जरूरतों के दीर्घकालीन समाधान को मिले गारंटी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में विकसित भारत संकल्प यात्रा के लाभार्थियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से बातचीत करने के बाद कहा कि विधानसभा चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया कि मोदी की गारंटी में दम है। गारंटी से उनका आशय उस भरोसे से है, जो उनकी कार्यशैली से जुड़ा है। सिद्धांततः वे लोकलुभावन राजनीति के विरोधी हैं। पिछले साल एक सभा में उन्होंने कहा था कि लोकलुभावन राजनीति के नाम पर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की संस्कृति पर रोक लगनी चाहिए। वे यह बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में कह रहे थे, जहां आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही थी।
इसी रविवार को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक कार्यक्रम में कहा कि समाज में जिस तथाकथित मुफ्त उपहार की ‘अंधी दौड़’ देखने को मिल रही है, उसकी राजनीति खर्च करने संबंधी प्राथमिकताओं को विकृत कर देती है। बहरहाल, इन दिनों गारंटी शब्द इतना लोकप्रिय हो रहा है कि इस बार भाजपा ने छत्तीसगढ़ के लिए अपने घोषणापत्र को ‘मोदी की गारंटी’ नाम दिया। मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत के पीछे ‘लाड़ली बहना’ योजना का हाथ बताया जा रहा है। इस योजना के तहत मध्य प्रदेश सरकार महिलाओं को हर महीने 1,250 रुपये देती है।
मोदी की भाजपा ने ही नहीं, हाल ही में हुए चुनावों में कांग्रेस ने चार राज्यों में और तेलंगाना में बीआरएस ने भी गारंटियों की झड़ी लगा दी। इन वादों में एलपीजी सिलेंडर रिफिल पर भारी सब्सिडी, स्त्रियों को हर महीने धनराशि वगैरह-वगैरह शामिल हैं। इस साल मई में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे ‘पांच गारंटियों’ की बड़ी भूमिका थी। पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में गृह ज्योति, गृह लक्ष्मी, अन्न भाग्य, युवा निधि एवं शक्ति की पांच गारंटियां दी थीं। गृह ज्योति के तहत 200 यूनिट नि:शुल्क बिजली, गृह लक्ष्मी में परिवार की मुखिया को दो हजार रुपये, अन्न भाग्य में दस किलोग्राम अनाज, युवा निधि में बेरोजगार स्नातकों को तीन हजार और डिप्लोमाधारियों को डेढ़ हजार रुपये महीने, शक्ति योजना के तहत महिलाओं को राज्यभर में सरकारी बसों में नि:शुल्क यात्रा की सुविधा की गारंटी थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले पांच वर्षों के लिए 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की घोषणा करके ‘पोस्टडेटेड’ गारंटी दी है, यह मानते हुए कि 2024 में सरकार उनकी ही आएगी। यह योजना पहली बार अप्रैल, 2020 में महामारी के दौरान तीन महीने के लिए शुरू की गई थी। फिर इसे छोटी-छोटी अवधियों के लिए बढ़ाया गया। अब इसे एकमुश्त पांच साल के लिए बढ़ाने से एक बात की पुष्टि हुई है कि ये गारंटियां चुनावी सफलता की गारंटी हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में देश के 20 फीसदी निर्धनतम् परिवारों के लिए 72,000 रुपये की सालाना आय की गारंटी ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) लागू करने का वादा किया था।
आप कह सकते हैं कि इन गारंटियों में हर्ज ही क्या है? जनता का पैसा कल्याणकारी योजनाओं पर ही तो लग रहा है। हाल ही के वर्षों में केंद्र और राज्यों के राजस्व में काफी वृद्धि हुई है। फिर भी उनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे इस मुफ्तखोरी को लंबे समय तक चला सके। भारत के रिजर्व बैंक ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं। ‘स्टेट फाइनेंसेस : अ रिस्क एनालिसिस’ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धंसते जा रहे हैं। पर्याप्त संसाधनों का मतलब यह भी नहीं है कि उन्हें उड़ा दिया जाए, बल्कि दीर्घकालीन विकास से जुड़े कार्यक्रमों पर उन्हें लगाना चाहिए।
कल्याणकारी शब्द की भी व्याख्या होनी चाहिए। व्यावहारिक दृष्टि से जनता के लिए कल्याणकारी लाभ का मतलब है उसकी बुनियादी दिक्कतों का दूर होना। मसलन उसकी गरीबी, बेरोजगारी, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं का दीर्घकालीन समाधान। ऐसे दूरगामी कार्यक्रमों को अक्सर समझ पाना आसान नहीं होता, जबकि हाथ में नकदी आना, मुफ्त बिजली, अनाज या मुफ्त-यात्रा का सुख फौरन दिखाई पड़ता है। इन कार्यक्रमों की अलग-अलग श्रेणियां बनाई जाएं, तो उनके लाभ और हानियां भी सामने आएंगे। देखना यह भी होगा कि सरकारी खजाने में इन सब कार्यक्रमों को पूरा कर पाने की सामर्थ्य है भी या नहीं।
वादों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वादा किया था कि एक रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वादे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। राजनीति में गरीबनवाज़ की छवि जादू करती है। इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ ने 1971 में ऐसा जादू किया था। वर्ष 1985 में आंध्र विधानसभा के चुनाव में तेलुगु देशम् पार्टी के एनटी रामाराव ने दो रुपये किलो चावल देने का वादा किया। उन्हें चुनाव में ज़बर्दस्त सफलता मिली। भले ही चुनाव के बाद वहां आठ रुपये किलो चावल बिका, पर जादू तो चला। दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था।
सस्ते अनाज के वादे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वादों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया। वर्ष 2006 में द्रमुक के एम. करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वादा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिस पर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणापत्र में किए वादों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता।
तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वादे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वादे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। यह मसला अब भी सुप्रीम कोर्ट में किसी न किसी रूप में विचाराधीन है। दो साल पहले किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस बार भी चुनाव से पहले मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकारों की ओर से चुनाव के ठीक पहले की जा रही घोषणाओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गई थीं। अदालत भी यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर डाल देती है कि वे संसद और विधानसभाओं में जाकर ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ की परंपरा खत्म करने के लिए कानून बनाएं। क्या राजनीतिक दल इसके लिए तैयार होंगे। याद करें देश में मतदाता पहचान-पत्र और प्रत्याशियों के हलफनामों की व्यवस्था राजनीतिक दलों के विरोध के कारण काफी समय तक लटकी रही थी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।