सियासी फायदे के लिए अपराधियों को संरक्षण
विश्वनाथ सचदेव
गुरमीत राम रहीम कल तक बाबा राम रहीम के नाम से जाने जाते थे। आज बहुत से लोग उसे सजायाफ्ता अपराधी के रूप में ही पहचानना ज्यादा पसंद करते हैं। पर पंजाब और हरियाणा में आज भी बाबा राम रहीम को दैवीय शक्तियों वाले व्यक्तित्व के रूप में मानने वालों की संख्या कम नहीं है। और यही बात अपने कृत्यों के लिए आजीवन सज़ा भुगत रहे राम-रहीम को इन दोनों राज्यों की चुनावी राजनीति का ताकतवर मोहरा बनाये हुए है। जब तक बाबा को सज़ा नहीं मिली थी, चुनावी राजनीति के नफे-नुकसान के लिए राजनीतिक दलों के नेता खुलेआम उससे ‘आशीर्वाद’ प्राप्त किया करते थे। अब खुलेआम ऐसा करने से भले ही राजनेता बच रहे हों, पर बाबा के अनुयायियों की लाखों की संख्या देखते हुए वह इस ‘प्रभाव’ का लाभ उठाने से नहीं चूकते। शायद इसीलिए जब भी चुनाव आते हैं बीस साल की सज़ा भुगतने वाला यह बाबा राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण बन जाता है। हर ऐसे मौके पर बाबा किसी न किसी तरह जेल से बाहर आ जाता है। ‘पैरोल’ और ‘फरलो’ पर बाबा के छूटने की कहानी अपने आप में हैरान करने वाली है।
लोकसभा के चुनाव से ठीक पहले राम रहीम को पचास दिन के पैरोल पर जेल से छोड़ा गया था। फरवरी, 2022 में बाबा को 21 दिन के पैरोल पर छोड़ा गया– पंजाब में चुनाव 14 फरवरी को होने थे। बाबा को 7 फरवरी को जेल से बाहर पहुंचा दिया गया। फिर जून, 2022 में हरियाणा के स्थानीय निकायों के चुनाव थे। इससे ठीक पहले, बाबा को 30 दिन के पैरोल पर रिहाई मिल गयी। फिर 15 अक्तूबर, 2022 को आदमपुर में उपचुनाव से पहले बाबा को चालीस दिन का पैरोल मिला था। इस तरह साल 2022 में राम रहीम 91 दिन जेल से बाहर रहा।
साल 2023 में हरियाणा के पंचायत चुनाव से पहले बाबा को 21 जून को चालीस दिन के पैरोल पर छोड़ा गया। नवंबर 2023 में राजस्थान में चुनाव थे। तब भी बाबा 21 दिन जेल से बाहर था। अखबारों में छपे आंकड़ों के अनुसार, 2023 में राम रहीम कुल 91 दिन तक जेल से बाहर था। अब, जबकि हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं, बाबा ने फिर पैरोल पर छूटने के लिए अर्जी दे दी, और वह मंज़ूर भी हो गयी है!
