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दुनिया बचाने के आधे-अधूरे प्रयास

09:03 AM Dec 20, 2023 IST
दुनिया बचाने के आधे अधूरे प्रयास
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ज्ञाानेन्द्र रावत

पिछले दिनों दुबई में लगभग दो सप्ताह चले दुनिया के तकरीबन 200 देशों के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़-28 के आयोजन के पीछे भी यही आकांक्षा थी कि इसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने और भविष्य में उससे मिलने वाली चुनौतियों से कैसे निपटा जाये। दरअसल, वर्ष 2015 के पेरिस समझौते का मुख्य मकसद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को इस हद तक कम करना था ताकि वैश्विक तापमान में वृद्धि औद्योगिक काल से पूर्व के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न होने पाये। हकीकत यह रही कि इस दिशा में जो भी प्रयास किये गये वे ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुए। सबसे बड़ी बात इस हेतु जो संरचनात्मक ढांचे की जरूरत थी, वे निर्मित ही नहीं किये गये। दरअसल इनके बारे में सोचा ही नहीं गया। फिर जिस सामाजिक भागीदारी की बेहद जरूरत थी, उसकी तो कल्पना ही नहीं की गयी। जबकि वैश्विक स्तर पर ऐसी चुनौतियों से निपटना सामाजिक भागीदारी के बिना असंभव है। उम्मीद थी कि कॉप-28 में इस दिशा में मंथन होगा।
गौरतलब है कि दुबई में जलवायु सम्मेलन ऐसे समय हुआ जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों का बुरी तरह से सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन से दुनिया को होने वाला नुकसान साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है। इससे हर साल दुनिया को अरबों डालर की चपत लग रही है। हकीकत में दुनिया की जीडीपी को 1.8 फीसदी का नुकसान हो रहा है जो करीब 1.5 खरब डालर के बराबर है। वहीं भारत को करीब 8 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ रहा है। वर्ष 2022 में भारत को करीब 30 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा है।
लगातार गर्म होती दुनिया के लिए बहुत बड़ा खतरा बन रहा है सूखा। भारत सहित दुनिया के 23 देश गंभीर सूखे की मार झेल रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से पर्वतीय देशों के लिए खतरा बढ़ रहा है। उसे देखते हुए 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग में तीन डिग्री की बढ़ोतरी होती है तो उस स्थिति में खाड़ी देश रहने काबिल नहीं रहेंगे। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। इसका प्रभाव गरीबों पर ही नहीं, इंसान के मस्तिष्क और हृदय पर भी घातक प्रभाव पड़ रहा है। यहां तक जानवर भी इसके दुष्प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं।
इस सम्मेलन में पहली बार जलवायु परिवर्तन के संकट की व्यापकता और इस बारे में तत्काल कार्रवाई की जरूरत महसूस की गयी। इस सत्य को स्वीकार भी किया गया कि संकट के समाधान हेतु हमें आपस में न केवल सहयोग करना होगा बल्कि साथ-साथ इसका मुकाबला करना होगा। बावजूद इसके कि संपन्न और वंचित देशों के बीच विभाजन की खाई पहले की तरह बरकरार बनी रही।
जलवायु परिवर्तन की समस्या के मुकाबले के लिए सबसे बड़ी जरूरत पूंजी की है, कोष की है। यह मामला बरसों से विकसित देशों की इस बाबत आनाकानी के चलते उलझा हुआ है। सम्मेलन के अंतिम दिन जो सहमति बनी उसके अनुसार, सभी देश जीवाश्म ईंधन की जगह स्वच्छ ऊर्जा की ओर रुख करें। फिर भी वर्ष 2050 तक नेट जीरो तक पहुंचने, हरित ऊर्जा को साल 2030 तक तीन गुना तथा ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने, ट्रांजिशन फ्यूल का जिक्र करने, देशों को अपने स्वैच्छिक जलवायु लक्ष्य 2024 तक पूरे करने और अमीर देशों द्वारा अपने जंगलों को कार्बन ऑफसेट के रूप में उपयोग करने के लिए गरीब देशों को भुगतान करने की बात सम्मेलन में हुई। यदि इसको सम्मेलन की सफलता बनाया जा रहा है तो इसे उपलब्धि तो नहीं माना जा सकता।
सवाल यह है कि कार्बन कैप्चर तकनीक के जरिये नेट जीरो की राह बेहद खर्चीली है। इस तकनीक से 2050 तक नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए दुनिया को 30 खरब डालर की राशि अधिक खर्च करनी पड़ेगी। विशेषज्ञों की नजर में इस तकनीक पर निर्भर रहना उचित नहीं है क्योंकि इससे सरकारें खुद को प्रतिस्पर्धी नुकसान की स्थिति में डाल लेंगी। सबसे बड़ी विफलता यह ही है कि सम्मेलन में गरीब और विकासशील देशों को जलवायु लक्ष्य हासिल करने के लिए धन की आवश्यकता कैसे पूरी होगी। साथ ही ऐतिहासिक प्रदूषकों की जवाबदेही क्या और कैसे तय होगी, ग्लोबल साउथ के लिए जलवायु लचीलापन और कम कार्बन ऊत्सर्जन की दिशा में बदलाव के वित्त पोषण के लिए प्रभावी तंत्र कैसा बनेगा। इस पर और जीवाश्म ईंधन के उत्पादन और खपत की कटौती के मामले में कोई खुलासा न होना संदेह उत्पन्न करता है। फिर वित्त के मामले पर स्पष्टोक्ति का अभाव और मीथेन उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य निर्धारण न होना और अनुकूलन प्रयासों में तेजी लाने के प्रयासों के लक्ष्य का घोषित न किया जाना, पेरिस समझौते के अक्षरशः पालन के सवाल पर चुप्पी सम्मेलन की सफलता के दावे पर सवालिया निशान लगाते हैं।
हमें यह समझ लेना होगा कि चुनौती बहुत बड़ी है। केवल प्रस्तावों से कुछ नहीं होने वाला। वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार घरेलू कार्यों, परिवहन और बिजली उत्पादन आदि के लिए जीवाश्म ईंधन के उपयोग का सवाल जटिल है। इस पर अंकुश बेहद जरूरी है। लेकिन 2050 तक जलवायु संकट के प्रमुख कारक जीवाश्म ईंधन न्यायसंगत तरीके से खत्म किये जाने पर सहमति एक अच्छा संकेत तो है लेकिन इसके लिए 27 वर्ष का समय देना न्यायोचित नहीं है। उस स्थिति में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में त्वरित कटौती की बात और स्वच्छ दुनिया की उम्मीद करना बेमानी है।

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