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बागवान के अरमान

08:07 AM Oct 13, 2024 IST
बागवान के अरमान
राजेंद्र राजन ‘बाबू जी फागणू राम की हालत नाजुक है। आप जल्दी से बगीचे में पहुंच जाओ।’ जनकू राम का फोन था। मैं घबरा गया। ‘भई जनकू कोई टैक्सी करो या फिर एम्बुलेंस को फोन कर बुलाओ। मैं तो दो सौ किलोमीटर दूर हूं।’ ‘बाबू जी आप शिमला में नहीं हैं?’ ‘हां। वैसे हुआ क्या है बहादुर को?’ ‘उसका दिल बैठ गया था। बगीचे से दो किलोमीटर की चढ़ाई है। गांव में देवता आया हुआ है। कोई नहीं है अपणे घर। मैं पीठ पर लादकर उसे कैसे सड़क तक पहुंचाऊं?’ ‘तुम समझते क्यों नहीं। अगर मैं टैक्सी भी करूंगा तो पांच घण्टे लगेंगे मुझे पहुंचने में। तू मेरा पड़ोसी है। दिन-रात उससे मुफ्त में काम करवाता था तू अपणी जमीन पर। पड़ोसी होने का फर्ज तो निभा। किसी तरह उसे आईजीएमसी पहुंचा। एमरजेंसी में।’ एक घण्टे बाद जनकू का फिर फोन आया, ‘फागणू तो चल बसा। कैंची मोड़ के पास उसकी लाश पड़ी है। एक किलोमीटर तक तो मैं पीठ पर लाद कर ले आया था। अब क्या करूं?’ मुझे काटो तो खून नहीं। बहादुर। यानी फागणू राम। मेरा नौकर। मेरे बगीचे का केयरटेकर चल बसा। पलक झपकते ही। मैंने साहस बटोर कर कांपते हाथों से जनकू को फोन लगाया, ‘अभी ग्यारह बजे हैं।’ अगर मैंने टैक्सी भी हायर की तो पांच छह बज जायेंगे। तब तक क्या लाश जंगल में पड़ी रहेगी। तुम लोगों में जरा भी दया-भाव है कि नहीं। उसके क्रिमेशन का प्रबन्ध करो। पंचायत प्रधान, वार्ड मेम्बर्स को इतला करो। और हां, देखो फागणू की कोठरी में उसके टीन के बक्से में उसके किसी रिश्तेदार का पता ढूंढ़ो।’ ‘बाबू जी। आप तो हुक्म पे हुक्म दिये जा रहे हैं। मेरे पास क्या कोई जादू की छड़ी है। अन्तिम संस्कार क्या कोई खेल है? कफन के साथ कितना सामान लगता है। लकड़ियों का प्रबन्ध कहां से कैसे होगा? आपका नौकर या। अपणी जिम्मेदारी समझो। मैं तो चला अपणे घर। रात-बरात में कोई जंगली जानवर लाश को चट कर गया तो मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।’ ‘फागणू की लाश की अंत्येष्टि पर जो भी खर्च होगा मैं दे दूंगा। तू इंतजाम तो कर...’ उसके बाद जनकू ने मेरा फोन सुनना ही बन्द कर दिया। असमंजस, कोई मुनासिब फैसला न ले पाने के तनाव, घबराहट ने मुझे गिरफ्त में ले लिया था। करूं तो क्या करूं? पहाड़ के लोगों के बारे, में खासकर दूरदराज गांवों में रहने वालों के बारे में आम धारणा या अवधारणा थी कि वे रहमदिल इनसान होते हैं। सुख-दु:ख में मर मिटने के लिये तैयार हो जाते हैं। आज यह मिथक ध्वस्त हो चुका था? मुझे याद आया साल 1992 में जब मैंने उस गांव में पांच बीघे का वह बगीचा खरीदा था तो लगा था गांव वालों का व्यवहार दोस्ताना होगा। लेकिन उन्हें तो मानों सांप सूंघ गया था। वे तीस साल तक मुझे बाहरी शख्स ही मानते रहे। मेरे पड़ोसी जनकू राम का किरदार मुझे अक्सर कुछ यूं लगता था जैसे मंुह में राम-राम और बगल में छुरी। मुझे याद है एक बार उसने कितनी चतुराई से मुझे लपेटा था, ‘बाबू जी कुफरी में मेरे बेटे के दो घोड़े हैं। डेढ़ दो हजार घोड़ों की भीड़ में कभी-कभार ही कोई टूरिस्ट मिल पाता है। उस पर सर्दियों में तो मन्दा ही मन्दा है। अगर आपकी रज़ामन्दी हो तो जो आपके बगीचे में कई खेत खाली पड़े हैं, उनमें बन्द गोभी बीज दूं? दो चार बोरी आप भी ले जाणा बाल बच्चों के लिये...’ मैंने दरियादिली का सबूत पेश करते हुए कहा, ‘ठीक है तुम मेरे सेब के पौधों की देखभाल कर देणा। तौलिये, गोबर, प्रूनिंग, स्प्रे का जिम्मा ले लो...’ जी बाबू जी। क्यों नहीं। फिर लगा लेणा गोभी।’ मैंने हंसी-ठिठोली करते हुए कहा था, ‘पर तू अगर मेरी ज़मीन पर काश्त करते-करते मालिक बण बैठा तो...?’ ‘बाबू जी कैसी बात करते हो। कायदा-कानून भी कोई चीज है कि नहीं। मुजारे के मालिक बनणे का ज़माना बीत चुका। आप चाहो तो स्टाम्प पेपर पर एग्रीमेन्ट लिखवा लो... और हां ज़मीन में फसल पैदा होती रहे तो ही उसकी बैल्यू है...’ ‘अरे छोड़ न स्टाम्प पेपर की पेशकश। बीज ले बन्द गोभी...’ जनकू को मैंने कुछ यूं फरमान सुणाया था मानो मैं किसी सल्तनत का महाराज हूं और वो किसी असहाय फरियादी-सा मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हो... जनकू दो साल तक मेरे बगीचे की खाली ज़मीन पर सब्जियां उगाता रहा। लेकिन सेब के पौधों की देखभाल के लिये टालमटोल करता रहा। कितनी सफाई से वह मुझे मूर्ख बना गया था। इसी वजह से काफी तलाश के बाद मुझे एक बेहद ईमानदार नेपाली बहादुर मिल गया था। बगीचे में दो कमरों का एक पुराना कच्चा-सा मकान भी था। वहीं रहने लगा था फागणू। मैं टैक्सी लेकर शिमला के लिये निकल चुका था। फागणू राम की लाश को यूं लावारिस छोड़ना मुझे कतई नामंजूर था। सब मेरा मजाक उड़ायेंगे। केयरटेकर तो रख लिया। मगर उसे मरने के लिये छोड़ दिया। बारह बजे मैं अपने गांव से निकल गया था। पांच छह बजे तक पहुंच ही जाऊंगा। इस बीच मैंने पंचायत प्रधान को फोन पर लताड़ दिया, ‘तुम्हारी पंचायत के लोगों की आत्मा मर चुकी है क्या? मैं दो सौ किलोमीटर दूर हूं। टैक्सी लेकर शिमला पहुंच रहा हूं। बहादुर मर गया है। तुम लोग उसका किरिया-करम नहीं कर सकते। जो भी खर्चा आयेगा मैं दे दूंगा।’ ‘बाबू जी। सब साले हराम के बीज हैं। आपके गांव में। एक मास्टर सीता राम है। उसने चियोग से देवता को बुला रखा है अपणे घर। उसके बच्चे का मुंडन संस्कार है। सारा गांव नाच-गाणे में मस्त है।’ ‘प्रधान जी। मैंने तुम्हारी पंचायत के लिये क्या-क्या काम नहीं करवाए। अपनी रिटायरमेन्ट से पहले। लाखों का बजट तुम्हें दिलाया... जब मैं घोर संकट में हूं तो तुम लोग अपणी जिम्मेदारी से मुंह फेर रहे हो... शरम आणी चाहिए तुम लोगों को...’ मैंने फोन काट दिया तो जनकू का फोन आ गया।’ बाबू जी मुआफ करना। मैंने फागणू के कमरे की तलाशी ली। कपड़े लत्ते संदूकड़ी को खंगालने के बाद फागणू राम के भतीजे का फोन नम्बर मिला। ठियोग में रहता है। उसको फोन पर उसके चाचे की डेथ की इनफरमेशन दे दी है। वो पहुंच रहा है... मैंने पिकअप वाले से भी बात कर ली है। बारह सौ रुपये लेगा संजौली श्मशान घाट पहुंचाणे के। आप संजौली के श्मशान घाट पर ही मिलणा। पिकअप के ड्राइवर को बारह सौ केश पेमेंट कर देणा।’ उम्मीद की किरण जगते ही मेरी सांस में सांस आयी। आखिर जनकू राम को मुझ पर दया आयी या उस बूढ़े, खूसट और जर्जर काया वाले फागणू पर जिसके कमरे में हर रोज़ बैठकर वह पऊआ गटक लेता था। टैक्सी ड्राइवर खूब रफ्तार से कार दौड़ा रहा था। अब मुझे गन्तव्य पर पहुंचने की ज़ल्दबाज़ी नहीं थी। अब मैं संजौली के श्मशानघाट पहुंचूंगा। फागणू का शव लेकर उसका भतीजा भी वहीं मिलेगा। ‘साहब। आप कुछ परेशान लग रहे हैं। माथे पर पसीना है। दिसम्बर है। आपने स्वैटर जैकेट भी पहन रखे हैं। सब ठीक तो है न...’ ‘हां। वो मेरा एक सर्वेन्ट था। सेब के बगीचे की देखभाल करता था। दो घंटे पहले गुजर गया। उसी वजह से परेशान हूं...।’ ‘साहब ये सब ऊपर वाले की माया है। अच्छा आदमी रहा होगा... शायद तभी आप इतने फिक्रमन्द हैं।’ ‘...हां, उसकी अच्छाई की चर्चा तो पूरे गांव में थी... पर तुम ड्राइविंग पर ध्यान दो...’ ड्राइवर ने चुप्पी साध ली। फागणू का इस दुनिया में कोई नहीं था। बोलता था, दिन भर सेब के पौधों की रखवाली करेगा... बन्दर, लंगूर पौधों की नरम छाल को छील-छील कर हजम कर जाते हैं... चौकीदारी जरूरी है...’ फागणू का दयनीय, निरीह मासूम-सा चेहरा, ठूंठ-सी काया देखकर मेरा दिल पसीज गया था। ‘कितणे पैसे लेगा?’ ‘पांच हजार महीना।’उसकी आंखों मैं याचना भाव था।’ ‘चार मिलेंगे।’ वो राजी हो गया। उसे ठौर-ठिकाना क्या मिला, चन्द रोज़ में ही मुझ पर हावी होने लगा, ‘साब जी। ये सारे गांव वाले कमीन जात हैं। आपके मुंह पर आपसे ही-ही... करते हैं। पीठ पीछे बुरा-भला कहते हैं। आप चाहे सारी दौलत इन पर लुटा देणा, ये कभी आपके नहीं होंगे।’ ‘क्यों बेकार की बातें करता है तू। मुझे किसी से कोई रिश्ता जोड़ना है क्या? हां, तू कह रहा था बन्द गोभी बीजेगा। देसी राजमाह पैदा करेगा, फ्रासबीन लगायेगा...’ सब होगा। साब जी।’ दो महीने बाद बगीचे पर गया तो खेत हरी-भरी सब्जियों से लहलहा रहे थे। बोला, ‘साब जी, वो जनकू राम घास मांग रहा था। मैंने मना कर दिया।’ ‘मैं स्तब्ध। नौकर है या मालिक? बीस साल से जनकू राम बरसात में पैदा होने वाले घास को काट रहा था, ‘बगीचे की साफ-सफाई, कंटीली झाडि़यों को काटना जरूरी है तभी तो फले-फूलेंगे सेब के पौधे। ज़मीन की साफ-सफाई के बदले घास ही तो ले रहा हूं। मजूरी तो मांग नहीं रहा।’ जनकू ने तर्क दिया था। ‘तूने जनकू को घास के लिये क्यों मना किया। वो तो बीस साल से मुफ्त में काट रहा है।’ ‘साब जी। आप सीधे तो हो ही। बेवकूफ भी हो। मैंने बिमला से बात की है। दूसरे गांव से आयी थी। घास खरीदने, सर्दियों में अगर घास न मिले तो उसकी गाय भूखी मर जायेगी। पांच हजार पकड़ा गयी है। ये लो घास के पैसे।’ फागणू ने पांच हजार के मैले-कुचैले नोट मेरे हाथ में रख दियेे। मैं उसकी बला की समझ-बूझ से अभिभूत-सा हो गया। कलियुग में ऐसा ईमानदार केयरटेकर? ‘साब जी। ये जनकू राम एक नम्बर का चोर। आपका कीमती घास मुफ्त में हजम करता रहा। एक लाख का चूना लगा गया आपको बीस बरस में। आप इसकी मीठी-मीठी बातों में आकर उल्लू बने रहे।’ इस साल दिवाली से पहले मैं फागणू के लिये मिठाई, अपना पुराना कोट, स्वैटर लेकर गया। उसके चेहरे पर आत्मीयता बोध, खुशी की बला की चमक थी। ‘ये रहे आपके राजमाह।’ उसने दस-बारह किलो की थैली मेरे सामने रख दी। मैं तब दंग रह गया जब उसने बन्द गोभी की बिक्री के बाईस हजार मेरे हाथों में थमा दिये। सारे खर्चे निकालकर बिक्री के यही पैसे मिले। बेमिसाल ईमानदारी, कर्तव्य बोध और उसके लगाव ने मुझे रुला दिया, ‘यू आर ए ग्रेट सोल फागणू।’ उसके मैले-कुचैले कपड़ों से आज मुझे दुर्गंध की बजाय अपने बगीचे की सौंधी मिट्टी की महक महसूस हुई थी। ठीक पांच बजे मैं संजौली पहुंच गया था। टैक्सी ड्राइवर को तीन हजार अदा कर मैं पैदल ही श्मशान घाट की ओर चल पड़ा। इस दरम्यान मैंने एक दुकान से कफन का कपड़ा, हवन सामग्री आदि छोटा-मोटा सामान खरीद लिया था। ‘श्मशान घाट के प्रमुख द्वार पर जब मैं पहुंचा तो चन्द कदमों के फासले पर पिकअप वैन और उसके साथ खड़े तीन-चार लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। अजनबी थे। उनमें जनकू राम था, गांव का कोई भी आदमी नहीं था।’ ‘आप...?’ मेरे पास चालीस साल के आसपास उम्र का एक लड़का आया। बुझा-बुझा सा चेहरा लिये हुए। ‘जी मैं डीके। देवेन्द्र कुमार।’ ‘आप ही के यहां नौकर था मेरा चाचा।’ ‘जी... चार साल से... बहुत ही नेकदिल इनसान था फागणू...’ मेरी आंखें भर आयीं। लाश को नीचे उतार कर दाह-संस्कार स्थल के पास रख दिया गया। पिकअप के ड्राइवर ने मेरे कान में फुसफसाया, ‘सर जी वो बारह सौ रुपये...’ मैंने तुरन्त रकम अदा कर राहत की सांस ली। फागणू राम का भतीजा बोला, ‘कमीनेपन पर उतर आया, सोलह सौ रुपये मांग रहा है श्मशानघाट का केयरटेकर, चिता की लकड़ी के। तुम फिक्र मत करो... सर, लकड़ियां गीली हैं। दोपहर को हल्की बारिश हुई थी... पेट्रोल लाना पड़ेगा... फागणू के भतीजे के एक दोस्त के पास कार थी। वो मुझे पेट्रोल पम्प ले गया। मैंने दो बड़ी कैनियों में पेट्रोल भरवा लिया। छह सौ देकर।’ मैं काफी देर चिता के करीब बैठा रहा। ‘ठीक है। तुम लोग देख लेना। मैं थक गया हूं। कोई कमरा देखता हूं। किसी होटल में रात के लिये।’ ‘मैं चाचा की लाश गाड़ी में रखने से पहले कोठरी में गया था। सन्दूकची का ताला तोड़ा। उसमें एक कागज़ में लिपटे मुझे बतीस हजार रुपये मिले। अपनी किरया करम का बन्दोबस्त खुद ही कर गया था... चाचा।’ हे ईश्वर! मेरे चार हजार से हर महीने बचत कर फागणू राम ने बड़ी राशि जोड़ रखी थी। उसके तथाकथित भतीजे की तो लाटरी लग गयी थी। खुदा जाने वो सच में फागणू का सगा है भी या कोई बहरूपिया? ‘इतने ज्यादा?’ मैं विस्फारित नेत्रों से उसे देखता रहा। ‘कोई बैंक खाता तो नहीं खुलवाया था आपणे मेरे चाचा का? उसमें भी कुछ पैसे मिल सकते हैं।’ भतीजे की सवालिया निगाहें मेरी और उठीं। ‘नहीं। क्रोध से मेरी आंखों में शोले भड़कने लगे। दिल हुआ फागणू के भतीजे को एक जोरदार झापड़ रसीद कर कहूं, ‘यू बास्टर्ड... अपने चाचा की लाश में भी मुनाफा खोज रहा है...?’ पर यह मेरा महज़ ख्याली पुलाव था। मैं श्मशानघाट से संजौली की ओर जाने वाले रास्ते पर तेजी से डग भरने लगा। मुझे लगा फागणू की चिता से उठने वाली लपटें मेरा पीछा कर रही हैं और वो मुझसे मुखातिब है, ‘साब जी आप ताउम्र सीधे ही रहे...।’
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राजेंद्र राजन

‘बाबू जी फागणू राम की हालत नाजुक है। आप जल्दी से बगीचे में पहुंच जाओ।’ जनकू राम का फोन था। मैं घबरा गया।
‘भई जनकू कोई टैक्सी करो या फिर एम्बुलेंस को फोन कर बुलाओ। मैं तो दो सौ किलोमीटर दूर हूं।’
‘बाबू जी आप शिमला में नहीं हैं?’