ज्ञातव्य है कि बाबा अपनी दो शिष्याओं से दुराचर और एक पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या के अपराध की सज़ा भुगत रहा है। हैरानी की बात यह है कि हर चुनाव के मौके पर यह दागी जेल से बाहर होता है! यह सही है कि अब ऐसे मौकों पर राम रहीम चुनावी सभाएं नहीं करता, पर सब जानते हैं कि हरियाणा और आसपास के राज्यों में बाबा का प्रभाव रंग दिखाने वाला है। यही रंग राजनेताओं को ऐसे अपराधियों की मदद लेने के लिए ललचाता है।
सही यह भी है कि पैरोल या फरलो पर छूटना किसी भी कैदी का अधिकार है और घोषित रूप से यह अधिकार कोई सरकार नहीं, जेल प्रशासन प्रदान करता है। लेकिन सब जानते हैं कि संबंधित राज्य सरकारों की मर्जी पर ही यह छूट मिलती है– और सब यह भी जानते हैं कि जिस पार्टी की सरकार होती है वह अपने राजनीतिक लाभ -हानि के अनुसार ऐसे मामलों का उपयोग करती है। पैरोल के इस ताज़ा मामले में, जबकि हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं, राज्य सरकार ने संबंधित अपराधी की पैरोल पर रिहाई के लिए राज्य के चुनावी अधिकारी से आग्रह किया है कि बाबा को यह छूट दी जाये।
सवाल यह उठता है कि चुनावी मौके पर बाबा जैसे अपराधियों को जेल से बाहर निकलने का मौका क्यों मिलता या दिया जाता है? क्या यह मात्र संयोग है कि अक्सर ऐसी छूट चुनाव के आसपास मिलती है? पैरोल पर जेल से बाहर आना किसी भी कैदी का अधिकार है और यह छूट देने का अधिकार जेल-प्रशासन को होता है, पर इस बात को नज़रअंदाज क्यों किया जाता है कि बाबा जैसे कैदी मतदान को प्रभावित कर सकते हैं और इसका लाभ उस वक्त की सरकार को मिल सकता है? अक्सर मिलता भी है।
नियम यह कहते हैं कि ‘अत्यंत आवश्यक’ हो तभी कोई राज्य सरकार किसी कैदी को पैरोल पर रिहाई की सिफारिश कर सकती है। अंतिम निर्णय जेल प्रशासन के हाथ में होता है। संबंधित सरकारें यही तर्क देकर अपना बचाव करती हैं, पर कौन नहीं जानता कि इस नियम और परंपरा का अक्सर उल्लंघन होता है। यह समझना ज़रूरी है कि अक्सर यह उल्लंघन वक्त की सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थ को देखकर करती हैं।
हमारे यहां अपराध जगत से राजनीति के रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। किसी अपराधी का पैरोल पर छूटना ऐसे ही रिश्तों का एक उदाहरण है। राम रहीम बीस साल की सजा भुगत रहा है और इस दौरान दस बार पैरोल पर बाहर आ चुका है। अब फिर हरियाणा के मतदान से ठीक पहले उसे पैरोल पर छूटने का मौका दे दिया गया है! क्षेत्र की जनता पर बाबा राम रहीम के ‘डेरा सच्चा सौदा’ का प्रभाव सब देखते रहे हैं। अपने अनुयायियों पर बाबा के प्रभाव का लाभ राजनेता अक्सर उठाते रहे हैं। ज्ञातव्य है कि शुरुआत में राम रहीम ने कांग्रेस पार्टी का साथ दिया था। फिर बाबा भारतीय जनता पार्टी के साथ हो गया। इसी साथ को रेखांकित करने के लिए हरियाणा के पिछले मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ बाबा का आशीर्वाद लेने उसके आश्रम में पहुंचे थे। तब राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे खट्टर का आभार प्रदर्शन कहा था!
सवाल यह है कि हमारे राजनेताओं को आपराधिक तत्वों के साथ जुड़ने, उनका आभार मानने में संकोच क्यों नहीं होता? बात सिर्फ एक अपराधी धार्मिक गुरु तक ही सीमित नहीं है। बात किसी भी तरह से राजनीतिक लाभ उठाने की है। बिलकिस बानो के मामले में हम देख चुके हैं कि कैसे बलात्कार और हत्या के दोषियों को जेल से रिहा किया गया था और कैसे मालाएं पहना कर उन्हें महिमा-मंडित किया गया था। देश की विभिन्न जेलों में कई अपराधी राजनीतिक संरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की क्यों न हों, अक्सर अपने राजनीतिक लाभ के लिए आपराधिक तत्वों की ‘शरण’ में पहुंच जाती हैं, निस्संकोच! और सज़ा भुगत रहे अपराधी भी शर्म से सर झुका कर चलने की आवश्यकता महसूस नहीं करते। अपराधियों को तो शर्म आनी ही चाहिए, उन्हें भी शर्म आनी चाहिए जो इन अपराधियों के अपराध की अनदेखी कर रहे हैं। इस संदर्भ में, कहीं न कहीं, देश का वह नागरिक जो आपराधिक तत्वों का समर्थन करता है, भी दोषी है। बात ऐसे तत्वों का समर्थन करने की ही नहीं है, विरोध न करने की भी है। अपराध करना तो पाप है ही, अपराधी को सहना भी किसी पाप से कम नहीं। यह सवाल तो हमें अपने आप से पूछना ही होगा कि न्यायालय द्वारा घोषित अपराधी को भी हम अपराधी क्यों नहीं मानते?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।