उपकरणों के साथ मानवीय गरिमा की रक्षा हो
दीपिका अरोड़ा
भूमिगत सीवर सिस्टम ने भले ही शहरी व्यवस्था को सुविधाजनक बना दिया हो किंतु वर्ष 1993 में, आधिकारिक रूप से प्रतिबंधित होने के बावजूद हाथ से मैला ढोने की प्रथा आज भी जारी है। सफाई की सुरक्षाविहीन मैन्युअल प्रक्रिया न जाने कितने कर्मियों को शारीरिक-मानसिक रूप से रुग्ण बना देती है, कई बार तो परिवार का आश्रयदाता ही छीन लेती है।
इसी संदर्भ में दाख़िल एक जनहित याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सीवर सफाई के दौरान सफाई कर्मी की मृत्यु होने पर, बतौर मुआवज़ा, परिवार को 30 लाख रुपये देने का आदेश दिया। स्थायी दिव्यांग होने पर न्यूनतम 20 लाख रुपये, अन्य प्रकार की दिव्यांगता में सरकारी अधिकारियों को 10 लाख रुपये अदा करने होंगे।
मानवीय दृष्टिकोण से कई असंवेदनशील पहलुओं सहित रोग जनक एवं प्राणघातक होने की वजह से निश्चय ही यह विचारणीय विषय है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14, 17, 21 तथा 23 हाथ से मैला उठाने वालों को सुरक्षा-गारंटी प्रदान करता है। भूमिगत सफाई से पूर्व कर्मचारियों को आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना यद्यपि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा मुंबई हाईकोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों एवं सरकारी अध्यादेश, 2008 के अंतर्गत कानूनी प्रावधानों में आता है। इसके बावजूद नियमित सफाई कर्मियों के अलावा संविदा-ठेके पर भर्ती मज़दूरों को बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था मैनहोल में उतारना आम बात है। इंसानी ज़िंदगी से खुलेआम खिलवाड़ दर्शाता एक वीडियो बीते दिनों ख़ासा चर्चित रहा, जिसमें बिना किसी सुरक्षा-व्यवस्था एवं सेफ्टी किट के, मुंह उल्टा करके सीवर होल की सफाई कर रहे कर्मी के पांव अन्य कर्मी ने पकड़ रखे थे। अधिकारियों का लापरवाह रवैया दर्शाती यह तस्वीर हाथ से मैला उठाने की प्रथा के उन्मूलन-प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह है।
ग़ौरतलब है, मानव अपशिष्ट तथा हानिकारक पदार्थों के सीधे संपर्क में आने के कारण उपजे गंभीर रोगों से असामयिक मृत्यु का जोख़िम बढ़ जाता है। गहरे कुंडों में जमा रसायन विषैली गैसें उत्पन्न कर दमघोटू माहौल बनाते हैं, जिसका ख़ामियाज़ा सफाईकर्मियों को जान देकर चुकाना पड़ता है। जुलाई, 2022 के दौरान लोकसभा में पेश आंकड़ों का हवाला देते हुए कोर्ट ने गत 5 वर्षों के दौरान 347 लोगों की मृत्यु होने की बात कही। अधिकांश मामलों में परिजनों को पर्याप्त मुआवज़ा न मिल पाना अन्य त्रासदी रही, जबकि वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार, वर्ष 1993 से सीवेज कार्य में मरने वाले व्यक्तियों की पहचान करना तथा मुआवज़े के रूप में प्रत्येक परिवार को 10 लाख रुपए प्रदान करना अनिवार्य बनाया गया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बीते 20 वर्षों में 989 कर्मी सीवर साफ करते समय मौत का ग्रास बने।
प्रतिषेध तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013 इस कुप्रथा के उन्मूलन हेतु प्रतिबद्ध है किंतु केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जून माह में जारी आंकड़े बताते हैं, 766 में से मात्र 508 ज़िले स्वयं को हाथ से मैला ढोने की प्रथा से मुक्त घोषित कर पाए। यह विसंगति प्रथा की असल स्थिति व सरकारी प्रयासों की प्रभावशीलता को लेकर चिंता उत्पन्न करती है।
मशीनी युग में भी अधिकांश नगरपालिकाओं के पास सीवेज सिस्टम की सफाई हेतु नवीनतम संयंत्र उपलब्ध न होना आश्चर्जनक है। जातिगत हाशिये पर धकेले समुदायों के लिए वैकल्पिक रोज़गार अवसरों तक पर्याप्त पहुंच न होने के कारण, आजीविका के तौर पर हाथ से मैला ढोने का काम स्वीकारना एक विवशता बन जाता है। वहीं अकुशल मज़दूरों द्वारा सस्ती मज़दूरी में कार्य निपटाने की सोच भी इस सामाजिक कलंक को मिटने नहीं देती है?
हाथ से मैला ढोना व्यक्ति की गरिमा तथा मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। सामाजिक भेदभाव बढ़ाने के साथ यह भावनात्मक तनाव को भी जन्म देता है। इसी के दृष्टिगत, पीठ ने प्रथा की समाप्ति सहित केंद्र तथा राज्य सरकारों को ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स पुनर्वास’ हेतु समुचित क़दम उठाने तथा पीड़ितों एवं उनके परिजनों के लिए छात्रवृत्ति व अन्य कौशल विकास कार्यक्रम सुनिश्चित बनाने का आदेश भी दिया। जान को जोखिम में डालने वाली यह प्रथा वास्तव में समाज की संकीर्ण सोच की परिचायक है जो मानवीयता के स्तर पर मानव को मानव से विलग करती है। समुचित निवेश द्वारा आधुनिक शौचालयों, सीवेज उपचार संयंत्रों तथा कुशल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों के निर्माण सहित स्वच्छता के बुनियादी ढांचे में सुधार लाया जाए तो निस्संदेह, अपशिष्ट निपटान के लिए सुरक्षित विकल्प मिल जाएंगे। पहल के तौर पर, सरकारी-ग़ैर सरकारी संगठन व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के गंभीरतापूर्ण प्रयास करें तो सीवर सफाई कर्मियों के जीवन की दिशा व दशा बदल सकती है।
जीवन अनमोल है। आर्थिक संबल देने वाला मुआवज़ा भी, परिजन-विछोह क्षति की भरपाई नहीं कर पाता। जैसा कि पीठ ने सरकारी एजेंसियों को निर्देश दिया, सीवर-मौत से जुड़े मामलों का हाईकोर्ट के संज्ञान में आना अनिवार्य है। कानून यदि कड़ाई से लागू हों तो एजेंसियों को सुरक्षा उपकरणों तथा नियमों के प्रति सचेत एवं संवेदनशील होना ही पड़ेगा। संभवतः फिर मुआवज़ा देने की नौबत ही न आए!