‘हां। वैसे हुआ क्या है बहादुर को?’
‘उसका दिल बैठ गया था। बगीचे से दो किलोमीटर की चढ़ाई है। गांव में देवता आया हुआ है। कोई नहीं है अपणे घर। मैं पीठ पर लादकर उसे कैसे सड़क तक पहुंचाऊं?’
‘तुम समझते क्यों नहीं। अगर मैं टैक्सी भी करूंगा तो पांच घण्टे लगेंगे मुझे पहुंचने में। तू मेरा पड़ोसी है। दिन-रात उससे मुफ्त में काम करवाता था तू अपणी जमीन पर। पड़ोसी होने का फर्ज तो निभा। किसी तरह उसे आईजीएमसी पहुंचा। एमरजेंसी में।’
एक घण्टे बाद जनकू का फिर फोन आया, ‘फागणू तो चल बसा। कैंची मोड़ के पास उसकी लाश पड़ी है। एक किलोमीटर तक तो मैं पीठ पर लाद कर ले आया था। अब क्या करूं?’
मुझे काटो तो खून नहीं। बहादुर। यानी फागणू राम। मेरा नौकर। मेरे बगीचे का केयरटेकर चल बसा। पलक झपकते ही।
मैंने साहस बटोर कर कांपते हाथों से जनकू को फोन लगाया, ‘अभी ग्यारह बजे हैं।’ अगर मैंने टैक्सी भी हायर की तो पांच छह बज जायेंगे। तब तक क्या लाश जंगल में पड़ी रहेगी। तुम लोगों में जरा भी दया-भाव है कि नहीं। उसके क्रिमेशन का प्रबन्ध करो। पंचायत प्रधान, वार्ड मेम्बर्स को इतला करो। और हां, देखो फागणू की कोठरी में उसके टीन के बक्से में उसके किसी रिश्तेदार का पता ढूंढ़ो।’
‘बाबू जी। आप तो हुक्म पे हुक्म दिये जा रहे हैं। मेरे पास क्या कोई जादू की छड़ी है। अन्तिम संस्कार क्या कोई खेल है? कफन के साथ कितना सामान लगता है। लकड़ियों का प्रबन्ध कहां से कैसे होगा? आपका नौकर या। अपणी जिम्मेदारी समझो। मैं तो चला अपणे घर। रात-बरात में कोई जंगली जानवर लाश को चट कर गया तो मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।’
‘फागणू की लाश की अंत्येष्टि पर जो भी खर्च होगा मैं दे दूंगा। तू इंतजाम तो कर...’ उसके बाद जनकू ने मेरा फोन सुनना ही बन्द कर दिया।
असमंजस, कोई मुनासिब फैसला न ले पाने के तनाव, घबराहट ने मुझे गिरफ्त में ले लिया था। करूं तो क्या करूं? पहाड़ के लोगों के बारे, में खासकर दूरदराज गांवों में रहने वालों के बारे में आम धारणा या अवधारणा थी कि वे रहमदिल इनसान होते हैं। सुख-दु:ख में मर मिटने के लिये तैयार हो जाते हैं। आज यह मिथक ध्वस्त हो चुका था? मुझे याद आया साल 1992 में जब मैंने उस गांव में पांच बीघे का वह बगीचा खरीदा था तो लगा था गांव वालों का व्यवहार दोस्ताना होगा। लेकिन उन्हें तो मानों सांप सूंघ गया था। वे तीस साल तक मुझे बाहरी शख्स ही मानते रहे।
मेरे पड़ोसी जनकू राम का किरदार मुझे अक्सर कुछ यूं लगता था जैसे मंुह में राम-राम और बगल में छुरी। मुझे याद है एक बार उसने कितनी चतुराई से मुझे लपेटा था, ‘बाबू जी कुफरी में मेरे बेटे के दो घोड़े हैं। डेढ़ दो हजार घोड़ों की भीड़ में कभी-कभार ही कोई टूरिस्ट मिल पाता है। उस पर सर्दियों में तो मन्दा ही मन्दा है। अगर आपकी रज़ामन्दी हो तो जो आपके बगीचे में कई खेत खाली पड़े हैं, उनमें बन्द गोभी बीज दूं? दो चार बोरी आप भी ले जाणा बाल बच्चों के लिये...’
