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चार वेदों जैसा पुण्य मिलता है गायत्री मंत्र से

06:43 AM Aug 19, 2024 IST

ज्ञान के चतुर्थ भेद ‘अथर्व’ का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘अर्थववेद’ में माता गायत्री की स्तुति करते हुए उन्हें आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली ‘देवी’ बताया गया है।

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चेतनादित्य आलोक
सृष्टि में मौजूद ‘ज्ञान’ के चार भेद अथवा क्षेत्र होते हैं- ऋक‌्, यजुः, साम और अथर्व। इनमें ऋक‌् कल्याण, यजुः पौरुष, साम क्रीड़ा तथा अथर्व अर्थ का प्रतीक बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऋक‌्, यजुः, साम और अथर्व क्रमशः कल्याण, पौरुष, क्रीड़ा एवं अर्थ यानी अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह शास्त्र सम्मत है कि संपूर्ण सृष्टि में पाये जाने वाले सभी प्राणियों की समस्त ज्ञान-धारा तथा समष्टि की समस्त चेतना ज्ञान के इन्हीं चारों क्षेत्रों में परिभ्रमण करती रहती हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के ज्ञान को ही शास्त्रों में वेदों के रूप में अभिहित किया गया है। शास्त्र बताते हैं कि हमारे चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के आरंभ में उत्पन्न की गयी उस महान चैतन्य शक्ति के स्फुरण से प्रकट हुए थे, जिन्हें ऋषि, महर्षि और ज्ञानीजन ‘गायत्री’ के नाम से संबोधित करते हैं। तात्पर्य यह कि ब्रह्मा जी के मुख से ‘गायत्री मंत्र’ निःसृत हुआ और गायत्री मंत्र से वेदों की उत्पत्ति हुई। यही कारण है कि हमारे पूर्वज शास्त्रकारों ने देवी ‘गायत्री’ को ‘माता’ एवं जननी तथा ‘चारों वेदों’ को उनके ‘पुत्र’ के रूप में स्वीकार किया है।
ब्रह्मा जी के मुख से निःसृत होने के कारण माता गायत्री का एक नाम ब्रह्माणी भी है। ज्ञान-विज्ञान की देवी होने के कारण ये ब्राह्मणों की आराध्या देवी मानी गयीं। इनका एक नाम ‘परब्रह्मस्वरूपिणी’ भी है। हिंदू संस्कृति के आधार ग्रंथ वेदों का प्राकट्य माता गायत्री से होने के कारण इन्हें ‘हिंदू संस्कृति की जननी’, समस्त ‘वेदों का सार’ तथा ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आराध्या देवी होने के कारण सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए यह ‘देवमाता’ भी हैं। इनके अतिरिक्त समस्त ज्ञान की देवी होने के कारण इन्हें ‘ज्ञान-गंगा’ की उपाधि से भी विभूषित किया गया है। गौरतलब है कि ज्ञान के चतुर्थ भेद ‘अथर्व’ का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘अर्थववेद’ में माता गायत्री की स्तुति करते हुए उन्हें आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली ‘देवी’ बताया गया है।
हमारे शास्त्रों, ऋषि-मुनियों एवं महापुरुषों ने गायत्री मंत्र की महिमा का उल्लेख किया है। महर्षि विश्वामित्र का कथन है- ‘गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप आदि गायत्री मंत्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।’ महाभारत आदि अनेक ग्रंथों के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने गायत्री मंत्र की महिमा बताते हुए कहा है- ‘जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का सार घी है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री मंत्र है।’ इस प्रकार अत्रि, उद्यालक, श्रृंगी, पाराशर, चरक, भारद्वाज, शंख एवं याज्ञवल्क्य समेत प्रायः सभी ऋषि-मनीषियों एवं महर्षियों ने गायत्री मंत्र की महिमा का गुणगान किया है। वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों, पुराणों और स्मृतियों समेत सभी धर्मग्रंथों में गायत्री मंत्र की महिमा का विषद् वर्णन मिलता है।
माता गायत्री के पांच मुख और दस हाथ दर्शाये गये हैं, जो हिंदू संस्कृति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। माता के चार मुख चारों वेदों के प्रतीक माने जाते हैं, जबकि उनका पांचवा मुख सर्वशक्तिमान ‘शक्ति’ का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं माता के दस हाथ भगवान विष्णु के दस अवतारों के प्रतीक हैं। यह शास्त्र सम्मत है कि चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद व्यक्ति को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह केवल गायत्री मंत्र को अंगीकार कर लेने से ही प्राप्त हो जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार यह गायत्री मंत्र आरंभ में सिर्फ देवी-देवताओं तक ही सीमित था। इसलिए सिर्फ वे ही इसका उपयोग कर सकते थे, लेकिन महर्षि विश्वामित्र की अत्यंत कठोर साधना के उपरांत यह परम कल्याणकारी गायत्री मंत्र सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो पाया।
माता गायत्री का उद्भव सावन पूर्णिमा के दिन होने के कारण प्रत्येक वर्ष ‘सावन पूर्णिमा’ को देश भर में ‘गायत्री जयंती’ का आयोजन उत्सव के रूप में किया जाता है। इस दिन माता गायत्री की विशेष पूजा-अर्चना करने का विधान है, जिसके बाद गायत्री मंत्र का जप करना उत्तम होता है। अंत में माता गायत्री की आरती करनी चाहिए। गायत्री मंत्र इस प्रकार है ः-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात‌्।

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