिप्तता के इर्द-गिर्द रहा होगा। न्यायालय में दाखिल अमेरिकी अभियोजन के अनुसार, एक भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता– जिसका चेक रिपब्लिक से अमेरिका को प्रत्यावर्तन ठीक उसी दिन हुआ जब नई दिल्ली में डोभाल-सुलिवन वार्ता जारी थी– उसको कथित तौर पर ‘सीसी-1’ नामक एक सह-साजिशकर्ता ने पन्नू को मरवाने का काम सौंपा। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने अपने हालिया रहस्योद्घाटन में उसकी पहचान बताई है, जो कि भारत की विदेशों में गुफ्तचर एजेंसी ‘रॉ’ में एक अधिकारी है।
अब तक हमें यही सब पता है। हम यह भी जानते हैं कि जिस वक्त मामले की परतें खुल रही थी, भारतीयों ने अमेरिकियों को शांत करने के प्रयास किए, जिसके तहत उसके मूल कैडर में तबादला कर दिया गया। माना जाता है कि वह देश में लौट चुका है और मक्खियों और भावी-माओवादी, दोनों पर, घात लगाकर कार्रवाई के काम में व्यस्त होगा। पन्नू को मारने का यह कथित काम आज से ठीक एक साल पहले यानी 22 जून को अंजाम दिया जाना था –बेशक अमेरिकी एजेंटों ने इसे नाकामयाब कर दिया, तभी तो पन्नू आज भी जिंदा है, और शायद न्यूयॉर्क स्थित अपने घर में ‘बैजल-एंड-चीज़’ या फिर आलू के परांठों का आनंद ले रहा होगा। हालिया लोकसभा चुनाव में वह लोगों को पंजाबी में दिए अपने वॉयस-मैसेज में आह्वान कर रहा था कि वे अमृतपाल सिंह जैसे कट्टरपंथियों को जिताएं, भले ही वह खडूर साहिब सीट जीत भी गया, लेकिन इसके पीछे बड़ी वजह है पंजाब का ‘दिल्ली’ के प्रति स्थाई गुस्सा न कि पन्नू के पृथकतावादी संदेशों से बना भावावेश। भावार्थ यह कि पन्नू जिंदा हो या मुर्दा, वह अप्रांसगिक है। इस मुद्दे पर सुलिवन और डोभाल ने अपने हिसाब से इस विषय को निपटाया होगा, डोभाल माफी मांगने वालों में नहीं हैं– अपने आत्मसम्मान का ख्याल रखने वाला कोई भी खुफिया अधिकारी ऐसा कभी नहीं करना चाहेगा, और फिर वे क्षमायाचना करें भी किसलिए – लेकिन सभी पक्षों को मालूम है कि उच्च दांवों वाले इस खेल में सभी मुल्क एक-दूसरे की अक्ल, ताकत और कूवत को नापते हैं, जो कि आज भारत का हाथ कुछ हल्का है।
लेकिन भारतीयों का इतिहास इस बारे में लंबा है। ऐसा एक मामला है ‘रॉ’ अधिकारी रबिंदर सिंह का, जिसे वर्ष 2004 में अमेरिकी एजेंटों ने अपने काम को अंजाम देते पहचान लिया था। भारतीय पक्ष के लोग आज भी नहीं भूले होंगे कि कैसे उसको अमेरिका से चोरी-छिपे निकालकर, नेपाल के रास्ते भारत वापस लाया जा सका था, जबकि तब तक दोनों देश एक-दूसरे का ‘नैसर्गिक सहयोगी’ होने की कसम खा चुके थे। वे जिन्हें जासूसी फिल्में देखने का चस्का है, उन्हें विशाल भारद्वाज द्वारा निर्मित फिल्म ‘खुफिया’, अगर पहले न देखी हो तो आज ही देखनी चाहिए – और पाएंगे कि प्रचलित किस्सों के बरअक्स हकीकत कहीं अधिक गंदली, उदास करने वाली और तड़क-भड़क विहीन होती है।
आज की तारीख में ज्यादा अहम सवाल यह है कि जब मोदी ने तीसरी बार बागडोर संभाली है, भारत किस किस्म के रिश्ते अमेरिका से चाहता है और यही बात उस पर भी लागू है। और फिर भारत का एक छोटा मसला है, रूस से अपने पुराने संबंध यथावत रखने पर डटे रहना, इसके पीछे दो बड़ी वजहें हैं, प्रथम, उससे सस्ता तेल मिलना जारी है – यह भी खुला रहस्य है कि भारत इसका पुन: निर्यात किफायती तेल को तरस रहे यूरोप के तेल-शोधक कारखानों को कर रहा है, जबकि खुद उन्होंने दो साल पहले, यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद, उससे तेल सीधा खरीदने पर रोक लगा रखी है। दूसरा, भारत की रूसी हथियारों पर निर्भरता आज भी कायम है। इसलिए भी, भारत ने स्पष्ट कर रखा है कि वह यूक्रेन के मामले में मध्य-मार्गी रहेगा।
अतएव, यह संभावना अधिक है कि अक्तूबर माह में मोदी ब्रिक्स के अगले शिखर सम्मेलन में भाग लेने रूस के बीचों-बीच स्थित कज़ान पहुंचेंगे। यह शहर प्रतीक है रूस के ऑर्थोडॉक्स ज़ार, ईवान दे टेरीबल की मंगोलों पर 1552 में पाई विजय और अभूतपूर्व बड़े पैमाने पर इस्लाम के प्रसार का (इतने बड़े स्तर पर किसी अन्य ने यह काम न किया होगा)। ब्राज़ील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका ब्रिक्स के संस्थापक सदस्य हैं, अब इसको विस्तार देते हुए यूएई और सऊदी अरब को भी शामिल किया गया है। सनद रहे, मंगोलों पर ईवान की जीत वर्ष 1526 में बाबर का हिंदुस्तान का शहंशाह बनने के केवल 26 साल बाद हुई थी।
देखा जाए तो, व्लादिमीर पुतिन की तरफ मोदी की यात्रा लंबित है, क्योंकि दिसम्बर, 2021 में वे भारत आए थे, अब बारी प्रधानमंत्री मोदी की है, विशेषकर, जब जुलाई में कजाखस्तान के अस्ताना में, चीन के नेतृत्व वाले शंघाई सहयोग संगठन के आगामी सम्मेलन में भाग लेने मोदी नहीं जाएंगे। अलबत्ता चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की भांति पुतिन भी अस्ताना में उपस्थित होंगे क्योंकि वह एकदम पड़ोसी मुल्क है। लेकिन, भारत के साथ लगती सीमा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आज भी चीनी फौजी बैठे हैं, शायद इसलिए मोदी का मानना है कि दिखावे के ऐसे शिष्टाचार से जितना दूर रहा जा सकता है, उतना ही बेहतर।
ज़रा अंदाज़ा लगाएं कि मोदी की कज़ान यात्रा पर कौन नज़दीकी नज़र रखेगा? अमेरिका से लेकर भारत तक, बारास्ता रूस एवं चीन, बड़ा खेल यकीकन जारी है, और जमकर।

लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।

Advertisement

Advertisement