दवाओं की गुणवत्ता नियंत्रण प्रणाली लागू करें
वर्तमान में आर्थिक नीतियां बनाने वालों के लिए आमतौर पर लाइसेंस शब्द को खराब माना जाता है। फिर भी, मुक्त बाजार के पैरोकारों की संभावित आलोचनाओं के जोखिम पर सरकार को दवा निर्यात में लाइसेंस लेने को अनिवार्य अवश्य बनाना चाहिए। भारत ने ‘विश्व का दवाखाना’ खिताब अर्जित करके अच्छा नाम कमाया है लिहाजा दूसरे देशों को दवा निर्यात करने वाली कंपनियों को मनचाहा करने की छूट से इस साख को काफी नुकसान होने का अंदेशा मंडरा रहा है।
28 जुलाई को ब्लूमबर्ग ने रिपोर्ट में बताया था कि चेन्नई स्थित एक कंपनी द्वारा इराक को भेजी ‘कोल्ड आउट’ नामक खांसी सिरप के सैम्पल में स्वीकार्य मात्रा से 21 गुणा ज्यादा इथाइल ग्लाइकॉल पाया गया। यह परीक्षण अमेरिका की भरोसेमंद और विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला में किया गया।
इससे पहले पिछले साल आई खबरों में, भारत में बनी खांसी सिरप से गाम्बिया और उजबेकिस्तान में बच्चों की मौत होने के आरोप लगे थे। इस साल अप्रैल माह में, ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मार्शल आइलैंड और माइक्रोनेशिया में खांसी की दवा के संदिग्ध सैम्पल पाए थे। यह सिरप भी एक भारतीय कंपनी का उत्पाद था। इसमें डाई-इथाइलीन ग्लाइकॉल और इथाइलीन ग्लाइकॉल नामक विषैले तत्व पाए गए, जो इंसानी शरीर के लिए घातक हैं। एक अगस्त को ब्लूमबर्ग की एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि एक भारतीय दवा निर्माता ने घटिया गुणवत्ता वाली गर्भपात गोलियां एक गैर-सरकारी संगठन को बेचीं, जिसने आगे दुनियाभर में इन्हें बांटा। पिछले कुछ वक्त से भारतीय दवा निर्यातकों की ऐसी आपराधिक लापरवाही के अनेक मामले हैं जिनके परिणामवश गाम्बिया, इंडोनेशिया और उजबेकिस्तान में मौत होने के आरोप हैं और विश्व के अन्य हिस्सों के उपभोक्ताओं की निगाह में भारतीय दवाओं पर भरोसा टूटा।
भारत अपने दवा उद्योग की साख को इस तरह बट्टा लगते जाना गवारा नहीं कर सकता। भारतीय दवाओं को अफ्रीका में एड्स की सस्ती दवाओं से करोड़ों लोगों की जान बचाने के लिए याद रखा जाएगा। अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवा निर्माताओं के मुकाबले भारतीय दवाओं की कीमत इतनी कम थी कि उनको भी जनाक्रोश के सामने झुककर अपनी दवाओं का मूल्य भारतीय दवाओं के स्तर पर लाना पड़ा। इस तरह अफ्रीका का आम इंसान हो या किसी देश का राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र, सबके लिए दवाएं वहन योग्य बनीं।
विश्व का सकल दवा बाज़ार कई ट्रिलियन डॉलर का है। जबकि नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत से दवा निर्यात लगभग 25 बिलियन डॉलर सालाना है। जितने मूल्य का व्यापार भारतीय दवा कंपनियां करने की संभावना रखती हैं, उसके बरअक्स यह आंकड़ा केवल सतह खुरचने जैसा है। अकेले जेनेरिक दवा उद्योग आसानी से 10 गुणा बढ़ सकता है, रोजगार पैदा कर सकता है और इतना टैक्स और पुनर्निवेशीकृत मुनाफा बन सकता है, जिसका मुकाबला आईटी उद्योग से इतर और कोई क्षेत्र नहीं कर पाएगा। आर्थिक रूप से मजबूत जेनेरिक दवा उद्योग नए मॉलिक्यूल्स के अनुसंधान एवं विकास के लिए निवेश कर सकता है और जेनेटिक दवाएं, सिंथेटिक बायोलॉजी एवं नूतन वैक्सीन के क्षेत्र में दाखिल हो सकता है।
