अमेरिकी विरोध के बावजूद हसीना की ताजपोशी
यूं तो भारत अपने पड़ोसियों के आंतरिक मामलों के बारे में टिप्पणी करने से बचता है, लेकिन जब बात अपने कुछ पड़ोसी मुल्कों के आंतरिक मामलों को लेकर अमेरिका के रवैये की आए, तो उसके साथ मतभेदों की संभावना बनी रहती है। पाकिस्तान ने एक लंबा अरसा सैन्य शासन के अधीन गुजारा है। अमेरिका ने फील्ड मार्शल अयूब खान से लेकर जनरल याह्या खान, जनरल परवेज़ मुशर्रफ तक, सैन्य शासकों पर वरदहस्त बनाए रखा। पाकिस्तान के वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल असीम मुनीर के हालिया अमेरिका दौरे पर, वाशिंगटन पहुंचने पर उन्हें हाथों-हाथ लिया गया, हालांकि पाकिस्तान में आगामी 8 फरवरी को आम चुनाव होने जा रहे हैं। मुनीर उन जनरल बाजवा के जानशीन हैं, जिनकी अमेरिका के साथ निजी तौर पर बहुत नजदीकियां रही। यह कोई रहस्य नहीं कि अमेरिका जब मर्जी हो पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार को दरकिनार कर पाकिस्तानी सेना के साथ सीधा संपर्क कर लेता है। तय मानकर चलिए, पाकिस्तानी सेना द्वारा किए तख्तापलटों को अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान का अनुमोदन रहा है।
अमेरिका के एक के बाद आये राष्ट्रपतियों के साथ पाकिस्तान के सैन्य शासकों के गर्माहट भरे संबंध रहे हैं। पाकिस्तान के साथ उक्त व्यवहार के बरअक्स, अमेरिका के बांग्लादेश से रिश्ते बनिस्बत कम गर्मजोशी या मित्रतापूर्ण रहे हैं। यह उस वक्त अधिक स्पष्ट हो जाता है जब बांग्लादेश में आवामी लीग, जिसकी स्थापना मुल्क के संस्थापक राष्ट्रपिता शेख मुजीब-उर-रहमान ने की थी, ने हालिया चुनाव में लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव जीतकर लगातार दूसरी बार सरकार बनाई है। गौरतलब है, 1971 में बांग्लादेश को आज़ादी मिलने के बाद, विभिन्न कारणों से अमेरिका बांग्लादेश में धार्मिक कट्टरपंथ की ओर झुकाव रखने वाले दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों को समर्थन देता आया है, जैसे कि जनरल जिया-उर-रहमान द्वारा बनाई बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी। अमेरिका का उसके प्रति रवैया धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश आवामी लीग को लेकर रहे रुख के विपरीत है।
अभी भी, बांग्लादेश को लेकर अमेरिकी नीति में कोई बदलाव नहीं है। शेख हसीना की सरकार द्वारा करवाए हालिया आम चुनावों को लेकर अमेरिका ने काफी प्रचार चलाया। इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान में बांग्लादेश में शेख हसीना सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं। जहां तक भारत का संदर्भ है, बेगम खालिदा ज़िया के नेतृत्व वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का भारत के प्रति रवैया कम मित्रतापूर्ण रहा है। शेख मुजीब की हत्या को लेकर बहुत से सवाल अनुत्तरित हैं, जबकि स्वयं श्रेय लेने वाले दो हत्यारे, अमेरिका और कनाडा में आराम से रह रहे हैं।
भारत को अब अपने विदेश संबंधों में नई चुनौतियां दरपेश हैं। हमें ज़हन में रखना होगा कि अमेरिका का यह बहुप्रचारित दावा कि वह लोकतंत्र को बढ़ावा देने में पहरुआ है, सबके लिए एक-समान नहीं है। इसी बीच, पाकिस्तान की सेना विपक्षी नेताओं से सांठ-गांठ करके खेल रच रही है ताकि तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के मुखिया इमरान खान को इस्लामाबाद में सत्ता के गलियारों से दूर रखा जाए। चूंकि इमरान खान को अमेरिकी भी खासतौर पर पसंद नहीं करते लिहाजा किनारे होना ही है। हालांकि जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा स्थापित पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को आरंभिक वर्षों में पश्चिम में शक की निगाह से देखा जाता था। वह उन्हें चीन-परस्त वामपंथी मानता था। उनकी पुत्री बेनज़ीर भुट्टो को इस राजनीतिक झुकाव को लेकर रहा अमेरिकी शक दूर करने को बहुत मशक्कत करनी पड़ी और सत्ता संभालने से पूर्व इसमें कुछ सफलता मिली।
