बिगड़ेगी बात तो जाएगी फिर दूर तलक
बुनियादी ग़लती हुई थी जी-20 बैठक के दौरान। पता नहीं किसने समझा दिया कि पीएम मोदी अपने कनाडाई समकक्ष जस्टिन ट्रूडो से वन टू वन न मिलें। इन दोनों की मुलाकातें दीवान-ए-ख़ास में नहीं, दीवान-ए-आम में हुई। साइड लाइन बैठक में जस्टिन ट्रूडो उपेक्षित-सा महसूस कर रहे थे। वापसी भी अजीब-सी। विमान में ख़राबी, उसे ठीक कराया, और बेगाने से लौटकर ओटावा आ गये। अगले दिन संसद में जो बयान ट्रूडो ने दिया, उससे बात बिगड़नी ही थी। तब से ‘तू सेर, तो मैं सवा सेर’ चल रहा है। पिस रहे हैं दोनों तरफ़ के आम लोग, बिजनेस कम्युनिटी जिनका खालिस्तान से कोई लेना-देना नहीं उनकी हालत पूछिए। वीज़ा बंद-व्यापार ठप। जिन्हें चरमपंथ की दुकान चलानी है, उनके यहां मौजां-ही मौजां।
कनाडा के संबंध चीन से भी 2019 में बिगड़े थे। तब हुआवेई के कार्यकारी मेंग वानझोउ को कनाडाई अधिकारियों ने गिरफ्तार किया था। जवाब में चीन ने दो प्रमुख कनाडाई कंपनियों से कैनोला शिपमेंट को अवरुद्ध कर दिया। वह प्रतिबंध लगभग तीन साल तक चला। बात इतनी बिगड़ी कि मई, 2023 में जस्टिन ट्रूडो सरकार ने चीनी राजनयिक झाओ वेई को यह कहते हुए निष्कासित कर दिया कि वह हांगकांग में कंजर्वेटिव सांसद माइकल चोंग और उनके रिश्तेदारों को डराने की साजिश में शामिल थे। चीन चुप क्यों रहता? बदले की कार्रवाई में चीनी विदेश मंत्रालय ने शंघाई स्थित कनाडा की वाणिज्य दूत जेनिफर लिन लालोंडे को 13 मई, 2023 से पहले देश छोड़ देने के लिए कह दिया। चीन ने इस कनाडाई डिप्लोमेट पर उईगुर अलगाववादियों को उकसाने का आरोप लगाया था।
जस्टिन ट्रूडो के साथ मुश्किल यह है कि सरकार को सुचारु रूप से चलाने की बजाय देश का ध्यान भटकाने के लिए कभी चीन से, तो कभी भारत से कूटनीतिक संबंध बिगाड़ने में लगे हुए हैं। अक्तूबर 2025 तक सत्ता में बने रहने के लिए जस्टिन ट्रूडो एक कठपुतली प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं। सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी को 338 सदस्यीय हाउस ऑफ कॉमंस में 170 सभासदों का समर्थन चाहिए। 2019 के आम चुनाव परिणाम के समय न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) के लीडर जगमीत सिंह किंग मेकर की भूमिका में अवतरित हुए थे। उनके कहने पर ही 18 सिख सांसदों ने जस्टिन ट्रडो को प्रधानमंत्री स्वीकार किया था। 22 मार्च, 2022 को दूसरे आम चुनाव में भी यही सीन था। एक बार फिर सिख सांसदों ने ट्रूडो की कठपुतली सरकार को समर्थन दे दिया। चार साल की यह मियाद 20 अक्तूबर, 2025 को पूरी होगी।
ट्रूडो ने हालिया बयान में कहा भी था कि हम ‘सप्लाई एंड कान्फिडेंस’ की नीतियों के साथ एनडीपी से अपने संबंध निर्वाह कर रहे हैं। कनाडा की घरेलू राजनीति में स्थिरता के लिए सिख सांसदों का समर्थन ही एकमात्र विकल्प है। ठीक से देखा जाए तो भारतीय लोकसभा से कहीं अधिक सिख सांसद कनाडा में हैं। लोकसभा में 13 तो कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स में 18 सिख सांसद हैं।
कनाडा की कुल आबादी का डेढ़ प्रतिशत सिख हैं, तो वहां सरकार उनकी न सुने, ऐसा संभव नहीं। भारत में सिखों की संख्या 1.7 प्रतिशत है। मानकर चलिये कि कुछ वर्षों में कनाडा में प्रवास करने वाले सिख भारत जितने हो जाएंगे। 18 सितंबर, 2022 को ब्रैम्टन में खालिस्तान पर रेफरंडम का आयोजन किया गया। उस मतसंग्रह में एक लाख से अधिक सिखों की हिस्सेदारी ने कई सवाल खड़े किये हैं। ट्रूडो कहते हैं, यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। वो आगे भी ऐसा करेंगे, तो हम रोकेंगे नहीं।
