आत्मसाक्षात्कार कराने वाली दिव्य विभूति हैं गुरु
डॉ. मधुसूदन शर्मा
शुक्ल पक्ष की चांदनी रातों में विशेष प्रकार के सकारात्मक आध्यात्मिक स्पंदन होते हैं। धीरे-धीरे चन्द्रमा का आकार बढ़ता जाता है और शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन यह अप्रतिम सौंदर्य लिये पूरे आकार में होता है। हिन्दू कैलेंडर में यह पूर्ण चंद्रमा की तिथि ही पूर्णिमा कहलाती है। सनातन धर्म में पूर्णिमा का धार्मिक महत्व तो है ही, परंतु इससे कहीं अधिक आध्यात्मिक महत्व है। चंद्रमा इस दिन अपनी दिव्य किरणों के माध्यम से पृथ्वी पर सकारात्मक ऊर्जा की वर्षा करता है। वर्ष भर में 12 पूर्णिमाएं होती हैं। हर पूर्णिमा का अलग-अलग धार्मिक आध्यात्मिक महत्व होता है। सनातन संस्कृति में आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के पर्व के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने पूर्णिमा के दिन ही स्वयं को आदि गुरु के रूप में रूपांतरित किया और अपने सात शिष्यों को गुरु शिष्य परंपरा से दीक्षित किया। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही वेदों के रचयिता महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा बौद्ध और जैन धर्म में भी है। महात्मा गांधी जी ने भी अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् राजचंद्र को श्रद्धांजलि देने के लिए इसी दिन को चुना।
आमतौर पर गुरु का अर्थ शिक्षक के रूप में लिया जाता है, जो अंग्रेजी के टीचर के समकक्ष है। परंतु प्राचीन भारतीय परम्पराओं में इसका अर्थ कहीं अधिक गहरा है। अद्वयतारक उपनिषद के श्लोक 16 में कहा गया है—‘गु’ का अर्थ है अंधकार, ‘रु’ वह जो अंधकार को दूर करता है। अंधकार को दूर करने की शक्ति के कारण ही गुरु को सद्गुरु नाम दिया गया है। वे आध्यात्मिक ज्ञान का अधिष्ठान होते हैं। सद्गुरु अपने शिष्य को जीवन के सबसे आधारिक एवं मौलिक तत्व ‘ब्रह्मतत्त्व’ का साक्षात्कार कराते हैं। पुरातन काल से ही इन्हीं आध्यात्मिक मार्गदर्शक के सम्मान में आषाढ़ मास की पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 21 जुलाई दिन रविवार को मनाया जाएगा।
गुरु-शिष्य का आध्यात्मिक रिश्ता
योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया/सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के संस्थापक और गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्दजी ने गुरु-शिष्य संबंध को ‘एक बहुत ही व्यक्तिगत एवं आध्यात्मिक संबंध अर्थात् शिष्य द्वारा निष्ठावान आध्यात्मिक प्रयास और गुरु के दिव्य आशीर्वाद का मिलन’ बताया है। वे आगे कहते हैं— ‘शिष्य गुरु के प्रति अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा करके गुरु की निष्ठा का प्रतिदान देता है।’
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार गुरु अपने शिष्य को जीवन के अन्तिम व सर्वोच्च लक्ष्य ‘ब्रह्मतत्त्व’ की ओर ले जाते हैं।
आत्मरूप में गुरु
एक शंका विचारणीय है कि गुरु के देह छोड़ने के बाद भी क्या वह मार्गदर्शन करते हैं। दरअसल, यह समझना जरूरी है कि गुरु आत्मरूप होते हैं, देह रूप नहीं। इसलिए गुरु-शिष्य संबंध भौतिक शरीर का संबंध नहीं होता। यह तो आत्मा का संबंध होता है। इस संबंध में श्री श्री परमहंस योगानंद जी कहते हैं—‘एक सच्चा गुरु सदैव जीवित रहता है, भले ही वह भौतिक शरीर में न हो। ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता से एकत्व के माध्यम से, एक सच्चा गुरु सदा शिष्य के प्रति जागरूक रहता है और निरंतर प्रेम और सुरक्षा के साथ उस पर दृष्टि रखता है।’
चमत्कार नहीं दिखाते
प्राचीन भारत में गुरु अपने शिष्यों से कभी भी धन-दौलत या और कोई दूसरी सुविधाओं की इच्छा नहीं रखते थे। परन्तु वर्तमान में शिष्य को धनहरणकारी गुरु तो बहुत मिल जायेंगे, परंतु संतापहरणकारी सद्गुरु दुर्लभ हैं। बहुत से संत-महात्मा चमत्कार प्रदर्शन कर अपना शिष्य बना लेते हैं और उन्हें सुनहरे भविष्य के सब्ज़बाग दिखाकर धन ऐंठते रहते हैं। ज्ञानावतार स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी कहा करते थे—‘आत्मदर्शी पुरुष कभी कोई चमत्कार नहीं करता, जब तक उसे अपने अंतर से उसके लिए आज्ञा नहीं मिलती। ईश्वर नहीं चाहते कि उनकी सृष्टि के रहस्यों को यत्र-तत्र सर्वत्र प्रकट किया जाये।’