मैंने दरियादिली का सबूत पेश करते हुए कहा, ‘ठीक है तुम मेरे सेब के पौधों की देखभाल कर देणा। तौलिये, गोबर, प्रूनिंग, स्प्रे का जिम्मा ले लो...’ जी बाबू जी। क्यों नहीं। फिर लगा लेणा गोभी।’ मैंने हंसी-ठिठोली करते हुए कहा था, ‘पर तू अगर मेरी ज़मीन पर काश्त करते-करते मालिक बण बैठा तो...?’
‘बाबू जी कैसी बात करते हो। कायदा-कानून भी कोई चीज है कि नहीं। मुजारे के मालिक बनणे का ज़माना बीत चुका। आप चाहो तो स्टाम्प पेपर पर एग्रीमेन्ट लिखवा लो... और हां ज़मीन में फसल पैदा होती रहे तो ही उसकी बैल्यू है...’
‘अरे छोड़ न स्टाम्प पेपर की पेशकश। बीज ले बन्द गोभी...’ जनकू को मैंने कुछ यूं फरमान सुणाया था मानो मैं किसी सल्तनत का महाराज हूं और वो किसी असहाय फरियादी-सा मेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हो...
जनकू दो साल तक मेरे बगीचे की खाली ज़मीन पर सब्जियां उगाता रहा। लेकिन सेब के पौधों की देखभाल के लिये टालमटोल करता रहा। कितनी सफाई से वह मुझे मूर्ख बना गया था। इसी वजह से काफी तलाश के बाद मुझे एक बेहद ईमानदार नेपाली बहादुर मिल गया था। बगीचे में दो कमरों का एक पुराना कच्चा-सा मकान भी था। वहीं रहने लगा था फागणू।
मैं टैक्सी लेकर शिमला के लिये निकल चुका था। फागणू राम की लाश को यूं लावारिस छोड़ना मुझे कतई नामंजूर था। सब मेरा मजाक उड़ायेंगे। केयरटेकर तो रख लिया। मगर उसे मरने के लिये छोड़ दिया। बारह बजे मैं अपने गांव से निकल गया था। पांच छह बजे तक पहुंच ही जाऊंगा। इस बीच मैंने पंचायत प्रधान को फोन पर लताड़ दिया, ‘तुम्हारी पंचायत के लोगों की आत्मा मर चुकी है क्या? मैं दो सौ किलोमीटर दूर हूं। टैक्सी लेकर शिमला पहुंच रहा हूं। बहादुर मर गया है। तुम लोग उसका किरिया-करम नहीं कर सकते। जो भी खर्चा आयेगा मैं दे दूंगा।’
‘बाबू जी। सब साले हराम के बीज हैं। आपके गांव में। एक मास्टर सीता राम है। उसने चियोग से देवता को बुला रखा है अपणे घर। उसके बच्चे का मुंडन संस्कार है। सारा गांव नाच-गाणे में मस्त है।’
‘प्रधान जी। मैंने तुम्हारी पंचायत के लिये क्या-क्या काम नहीं करवाए। अपनी रिटायरमेन्ट से पहले। लाखों का बजट तुम्हें दिलाया... जब मैं घोर संकट में हूं तो तुम लोग अपणी जिम्मेदारी से मुंह फेर रहे हो... शरम आणी चाहिए तुम लोगों को...’ मैंने फोन काट दिया तो जनकू का फोन आ गया।’ बाबू जी मुआफ करना। मैंने फागणू के कमरे की तलाशी ली। कपड़े लत्ते संदूकड़ी को खंगालने के बाद फागणू राम के भतीजे का फोन नम्बर मिला। ठियोग में रहता है। उसको फोन पर उसके चाचे की डेथ की इनफरमेशन दे दी है। वो पहुंच रहा है... मैंने पिकअप वाले से भी बात कर ली है। बारह सौ रुपये लेगा संजौली श्मशान घाट पहुंचाणे के। आप संजौली के श्मशान घाट पर ही मिलणा। पिकअप के ड्राइवर को बारह सौ केश पेमेंट कर देणा।’
उम्मीद की किरण जगते ही मेरी सांस में सांस आयी। आखिर जनकू राम को मुझ पर दया आयी या उस बूढ़े, खूसट और जर्जर काया वाले फागणू पर जिसके कमरे में हर रोज़ बैठकर वह पऊआ गटक लेता था।
टैक्सी ड्राइवर खूब रफ्तार से कार दौड़ा रहा था। अब मुझे गन्तव्य पर पहुंचने की ज़ल्दबाज़ी नहीं थी। अब मैं संजौली के श्मशानघाट पहुंचूंगा। फागणू का शव लेकर उसका भतीजा भी वहीं मिलेगा।
‘साहब। आप कुछ परेशान लग रहे हैं। माथे पर पसीना है। दिसम्बर है। आपने स्वैटर जैकेट भी पहन रखे हैं। सब ठीक तो है न...’