इसी बीच, पाकिस्तान को आतंकी गुटों का प्रायोजन करने से पहले अब बहुत सावधानी से विचार करना पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अब यह साफ कर दिया गया है, लश्कर-ए-तैयबा सरगना हाफिज़ सईद, जो कि 26/11 के मुम्बई आतंकी हमले का मास्टरमाइंड था, उसे 78 साल का कारावास भुगतने की सज़ा सुनाई गई है, जिस पर 2020 से अमल जारी है। उस पर आतंकवाद को वित्तीय मदद देने का दोष है। हालांकि देखना यह है कि क्या वाकई वह जेल में है या फिर पहले की तरह आईएसआई के संरक्षण में फर्जी हिरासत में आरामदायक जिंदगी बसर कर रहा है। लेकिन लगता है कि पाकिस्तान को आईंदा लश्कर-ए-तैयबा जैसे गुटों को प्रायोजित करने से पहले बहुत सावधानी बरतनी पड़ेगी। उम्मीद है पाकिस्तान को अब यह बात समझ भी आ चुकी होगी कि भारत तैयार है और हाफिज़ सईद जैसों को पुनः मदद करने की एवज में बहुत बड़ी कीमत चुकाने का पूरा इंतजाम कर देगा।
जब जनरल ज़िया उल हक ने जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट कर फांसी पर लटकवा दिया तो अमेरिका को जरा हमदर्दी न हुई। अफगानिस्तान में काबिज सोवियत सेना का जीना दूभर करने और अंततः शर्मिंदगी भरा पलायन करवाने में जनरल जिया ने अमेरिका का पूरा साथ दिया। इसके बदले पेंटागन ने पाकिस्तान को इनाम स्वरूप एफ-16 लड़ाकू ज़हाज और अन्य सैन्य उपकरणों की भरपूर खेप दी थी।
आर्थिक लिहाज से, पाकिस्तान के हाथ में पहले की भांति भीख का कटोरा है, जो अपने गुजारे के लिए अमेरिका-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष - विश्व बैंक की खैरात पर बेतरह निर्भर है। हालांकि चीन पाकिस्तान का मुख्य मददगार बना हुआ है और उसे परमाणु एवं रिवायती सैन्य उपकरण मुहैया करवा रहा है। पाकिस्तान के परमाणु और मिसाइल विकास कार्यक्रम के लिए चीन डिज़ाइन और धन देकर सहायता देता आया है। अब वह पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए बहुत अधिक मदद कर रहा है, जिसके तहत बनने वाले तंत्र में बहु-प्रचारित ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ परियोजना एक है। तथापि ऐसा विरल है कि चीन ने रियायती दरों पर पाकिस्तान की नकदी से मदद की हो, जिसकी पाकिस्तान को सख्त जरूरत है। इतना ही नहीं, अमेरिका खुद के वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण का अलम्बदार होने का दावा करता है लेकिन चीन-पाकिस्तान के बीच परमाणु अस्त्र एवं मिसाइल सहयोग पर आंखें मूंद रखी हैं।
ये वो हकीकतें है जिन्हें भारत को सदा अपने ज़हन में रखना होगा। भारत और अमेरिका का वर्तमान में उभयनिष्ठ हित हिंद महासागर और दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत और दबंगता से निपटने में है। पिछले कुछ सालों में, अमेरिका के साथ भारत के मतभेदों में एक है, पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक दलों या पक्षों के प्रति उसका पक्षपाती रवैया, विशेषकर पाक सेना के मामले में। इससे 1971 के युद्ध की नाखुशगवार यादें ताज़ा हो उठती हैं। बाइडेन प्रशासन ने शेख हसीना के नेतृत्व वाली बांग्लादेश सरकार की निरंतर आलोचना करने वाला रुख अख्तियार कर रखा है। यह प्रचार हालिया चुनाव में आवामी लीग द्वारा लड़ी गई कुल 229 सीटों में 222 पर विजय पाने के बावजूद जारी है। यह उस रुख से बेमेल है, जब खुद को लोकतंत्र का पहरुआ बताने वाला अमेरिका पाकिस्तान में तख्तापलट करने वाले फील्ड मार्शल अयूब खान, जनरल जिया उल हक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ जैसे सैन्य तानाशाहों का स्वागत करता रहा।
अल्पसंख्यकों से बरतने में शेख हसीना की आवामी नेशनल पार्टी का समानता एवं वांछित सम्मान से ख्याल रखने का ऐतिहासिक रिकॉर्ड रहा है, जिसमें वहां बसे 1 करोड़ 20 लाख हिंदू भी शामिल हैं। रूसी राष्ट्रपति पुतिन और चीनी राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग ने शेख हसीना की हालिया चुनावी जीत का स्वागत किया है। उम्मीद करें कि बांग्लादेश की स्थिति पर, गुप्त कूटनीतिक प्रयासों के जरिये अमेरिका के साथ भारत के कतिपय मतभेदों का हल निकल पाएगा। उस दिशा में यह दोनों मुल्कों के हित में होगा।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।