कनाडा में 13 लाख 75 हज़ार भारतवंशियों की आबादी में लगभग चार लाख हिंदू और पांच लाख सिख हैं, बाक़ी दूसरे मतों को मानने वाले लोग हैं। मगर, इन भारतवंशियों की वहां की राजनीति में सिखों जैसी भागीदारी नहीं है। 18 सितंबर, 2022 को खालिस्तान के वास्ते तथाकथित मतसंग्रह में एक-चौथाई से भी कम सिखों ने हिस्सा लिया। इस चर्चा पर चुप्पी लगा ली जाती है कि चार लाख प्रवासी सिखों ने इस कार्यक्रम से दूरी बनाकर रखी थी। जिन एक लाख सिखों ने ब्रैम्टन के गोर मेडो कम्युनिटी सेंटर पर आयोजित मतसंग्रह में हिस्सा लिया, उनमें पाकिस्तान वाले सिख कितने हैं? यह भी खोज का विषय है।
मतसंग्रह के पांच दिन बाद 23 सितंबर को भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक एडवायजरी जारी करते हुए कनाडा में रह रहे अनिवासी भारतीयों व छात्रों से कहा था कि वो हेट क्राइम से सतर्क रहें। उन्हें कोई इसका शिकार बनाता है, तो वो ‘मदद पोर्टल’ पर जाएं, और अपनी शिकायत रजिस्टर्ड करें। खालिस्तान पर मतसंग्रह से पहले टोरंटो स्थित बीएपीएस स्वामीनारायण मंदिर की दीवारों को भारत विरोधी ग्रैफिटी से कुछ उपद्रवी तत्वों ने रंग दिया था। वहां खालिस्तान समर्थक स्लोगन भी उकेर दिये थे। टोरंटो में भारतीय वाणिज्य दूतावास की दीवारों पर भी ऐसा कुछ हुआ था, उसके कुछ विजुअल्स पाकिस्तान के जियो न्यूज़ ने दिखाये थे। ऐसी करतूत में सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) का नाम सबसे आगे है।
जस्टिन ट्रूडो फिर भी इसे ‘लोकतांत्रिक’ बोलते हैं तो यह आंखों पर पट्टी बांध लेने के सिवा कुछ भी नहीं है। उन दिनों जस्टिन ट्रूडो ने बाकायदा बयान दिया था कि खालिस्तान के वास्ते मतसंग्रह जब तक शांतिपूर्ण है, हम उन्हें ऐसा करने से रोक नहीं सकते। यह कनाडा के क़ानून द्वारा प्रदत्त अधिकार है कि किसी विषय पर आप मत संग्रह करा सकते हैं। फ्री स्पीच, असेंबली कनाडा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है।
अब सवाल है कि कनाडा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब क्या यह होता है कि वहां बसे उन लोगों को धमकाया जाए जो खालिस्तानी नेताओं की हां में हां नहीं मिलाते? सिख फॉर जस्टिस के सरगना, गुरपतवंत सिंह पन्नू, जिसने न्यूयार्क में अपना मुख्यालय बना रखा है, वो कनाडा मेें रहने वाले प्रवासियों को धमका रहा है कि खालिस्तान से असहमत लोग देश छोड़ दें। दो दिन बाद कनाडा का सुरक्षा विभाग जागा, और बयान दिया कि कनाडा में आक्रामकता नफरत डराने-धमकाने या डर पैदा करने वाले कृत्यों का कोई स्थान नहीं है। ये केवल हमें बांटने का काम करते हैं।
ट्रूडो की सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी के साथ मजबूरी ऐसे तत्वों को बर्दाश्त करने की है। इससे अलग हटें, तो सरकार कभी भी जा सकती है। जो बयान ट्रूडो प्रशासन ने जारी किया है, वह केवल औपचारिकता का हिस्सा लगता है। इससे प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी के भीतर हिंदू समर्थक नाखुश हैं। हिंदू सांसद चंद्र आर्य ने सही कहा है कि अधिकांश कनाडाई सिख खालिस्तान आंदोलन का समर्थन नहीं करते हैं।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।