‘हां। वो मेरा एक सर्वेन्ट था। सेब के बगीचे की देखभाल करता था। दो घंटे पहले गुजर गया। उसी वजह से परेशान हूं...।’
‘साहब ये सब ऊपर वाले की माया है। अच्छा आदमी रहा होगा... शायद तभी आप इतने फिक्रमन्द हैं।’ ‘...हां, उसकी अच्छाई की चर्चा तो पूरे गांव में थी... पर तुम ड्राइविंग पर ध्यान दो...’
ड्राइवर ने चुप्पी साध ली।
फागणू का इस दुनिया में कोई नहीं था। बोलता था, दिन भर सेब के पौधों की रखवाली करेगा... बन्दर, लंगूर पौधों की नरम छाल को छील-छील कर हजम कर जाते हैं... चौकीदारी जरूरी है...’
फागणू का दयनीय, निरीह मासूम-सा चेहरा, ठूंठ-सी काया देखकर मेरा दिल पसीज गया था।
‘कितणे पैसे लेगा?’
‘पांच हजार महीना।’उसकी आंखों मैं याचना भाव था।’
‘चार मिलेंगे।’ वो राजी हो गया।
उसे ठौर-ठिकाना क्या मिला, चन्द रोज़ में ही मुझ पर हावी होने लगा, ‘साब जी। ये सारे गांव वाले कमीन जात हैं। आपके मुंह पर आपसे ही-ही... करते हैं। पीठ पीछे बुरा-भला कहते हैं। आप चाहे सारी दौलत इन पर लुटा देणा, ये कभी आपके नहीं होंगे।’
‘क्यों बेकार की बातें करता है तू। मुझे किसी से कोई रिश्ता जोड़ना है क्या? हां, तू कह रहा था बन्द गोभी बीजेगा। देसी राजमाह पैदा करेगा, फ्रासबीन लगायेगा...’ सब होगा। साब जी।’
दो महीने बाद बगीचे पर गया तो खेत हरी-भरी सब्जियों से लहलहा रहे थे। बोला, ‘साब जी, वो जनकू राम घास मांग रहा था। मैंने मना कर दिया।’
‘मैं स्तब्ध। नौकर है या मालिक? बीस साल से जनकू राम बरसात में पैदा होने वाले घास को काट रहा था, ‘बगीचे की साफ-सफाई, कंटीली झाडि़यों को काटना जरूरी है तभी तो फले-फूलेंगे सेब के पौधे। ज़मीन की साफ-सफाई के बदले घास ही तो ले रहा हूं। मजूरी तो मांग नहीं रहा।’ जनकू ने तर्क दिया था।
‘तूने जनकू को घास के लिये क्यों मना किया। वो तो बीस साल से मुफ्त में काट रहा है।’
‘साब जी। आप सीधे तो हो ही। बेवकूफ भी हो। मैंने बिमला से बात की है। दूसरे गांव से आयी थी। घास खरीदने, सर्दियों में अगर घास न मिले तो उसकी गाय भूखी मर जायेगी। पांच हजार पकड़ा गयी है। ये लो घास के पैसे।’ फागणू ने पांच हजार के मैले-कुचैले नोट मेरे हाथ में रख दियेे। मैं उसकी बला की समझ-बूझ से अभिभूत-सा हो गया। कलियुग में ऐसा ईमानदार केयरटेकर?
