अक्ल का घर
गगन शर्मा
अब जो होना था, वह हुआ और अच्छा ही हुआ। क्योंकि इससे एक सच्चाई तो सामने आ गई, कि जो बहुत दिनों से, बहुत बार, बहुतों से बहुतों के बारे में सुनते आ रहे थे कि फलाने का दिमाग घुटने में है और इसको हल्के-फुल्के अंदाज में ही लिया जाता था। अब पूरा विश्वास हो गया है कि यह मुहावरा यूं ही नहीं बना था, इसमें पूरी सच्चाई निहित थी। बात कुछ दिनों पहले की है। दोपहर करीब दो बजे का समय था। रिमझिम फुहारें पड़ रही थीं। सो उनका आनंद लेने के लिए पैदल ही ऑफिस से घर की ओर निकल पड़ा। अचानक बारिश हो गयी। अचानक आए इस बदलाव ने मुझे अपनी औकात भुलवा मुझसे सौ मीटर की दौड़ लगवा दी। उस समय तो कुछ महसूस नहीं हुआ, पर रात गहराते ही घुटने में दर्द ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी। अगले कुछ दिनों का अवकाश लेने को मजबूर हो गया। पर इलाज करने और मर्ज बढ़ने के मुहावरे को मद्देनजर रख, मैंने किसी ‘डागदर बाबू’ को अपनी जेब की तलाशी नहीं लेने दी।
अब जैसा कि रिवाज है, तरह-तरह की नसीहतें, हिदायतें तथा उपचार मुफ्त में मिलने शुरू हो गए। अधिकांश सलाहें तो दोनों कानों में आवागमन की सुविधा पा हवा से जा मिलीं, पर कुछ अपने-आप को सिद्ध करने के लिए, दिमाग के आस-पास तंबू लगा बैठ गईं। अपने नामों से मशहूर मलहमें भी खूब पोती गईं। सेंधा नमक की सूखी-गीली गरमाहट को भी आजमाया गया, पर हासिल शून्य बटे सन्नाटा ही रहा।
अब जो होना था, वह हुआ और अच्छा ही हुआ। तो जनाब, इन 12-13 दिनों में बहुत कोशिश की। बहुतेरा ध्यान लगाया। कुछ लिखने-पढ़ने की जुगत लगाई। हर संभव-असंभव उपाय कर देख लिया पर एक अक्षर भी लिखा न जा सका। जिसका साफ़ मतलब था कि यह सब करने का जिसका जिम्मा है वह तो हालते-नासाज को लिए घुटने में बैठा था।
आखिरकार इलाज कराने की जुगत लगाई। दिखाया गया। विशेषज्ञ सलाहें मिलीं। जरूरी उपाय अपनाए गए, वगैरह-वगैरह। कुछ लोगों को सलाह भी दी। इसी दौरान किसी को चोट लग गयी। अपने अनुभव सुनाने चल पड़ा। अपने लिखे को पढ़ाने के लिए उसके पास जा बैठा। इस हालत में वह अपनी चोट संभालता कि मेरे अक्षरों पर ध्यान देता। तो लुब्ब-ए-लुबाब यह रहा कि कभी, किसी के घुटने में दिमाग का जिक्र आए तो उसे हल्के में मत लें।
साभार : कुछ अलग सा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम