For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

बिखरा विपक्ष और समान नागरिक संहिता

06:34 AM Jul 03, 2023 IST
बिखरा विपक्ष और समान नागरिक संहिता
Advertisement
राजेश रामचंद्रन

अब जबकि आगामी लोकसभा चुनाव में महज नौ महीने बाकी हैं, विपक्ष में एकता के आसार बनने से पहले ही बिखराव दिख गया है। दोहरे मानदंड और बोल राजनीति की पहचान बन चुके हैं और यही कुछ पटना में अपनी राजनीतिक किस्मत फिर बनाने के लिए एकत्र खिलाड़ियों के जमावड़े में देखने को मिला। जब 23 जून को विपक्षी एकता बनाने के महासम्मेलन में मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ गर्मजोशी से मंचासीन थे ठीक उसी दिन देश की एकमात्र सत्तासीन मार्क्सवादी सरकार ने केरल में कांग्रेस के प्रदेश प्रधान को गिरफ्तार कर लिया और न्यायालय के आदेश के बाद ही छोड़ा। मानो घोटाला-ग्रस्त केरल की मार्क्सवादी सरकार ऐसा करके भाजपा के चोटी के नेतृत्व को विपक्षी एकता को पटरी से उतारने का संकेत दे रही हो। इसी बीच, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच दिल्ली अध्यादेश पर गतिरोध बरकरार है। वहीं अब, पंजाब में राज्य कांग्रेस ने ‘आप’ को आरएसएस-भाजपा की ‘बी टीम’ करार दिया है।
पिछले नौ सालों में जनता के बीच ‘नरेंद्र मोदी फिर से’ का जादू काफी कमजोर पड़ा है। यदि कर्नाटक विधान सभा चुनाव परिणामों की तुलना 2018 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को स्थानीय मुद्दों पर मिली हार से की जाये, तो यह तथ्य है कि देश के कई हिस्सों और केंद्र सरकार में भाजपा शिथिल पड़ी है। पिछले एक दशक से बढ़ रही महंगाई और बेरोजगारी के परिप्रेक्ष्य में इस बार मोदी के लिए अपनी गद्दी बरकरार रखना आसान नहीं होगा। हिंदुत्व का नारा– पश्चिमी जगत द्वारा भारतीयों को सांप्रदायिकता में रंगने की हरचंद कोशिशों के बावजूद– घटिया जीवन स्तर से पैदा जनाक्रोश को कम करने का उपाय नहीं रहा। यह माहौल वह बढ़िया जमीन पेश करता है, जिसमें विपक्ष को भाजपा से सत्ता छीनने के लिए एकता का हल चलाना चाहिये था।
लेकिन भारत के मौजूदा विपक्ष में संरचनात्मक समस्या है, जो विभिन्न दलों की एकजुटता में बाधा है। कभी अपने अच्छे दिनों में देशभर पर राज कर रही कांग्रेस का सामना करना आसान था, मसलन, 1989 का आम चुनाव। उस वक्त कांग्रेस का निर्विवादित शासन कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था। देश के कई हिस्सों में कांग्रेस विरोधी गठजोड़ का प्रत्येक घटक अपने-अपने इलाके में प्रभावी था, इससे एकजुटता आसान बन सकी। मसलन, पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कुल मिलाकार 64 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस के सामने एकमात्र विपक्ष के रूप में वाम मोर्चा था। इसी तरह 42 सांसदों वाले संयुक्त आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के सम्मुख केवल तेलुगू देशम पार्टी की चुनौती थी, वहीं 48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठजोड़ कांग्रेस का मुख्य विरोधी था, हिंदी पट्टी में लोहियावादी जनता परिवार में हालांकि सदा आपसी खींचतान रही, लेकिन संघ परिवार के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाकर सत्ता बनाने में सफल रहे।
किंतु आज की तारीख में, यह स्थिति भाजपा-विरोधी विपक्षी दलों के साथ नहीं है, वे देश में एक-एक इंच राजनीतिक जमीन पाने के लिए आपस में भिड़ते रहते हैं। यहां अगर पश्चिम बंगाल को बतौर उदाहरण लें तो मार्क्सवादियों का सफाया करके सत्ता हासिल करने से पहले, कांग्रेस को खत्म करके तृणमूल कांग्रेस ने खुद को मुख्य विरोधी दल के रूप में स्थापित किया। आज भी, वामदल और कांग्रेस ममता बनर्जी के साथ आने को राजी नहीं। इसलिए, ममता के लिए राजनीतिक रूप से ऐसी कोई वजह नहीं कि वे राहुल का बतौर अगला प्रधानमंत्री अभिषेक करें। यही मामला केरल के वामदलों का है। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन पर बड़े-बड़े लाछनों के बावजूद, बहुत उदारता से बर्ताव करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने विजयन के खिलाफ सीबीआई द्वारा दायर मुकद्दमों की सुनवाई अप्रैल माह में 33वीं बार अगली तारीख तक स्थगित कर दी है। कल्पना करें कि क्या सीबीआई किसी अन्य विपक्षी नेता को इतनी छूट देगी। तर्क एकदम सरल है - केरल में भाजपा और मार्क्सवादियों की साझा दुश्मन है कांग्रेस पार्टी।
