प्रतिष्ठा मिले तो प्रतिभाएं आगे आएंगी
लक्ष्मीकांता चावला
प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने से पहले एक बार नरेन्द्र मोदी जी ने कहा था कि वह चाहते हैं कि देश के सबसे योग्य व्यक्ति अध्यापक बनें। उनको पूरा वेतन भी ससम्मान दिया जाए। उन्होंने एक बार अध्यापक दिवस पर यही बात कही कि आखिर क्यों योग्य छात्र अध्यापक बनने की बात नहीं कहते। परीक्षा परिणामों के बाद बहुत सफल रहने वाले और मैरिट सूची में प्रथम दस-पांच स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों से जब कभी पूछा जाता है कि वे भविष्य में क्या बनना चाहेंगे तो शायद ही कोई विद्यार्थी यह कहे कि वह अध्यापक बनना चाहता है। अन्यथा सभी डॉक्टर, इंजीनियर और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में सफलता पाकर उच्च पदों पर आसीन होना चाहते हैं। सच यह भी है कि आज बहुत से युवक-युवतियां जो डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक अधिकारी जैसे योग्य पद प्राप्त कर भी चुके हैं उन्हें भी अवसर मिल जाए तो वे आईएएस, आईपीएस और नहीं तो प्रांतीय पुलिस और सिविल सेवाओं में सफलता पाकर साहब बनना चाहते हैं।
दरअसल, आज सारी शक्ति, सारी सुविधाएं और सारा सम्मान इसी वर्ग के चारों ओर केंद्रित हो गया है, जिसे हम आईएएस या आईपीएस और पीपीएस कहते हैं। कोई तहसीलदार स्तर का अधिकारी भी किसी स्कूल-कॉलेज में पहुंच जाए तो सारी संस्था का ध्यान उसी अधिकारी की आवभगत में लग जाता है। यहां तक कि इसी स्तर के अधिकारी के द्वारा कार्यक्रमों का उद्घाटन करवाकर और उनके तथाकथित करकमलों से पुरस्कार पाकर देने और लेने वाले स्वयं को धन्य समझने लगते हैं। संस्था की ओर से उनकी गुण गाथा मंच से इस ढंग से की जाती है कि कोई भी विद्यार्थी इसी पद पर पहुंचकर धन्य होना चाहता है।
किसी शिक्षण संस्था का प्रधानाचार्य अथवा प्राचार्य होना बड़ी बात है, पर गंगा उलटी बहने लगी है। शिक्षण संस्थाओं के मुखिया अपने नगर-महानगर के किसी पुलिस अधिकारी को जब अपने स्कूल-कॉलेज में कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनने के लिए निमंत्रित करते हैं तभी यह आभास होता है कि अतिथि बहुत विशिष्ट है। यही प्रिंसिपल और कॉलेजों के अध्यापक अपने ही नगर के इन अधिकारियों से मिलने जाते हैं तो उन्हें प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है। तब तक उचित सम्मान नहीं मिलता जब तक उनकी निजी मित्रता सम्बद्ध अधिकारी से न हो। अध्यापक, डॉक्टर, वकील तथा अन्य संस्थानों के कर्मचारी पुलिस के डंडे से पिटते और अपमानित भी किए जाते हैं।
पिछले दिनों पंजाब में ही उन विद्यार्थियों के नाम चित्रों सहित समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए जिन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में सफलता प्राप्त की अथवा पंजाब की सिविल सेवाओं में उत्तीर्ण हुए। सभी समाचार पत्रों में इनके चित्र सपरिवार प्रकाशित करने की होड़ लग गई। इस परीक्षा में सफल होने वाली लड़कियों के लिए तो यह लिखा गया कि बिटिया बन गई कड़क अधिकारी। पुलिस सेवा में कोई सफलता प्राप्त कर ले, तब भी परिवार-समाज और मीडिया उसका पूरा अभिनंदन करती है। यही प्रशंसा और चर्चा उन्हें नहीं मिलती जो डॉक्टर, कॉलेज प्राध्यापक अथवा अन्य पद प्राप्त करते हैं। कारण वही है कि उनके साथ सत्ता जुड़ी है, अधिकार हैं। अधिकार भी इतने पक्के कि जब समय आए तो वे किसी को भी हथकड़ी लगा सकते हैं, जेल भिजवा सकते हैं और अपने ऑफिस के बाहर घंटों खड़े भी रख सकते हैं।
नि:संदेह अगर समाज में अध्यापकों को पूरा सम्मान और सम्मानजनक वेतन मिलेगा तभी योग्य व्यक्ति इस कार्य को अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाएंगे। आज की स्थिति यह है कि जब किसी भी सत्तापति का आगमन हो तो उनकी अगुवानी के लिए, रौनक बढ़ाने के लिए, तालियां बजाने के लिए अध्यापकों को ही लाइन में लगा दिया जाता है। देश के लाखों अध्यापक ऐसे हैं जिन्हें पूरा वेतन नहीं मिलता। उन्हें बहुत कम वेतन देकर ठेके पर रखा जाता है, मानसिक और शारीरिक शोषण सहना पड़ता है। गांवों में तो स्थिति इतनी दयनीय है कि उच्च शिक्षित अध्यापक को कोई पंच-सरपंच भी जब चाहे अपमानित कर सकता है। अध्यापकों को जब सरकार चाहे स्कूलों से निकालकर जनगणना में लगा सकती है, वोट बनाने और चुनाव करवाने का काम सौंप सकती है। ऐसे बहुत से काम हैं, जिनका अध्ययन-अध्यापन से कोई संबंध नहीं, वहां भी स्कूलों से अध्यापकों को ही निकालकर धकेल दिया जाता है।
आज आवश्यकता है कि अध्यापकों का वैसा सम्मान हो जैसा राम राज्य में होता था। याद यह भी रखना होगा कि राम राज्य इसीलिए राम राज्य था, क्योंकि वहां सारी राज सत्ता ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य जैसे गुरुओं के निर्देश पर चलती थी और द्वापर में महाभारत इसलिए हुआ क्योंकि बेचारे अध्यापक इतने बेबस थे कि उन्हें राज दरबार में बैठ कर भी द्रोपदी का चीरहरण देखना पड़ा। वे अपने दुःशासन और दुर्योधन जैसे शिष्यों को न नियंत्रित कर सके, न कोई दिशा दे सके। आज के भारत में सबसे आवश्यक यही है कि बहुत अच्छे, सुसंस्कृत राष्ट्रभक्त व्यक्ति ही अध्यापक बनें, अन्यथा सुधार की आशा ही मृगमरीचिका जैसी हो गई है।