लेकिन इन तमाम संभावनाओं पर कुछ छोटे दवा निर्यातकों द्वारा बाजार में घटिया दवाएं उतारने और इन्हें बनाने में जो घटिया मूल सॉल्ट वे आयात करते हैं उसकी निगरानी तंत्र कमजोर होने की वजह से पानी फिर जाता है। यह तुरंत बंद होना चाहिए।
भारत को दवा उत्पादन प्रक्रिया और अंतिम उत्पाद के लिए कड़ी गुणवत्ता नियंत्रण प्रणाली को अनिवार्य करना होगा। एक बड़ी समस्या यह है कि गुणवत्ता का पैमाना राज्य से राज्य के बीच भिन्न है। इसको बदलना होगा और सभी सूबों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के लिए एक समान गुणवत्ता और संहिता होनी चाहिए। बेशक ठेके पर दवा उत्पादक इकाई बनाना, मूल्य संवर्धन के सबसे तेज तरीकों में एक है और इसको रोकने की बजाय बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन भारतीय दवा उद्योग तंत्र के परिप्रेक्ष्य में दवा निर्यात में ‘खुली छूट’ वाला रवैया अपनाने की भी कोई वजह नहीं है।
भारत में लगभग 3000 दवा निर्माता और 10,000 उत्पादन इकाइयां हैं, जिन्होंने वर्ष 2021 में कुल मिलाकर 3.36 करोड़ रुपये मूल्य की दवाओं का उत्पादन किया। इसमें 75 फीसदी अंश चोटी की 50 कंपनियों का रहा। अर्थात् शेष प्रत्येक कंपनी की औसत बिक्री लगभग 85 करोड़ रुपये थी। इनमें कुछ भविष्य की ‘सिप्ला’ या ‘सन फार्मा’ हैं तो कुछेक वह भी, जो घटिया दवाएं बनाती हैं और जिनके लिए कहा जाता है कि सजा का प्रावधान नर्म करके जेल की बजाय जुर्माना भरना बनाया गया है।
भारतीय दवा गुणवत्ता नियंत्रक के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि तमाम 10000 उत्पादन इकाइयों पर कड़ी निगरानी रखे और गुणवत्ता लागू करवा सके। पर सभी को दवा उत्पादकों को निर्यातक बनने की इजाजत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे अपने उत्पाद की बिक्री गुणवत्ता के दम पर करने की बजाय बेचने की कला से खरीदार ढूंढ़ लेते हैं। बेचने के पैंतरों में एक सबसे सरल है, आयातक देश में किसी अधिकारी को रिश्वत देकर काम निकलवाना।
भारत को दवा निर्यात के लिए गुणवत्ता नियंत्रण निज़ाम अवश्य बनाना चाहिए। आवेदन भी केवल वही कंपनियां कर पाएं जिनकी बिक्री 1000 करोड़ रुपये से ऊपर हो। अपने ब्रांड की साख बचाने और नया बाजार बनाना उनके लिए स्वयमेव लाजिमी हो जाएगा। वे उन जैसा नहीं कर पाएंगी जो पैसा जल्दी बनाने की प्रवृत्ति के नतीजे में कोई त्रासदी या कांड घटित होने पर अपना धंधा बंद करके कहीं और जाकर इकाई लगा लेते हैं।
निर्यात होने वाले हरेक दवा की खेप की गुणवत्ता जांच हो, सैम्पलों की जांच भारत सरकार के मान्यता बोर्ड और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं से हो। तो क्या इसका मतलब है कि भारत के छोटे और लघु उत्पादकों के लिए निर्यात के दरवाज़े बंद हो जाएंगे? कतई नहीं, वे शुरुआत छोटे स्तर से करके, पहले घरेलू बाजार में और उन बड़े निर्यातकों को अपना माल बेच सकते हैं जो गुणवत्ता से समझौता नहीं करते। इस तरह अपने लिए पांव रखने की जगह बना सकते हैं, फिर पात्रता लायक बिक्री बनाने उपरांत निर्यात शुरू कर सकते हैं।
‘परनाला वहीं’ रवैया भारतीय दवा उद्योग की इज्जत दागदार कर रहा है और इसकी संभावनाएं खत्म कर रहा है। गला-काट बाजार बनाने में बहुत से मुल्कों और उन कंपनियों की दिलचस्पी है जो भारत की साख को बट्टा लगवाना चाहते हैं। नीति-निर्धारकों को यह बात समझकर वह उपाय सुनिश्चित करने होंगे जिससे केवल गुणवत्ता के लिए प्रतिबद्ध उत्पादक हों और भरोसेमंद दवाओं का ही निर्यात हो पाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।