प्रभावशाली-सुरक्षित भी हो जेनेरिक दवा
भारत को ‘दुनिया का दवाखाना’ कहा जाता है। भारत में बनी जेनेरिक दवाओं का निर्यात विश्वभर में होता है। 21वीं सदी के आरंभ तक देश में किसी दवा को पेटेंट उत्पाद के अनुसार न देकर उत्पादन प्रक्रिया के मुताबिक दिया जाता था। इससे भारतीय दवा उद्योग को पेटेंट का उल्लंघन करने का जोखिम उठाए बगैर दवाएं बनाने का मौका मिला। पहले से किसी और की बनी दवा के घटकों को खोजकर उत्पादन करने की स्वदेशी क्षमता का क्रमिक विकास होता चला गया। आज हम दुनिया में जेनेरिक दवाओं के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता हैं, खासकर एचआईवी और एड्स या फिर अन्य जीवन रक्षक वैक्सीन। चूंकि जेनेरिक दवाएं वह होती हैं जिसके घटक हू-ब-हू ब्रांडेड दवाओं वाले होते हैं, इसलिए असर भी समान होता है।
जेनेरिक दवाओं की वकालत करने के पीछे मुख्य कारण है, इनकी कम कीमत क्योंकि इनको बाजार में उतारने से पहले जानवरों या क्लीनिक में इंसानों पर प्रयोग वाली महंगी और अनिवार्य प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता। भाव में सस्ती होने के कारण विकासशील मुल्कों के लिए इनका बहुत महत्व है और इस तरह दुनिया का भला होता है। जब बात दवाओं की आए तो कहा जाता है कि गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। समाज में ऐसी धारणा भी है कि देश में उपलब्ध जेनेरिक दवाओं में कुछ घटिया हैं। क्या हैरानी इन चिंताओं के कारण मरीज जेनेरिक दवाओं से गुरेज करते हैं, इसलिए महंगी होने के बावजूद रुझान ब्रांडेड दवाओं की ओर है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण जन-औषधि दुकानों पर कम बिक्री है।
राष्ट्रीय दवा आयोग की हालिया अधिसूचना कि चिकित्सकों को केवल जेनेरिक दवाएं ही लिखकर देनी हैं, इसके पीछे मुख्य मंशा सही है। लेकिन इस फैसले ने उपलब्ध जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता वाले गंभीर विषय को भी आगे ला दिया है। चिकित्सकों की चिंताएं भी जायज हैं, जिसको मीडिया ने काफी प्रकाशित किया। राष्ट्रीय दवा आयोग ने जेनेरिक दवाएं लिखने की अनिवार्यता पर फिलहाल अमल न करने का निर्णय लेकर सही किया है। तथापि, जेनेरिक दवाओं की ओर केंद्रित हुआ ध्यान प्रासंगिक है। वास्तव में, जेनेरिक दवाओं का इस्तेमाल करवाने के पीछे उद्देश्य है कि रोगी का इलाज पर अपनी जेब से होने वाला खर्च घट सके और इसके लिए सरकार को गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक दवाएं सुनिश्चित करवाने के हरसंभव उपाय करने चाहिए।
हमारे मुल्क में नकली अथवा घटिया दवाएं होना, कमजोर नियामक तंत्र की वजह से है। ऐसी दवाओं के नतीजे में कई बार रोग में बहुत सी जटिलताएं पैदा हो जाती हैं। पिछले साल, पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ में भी ऐसे कई मामले हुए, एक उत्पादक की बनी प्रोपोफोल दवा से मौत तक हुई। गाम्बिया नामक देश में कुछ बच्चों की मौत का संबंध भारत से गई खांसी की दवा से जोड़ा गया है, इससे भारत की ‘दुनिया की दवा-धुरी’ साख को बट्टा लगा है। घटिया दवाओं से मरीज पर जो बन आती है, उसमें स्वास्थ्य में वांछित सुधार न आना और यहां तक कि रोगी में दवा विशेष के लिए प्रतिरोधकता तक पैदा हो जाती है और यह बहुत गंभीर चिंता का विषय है। प्रभावशाली नियामक तंत्र के अभाव में, कुछ दवा निर्माता लागत में पैसा बचाने के नाना तरीके अपनाते हैं और स्थापित अंतर्राष्ट्रीय उत्पादन मानकों का पालन करने से बचते हैं। हर मामले में भले ही मिलावट और बेईमानी वाले तरीके न भी बरते गए हों, लेकिन लापरवाही और नियमों की अनदेखी करते अकसर पाया जाता है। घटिया दवाएं (चाहे यह संदूषित हो या कम गुणवत्ता वाली) अकसर कोताही या फिर उत्पादन प्रक्रिया में जान-बूझकर कुछ गलत करने का परिणाम है। यह कृत्य कतई अस्वीकार्य है और कड़े से कड़े रूप में इसकी भर्त्सना होनी चाहिये।
