छंद में बंधी मुक्त रचनाएं
अशोक मलिक
पुस्तक : चालती चाक्की लेखक : सत्यवीर नाहड़िया प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन, मेरठ पृष्ठ : 112 मूल्य : रु. 180.
कार्टून की तरह समाचारपत्रों में कविता स्तंभों का चलन काफी पुराना है। रोज़-रोज़ सामयिक विषय पर चुटीली टिप्पणी लिखना या चंद रेखाओं में कुछ खास कहना या दिखाना कितना मुश्किल है, यह करने वाला ही जानता और जान सकता है। इसके लिए लगातार सोचने और आसपास के घटनाक्रम पर पैनी नज़र, स्पष्ट चिंतन, धारदार शब्द चयन की जरूरत होती है।
दैनिक ट्रिब्यून में एक दशक से भी अधिक समय से प्रकाशित हो रहे ‘चालती-चाक्की’ कविता स्तंभ का यह संकलन लेखक की इन विविध चुनौतियों से दो-चार होने की क्षमता का गवाह है। एक दशक से अधिक समय से चल रहे स्तंभ में प्रकाशित कई हज़ार कुंडलियों में से 300 का प्रस्तुत चयन विविध विषयों को छूने और पाठकों तक पहुंचाने की उनकी कोशिश की रोचक बानगी है। स्थानीय समस्याओं के साथ-साथ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर हरियाणवी में उनकी छह पंक्तियों के कुंडलियां छंद में बंधी रचनाएं लोकप्रियता की कसौटी पर खरी उतरी हैं। संकलित कुंडलियों के संदर्भ को स्पष्ट करने के लिए इनके साथ प्रकाशन तिथि देना उपयुक्त होता।
संग्रह के कुछ अंश, जहां स्थानीय समस्याओं को वैश्विक या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखे गये हैं, वे आकर्षक बन पड़े हैं; उदाहरणत: ‘धरती मां के ताप तै, हाल हुया बेहाल…’ (13)। पंद्रहवीं कुंडली में कवि ने ‘धरती माई मंच सै, कलाकार नर नार…’ में शेक्सपियर के वर्ल्ड इज़ ए स्टेज को ठेठ हरियाणवी लहज़े में प्रस्तुत किया है। समाज की विकृतियों की तरफ तीखे शब्दों में ध्यान दिलाकर (आओ फुक्कां देस नै गाकै अपणे राग…’ (125) कवि ने सामाजिक सोच को झकझोरने का कर्तव्य बखूबी निभाया है। पुस्तक की सज्जा अच्छी है। कई जगह स्पेलिंग गलत हैं, शायद इसलिए क्योंकि प्रकाशक या संपादक हरियाणवी शब्दों को ठीक से पहचान नहीं पाए, ग्यारस कहीं-कहीं ग्यायस बन गई और बिसवास बिस्सवास हो गया।