‘साब जी। ये जनकू राम एक नम्बर का चोर। आपका कीमती घास मुफ्त में हजम करता रहा। एक लाख का चूना लगा गया आपको बीस बरस में। आप इसकी मीठी-मीठी बातों में आकर उल्लू बने रहे।’
इस साल दिवाली से पहले मैं फागणू के लिये मिठाई, अपना पुराना कोट, स्वैटर लेकर गया। उसके चेहरे पर आत्मीयता बोध, खुशी की बला की चमक थी।
‘ये रहे आपके राजमाह।’ उसने दस-बारह किलो की थैली मेरे सामने रख दी। मैं तब दंग रह गया जब उसने बन्द गोभी की बिक्री के बाईस हजार मेरे हाथों में थमा दिये। सारे खर्चे निकालकर बिक्री के यही पैसे मिले। बेमिसाल ईमानदारी, कर्तव्य बोध और उसके लगाव ने मुझे रुला दिया, ‘यू आर ए ग्रेट सोल फागणू।’
उसके मैले-कुचैले कपड़ों से आज मुझे दुर्गंध की बजाय अपने बगीचे की सौंधी मिट्टी की महक महसूस हुई थी।
ठीक पांच बजे मैं संजौली पहुंच गया था। टैक्सी ड्राइवर को तीन हजार अदा कर मैं पैदल ही श्मशान घाट की ओर चल पड़ा। इस दरम्यान मैंने एक दुकान से कफन का कपड़ा, हवन सामग्री आदि छोटा-मोटा सामान खरीद लिया था।
‘श्मशान घाट के प्रमुख द्वार पर जब मैं पहुंचा तो चन्द कदमों के फासले पर पिकअप वैन और उसके साथ खड़े तीन-चार लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। अजनबी थे। उनमें जनकू राम था, गांव का कोई भी आदमी नहीं था।’
‘आप...?’ मेरे पास चालीस साल के आसपास उम्र का एक लड़का आया। बुझा-बुझा सा चेहरा लिये हुए।
‘जी मैं डीके। देवेन्द्र कुमार।’
‘आप ही के यहां नौकर था मेरा चाचा।’
‘जी... चार साल से... बहुत ही नेकदिल इनसान था फागणू...’ मेरी आंखें भर आयीं। लाश को नीचे उतार कर दाह-संस्कार स्थल के पास रख दिया गया। पिकअप के ड्राइवर ने मेरे कान में फुसफसाया, ‘सर जी वो बारह सौ रुपये...’ मैंने तुरन्त रकम अदा कर राहत की सांस ली।
फागणू राम का भतीजा बोला, ‘कमीनेपन पर उतर आया, सोलह सौ रुपये मांग रहा है श्मशानघाट का केयरटेकर, चिता की लकड़ी के। तुम फिक्र मत करो... सर, लकड़ियां गीली हैं। दोपहर को हल्की बारिश हुई थी... पेट्रोल लाना पड़ेगा... फागणू के भतीजे के एक दोस्त के पास कार थी। वो मुझे पेट्रोल पम्प ले गया। मैंने दो बड़ी कैनियों में पेट्रोल भरवा लिया। छह सौ देकर।’
मैं काफी देर चिता के करीब बैठा रहा।
‘ठीक है। तुम लोग देख लेना। मैं थक गया हूं। कोई कमरा देखता हूं। किसी होटल में रात के लिये।’
‘मैं चाचा की लाश गाड़ी में रखने से पहले कोठरी में गया था। सन्दूकची का ताला तोड़ा। उसमें एक कागज़ में लिपटे मुझे बतीस हजार रुपये मिले। अपनी किरया करम का बन्दोबस्त खुद ही कर गया था... चाचा।’
हे ईश्वर! मेरे चार हजार से हर महीने बचत कर फागणू राम ने बड़ी राशि जोड़ रखी थी। उसके तथाकथित भतीजे की तो लाटरी लग गयी थी। खुदा जाने वो सच में फागणू का सगा है भी या कोई बहरूपिया?
‘इतने ज्यादा?’ मैं विस्फारित नेत्रों से उसे देखता रहा।
‘कोई बैंक खाता तो नहीं खुलवाया था आपणे मेरे चाचा का? उसमें भी कुछ पैसे मिल सकते हैं।’ भतीजे की सवालिया निगाहें मेरी और उठीं।
‘नहीं। क्रोध से मेरी आंखों में शोले भड़कने लगे। दिल हुआ फागणू के भतीजे को एक जोरदार झापड़ रसीद कर कहूं, ‘यू बास्टर्ड... अपने चाचा की लाश में भी मुनाफा खोज रहा है...?’ पर यह मेरा महज़ ख्याली पुलाव था।
मैं श्मशानघाट से संजौली की ओर जाने वाले रास्ते पर तेजी से डग भरने लगा। मुझे लगा फागणू की चिता से उठने वाली लपटें मेरा पीछा कर रही हैं और वो मुझसे मुखातिब है, ‘साब जी आप ताउम्र सीधे ही रहे...।’

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