महाराष्ट्र में, सत्तारूढ़ गठबंधन लोगों के साथ राबता रखने में ढुलमुल है और लगता है इसका फायदा लेकर पवार काफी कुछ हासिल कर लेंगे। यह महाराष्ट्र और बिहार ही हैं, जहां विपक्षी एकता की बात कर सकते हैं। लेकिन फिर, ऐसा कोई करार नहीं है जिसे तोड़ा न जा सके। जैसा कि शरद पवार ने अपनी ‘राजनीतिक गुगली’ से दर्शाया था जब अपने भतीजे के जरिये 2019 में देवेन्द्र फड़नवीस के साथ मिलकर सरकार बनाने की शपथ लेने से ऐन पहले अपना मन बदल लिया था। और फिर ‘वोट-कटवा’ या ‘वोटें विभक्त करने वाले’ दल, जैसे कि ओवैसी की अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन या तेलंगाना की सत्तासीन भारत राष्ट्र समिति, जिनकी भूमिका कांटे के मुकाबले में बहुत अहम हो जाती है। इस परिदृश्य में भाजपा ने 2024 में समान नागरिक संहिता को मुख्य मुद्दा बनाने की घोषणा कर दी है। संघ परिवार के कोर-एजेंडा के अन्य मुद्दों से इतर, समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए संवैधानिक अपेक्षा है, जिसको संविधान सभा में बहस के बाद अंततः नीति-निर्देशक सिद्धांतों में शामिल कर लिया गया था।
कांग्रेस या कोई भी विपक्षी दल 2024 में भाजपा राज को लेकर लोगों में बने रोष के सहारे हराने की हसरत रखता है। इसलिए विपक्षियों का अभियान भाजपा के खिलाफ बने नकारात्मक-वोट हासिल करने का है। समान नागरिक संहिता की चाल से भाजपा भी विपक्षियों के लिए ठीक वही करना चाहती है। एक प्रगतिशील राष्ट्र के लिए समान नागरिक संहिता एक सभ्यतागत जरूरत है। कोई देश इस बात की इजाजत नहीं दे सकता कि समाज के अत्यंत दकियानूसी तत्व अन्य लोगों को धर्म के नाम पर बंधक बनाकर रखें। सर्वोच्च न्यायालय ने पांच विभिन्न मामलों में समान नागरिक संहिता लागू करने को कहा है और समाज को रूढ़िवादी धर्मगुरुओं के चंगुल से बचाने के लिए समान नागरिक संहिता वाकई पहला कदम है। यदि विपक्षी दल समान नागरिक संहिता पर सहमत होने से इंकार करते हैं तो यह वोटों के ठेकेदारों के जरिये दकियानूसी मुस्लिम वोट पाने की खातिर तुष्टिकरण होगा।
किसी अन्य मुद्दे की अपेक्षा समान नागरिक संहिता पर छिड़ी बहस विपक्ष के धर्म-निरपेक्षता और प्रगतिशीलता संबंधी दावों की हवा निकाल देगी। विपक्ष का यह तर्क कि मुद्दे का राजनीतिकरण किया जा रहा है, व्यर्थ है। क्योंकि रूढ़िवादी मौलानाओं की महत्ता कायम रखने की खातिर समान नागरिक संहिता का विरोध निकृष्टम राजनीतिक पैंतरा माना जाएगा, जिसकी अपेक्षा किसी राजनीतिक दल से नहीं है। आखिरकार, शाह बानो मामले में दिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलट देना और सलमान रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर पाबंदी लगाने जैसे काम कांग्रेस को उसकी राजनीतिक वैधता से महरूम करते हैं। ठीक है, भाजपा के लिए, समान नागरिक संहिता और कुछ न होकर हिंदुत्व एजेंडा का हिस्सा है, जिसका इस्तेमाल वह बतौर बढ़िया राजनीतिक हथियार करना चाह रही है, लेकिन यहां गलती विपक्ष की है, जिसका उपयोग करके भाजपा को ध्यान भटकाने वाली अपनी चालें चलने का मौका मिल रहा है। विपक्ष, खास तौर से वामपंथी, जब कांग्रेस के मुस्लिम वोटों को विभाजित करने की पुरजोर कोशिश करते हुए यूसीसी का विरोध करते हैं, तो वे हमेशा के लिए अपना नैतिक विवेक खो देंगे।

Advertisement

लेखक प्रधान संपादक हैं।

Advertisement
Advertisement
Tags :
Advertisement