गुरुओं का तुलनात्मक मूल्यांकन
आत्मसाक्षात्कार के इच्छुक साधकों को अपने गुरु के चयन में अत्यंत सावधान रहना चाहिए। एक कहावत है—‘गुरु कीजै जान, पानी पीजै छान’। गुरु के चयन में पर्याप्त जानकारी हो क्योंकि शिष्य को अपना भाग्य अपने गुरु के हाथ में छोड़ देना होता है। जब एक बार अपने लिए गुरु नियत हो गया तो फिर गुरु के जीवन को नहीं कुरेदना चाहिए। इससे गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति का अभाव होता है और शिष्य के साधन पथ से विचलित होने की संभावना रहती है। इस संदर्भ में परमहंस योगानन्द जी कहते हैं—‘अपनी आध्यात्मिक खोज की शुरुआत में विभिन्न आध्यात्मिक पथों एवं गुरुओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करना बुद्धिमानी है। जब आपके लिए नियत सद्गुरु आपको मिल जाए, जिनकी शिक्षाएं आपको अपने ईश्वरीय लक्ष्य तक पहुंचा सकती हैं, तब आपकी वह व्यग्र खोज बंद हो जानी चाहिए।’
सच्चा गुरु कौन
गुरु केवल देह नहीं है, बल्कि वह अपने शिष्य को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाने की दिव्य उपस्थिति है। भगवद्गीता में गुरु को ‘ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः’ कहा गया है। जिसका अर्थ है वे जिन्हें परम पुरुषोत्तम का पूर्ण बोध हो। हिन्दू धर्म शास्त्रों में सच्चे गुरु की योग्यता को इस प्रकार बताया गया है—‘जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त है, जो सदैव संतुष्ट, आत्म-संयमी और शुद्ध है। जो सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, जो सभी प्राणियों के प्रति निष्पक्ष है, जो सत्य-साधकों को उनकी जाति, रंग, वंश, पंथ, धर्म, राष्ट्रीयता से परे हटकर देखता है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, यश-अपयश में भी स्थिर रहता है, जो जीवन के उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होता।
आज्ञापालन और समर्पण
संत कबीर ने कहा है—
‘गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं। कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥’
शिष्य के लिए गुरु के उपदेशों का पालन और उनके मार्गदर्शन के आगे समर्पण आत्मसाक्षात्कार के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। आत्मसाक्षात्कार के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा अहंकार है। जो शिष्य आज्ञाकारिता के गुण को विकसित करते हैं, उनका अहंकार समाप्त हो जाता है। गुरु की आज्ञा का पालन करना कोई दासता नहीं है। गुरु-शिष्य संबंधों में तो शिष्य द्वारा गुरु की आज्ञा का पालन गुरु की उच्चतर आध्यात्मिक स्तर के अधीन होना है। परमहंस योगानन्द जी ने गुरु आज्ञापालन के विषय में लिखा—‘गुरु के ज्ञान के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए उनकी आज्ञा का पालन करना नितांत आवश्यक है। उनकी इच्छा स्वतंत्रता एवं मुक्ति प्रदान करती है। सच्चे गुरु ईश्वर के दास होते हैं, जो आपकी मुक्ति के लिए ईश्वर की योजनाओं को कार्यान्वित करते हैं। जब तक आपको परमात्म तत्त्व में संपूर्ण मुक्ति नहीं मिल जाती तब तक आज्ञा पालन जरूरी है।’ दरअसल, गुरु की इच्छाओं के प्रति पूर्ण समर्पण शिष्य के आत्मसाक्षात्कार के मार्ग को प्रशस्त करता है।
गुरु पाने का सौभाग्य
वह सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरु मिल गए हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है—‘बिनु हरिकृपा मिलहि नहि संता’। अर्थात् हरिकृपा से ही संतों के दर्शन होते हैं। सच्चे साधकों को प्रभु कृपा से सद्गुरु मिल ही जाते हैं।’ गुरु प्राप्त शिष्यों को चाहिए कि गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु के प्रति, श्रद्धा, कृतज्ञता और भक्ति प्रकट करें। उनका दिव्य आशीर्वाद लें। अपने गुरु के निर्देशों का पालन करने का संकल्प लें। गुरु से अपना दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करें। जिन्हें अभी तक गुरु नहीं मिले हैं, उन्हें आज के दिन आदि गुरु भगवान शिव या भगवान श्रीकृष्ण (कृष्णम वंदे जगद्गुरुम्) को गुरु मानकर गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाना चाहिए।