सबको अच्छी तरह मालूम है कि अमेरिका और यूरोपियन मुल्कों में जेनेरिक दवा को बतौर एक विकल्प तभी मंजूरी मिलती है, जब वे ब्रांडेड दवाओं जितनी प्रभावशाली और सुरक्षित पाई जाएं। वहां किसी जेनेरिक दवा को मंजूरी पाने के लिए सख्त अवलोकन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अमेरिका का ड्रग एंड फूड एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) विभाग तो दवा उत्पादन कारखानों का निरीक्षण तक करता है ताकि सुनिश्चित हो सके कि दवाएं सर्वोत्तम मानकों की पालना करके बनाई जा रही हैं। इससे मरीज का जेनेरिक दवाओं पर पूरी तरह भरोसा बनता है। आकंड़े खुद बताते हैं– आईएमएस संस्थान के मुताबिक जेनेरिक दवाओं ने 2009-19 के बीच दस सालों में अमेरिकी स्वास्थ्य तंत्र के लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर बचाए।
इससे सबक लेते हुए हमें अपना नियामक तंत्र मजबूत करना चाहिए। जब तक सख्त गुणवत्ता नियंत्रण प्रणाली स्थापित नहीं हो जाती और गुणवत्ता मानकों का पालन सुनिश्चित न हो तब तक दवाएं कम असरकारक और उनसे रोगी में गंभीर संलग्न जटिलताएं पैदा होने का दोहरा खतरा बना रहेगा। हमारी उत्पादन निर्देशावली का पुनरावलोकन और प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करवाने की फौरन जरूरत है। इसके लिए पूरी तरह प्रशिक्षित व्यावसायिक जांचकर्ताओं से सज्जित परीक्षण शालाओं वाला यथेष्ट तंत्र सुनिश्चित करना होगा। वैधानिक एवं अन्य सुरक्षा मानकों के पालन के लिए कड़ी निगरानी अहम होगी। कानूनी एवं नियामक तंत्र इस तरह बनाया जाए जो कि दवा निर्माताओं में स्व-पालन और स्व-नियंत्रण को प्रोत्साहित करे और ठीक इसी वक्त उल्लंघनकर्ताओं या गलत आचरण करने वालों पर कड़ी दंडात्मक कार्रवाई की शक्ति भी उसके पास हो। भारत में दवाओं की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए जिम्मेवार केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) को और मजबूत एवं शक्तिशाली बनाना होगा।
हमारे दवा संबंधी चेतावनी तंत्र एवं दवा-निगरानी कार्यक्रम को भी सुदृढ़ करने की जरूरत है। ये तरीके बिक्री उपरांत दवाओं को सुरक्षित बनाने के हैं। किसी दवा के बारे में चेतावनी मिलते ही अगली कार्रवाई के तौर पर दवा-विक्रेताओं से इन्हें फौरन हटवाने के साथ शीघ्रातिशीघ्र चेतावनी पूर्ण संदेश लोगों तक पहुंचाने वाली व्यवस्था हो।
एक बार गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक दवाएं उपलब्ध होने के बाद, सरकार दवा-निर्माताओं से कहे कि आइंदा ब्रांडेड दवाएं बाजार में न उतारें। दवा उत्पादकों को अपने बिक्री संबंधी प्रचार खर्च के बजट में कटौती करते हुए अनुसंधान एवं विकास के अलावा गुणवत्ता नियंत्रण पर अधिक धन लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सीडीएससीओ को गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक दवाओं की उपलब्धतता सुनिश्चित करने लिए कमर कसनी होगी। एक बार यह व्यवस्था बन जाए, तब राष्ट्रीय दवा आयोग का आदेश सही मायने में स्वागतयोग्य है।
लेखक पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़ के पूर्व निदेशक हैं।