जूतों पर क़िस्मत
हरे प्रकाश उपाध्याय
उमर चौदह की भी नहीं है
पर देखो बातें करता कितनी बड़ी-बड़ी है
कह रहा, साहब करा लीजिए बूट पॉलिश
कहां भागे जा रहे
ज़िंदगी लंबी है, ऐसी क्या हड़बड़ी है
इन जूतों को भी देखिए,
कितनी धूल पड़ी है
इतने प्यार से मनुहार से बोला कि रुक गया
न जाने उसकी आंखों में क्या था, झुक गया
कहा आपके जूतों पर क़िस्मत हमारी
आप समझते तो होंगे ही हमारी लाचारी
आपके जूतों के सहारे ही
कटती है ज़िंदगी हमारी
मारकर पॉलिश जूते नये बना दिये
चमक में चेहरे दिखा दिये
बोला साहब दस रुपये दीजिए
बोहनी भी नहीं हुई है, टूटे ही दीजिए
जबकि दिन के बारह बजने लगे थे
सूरज दादा सिर पर टहलने लगे थे
कौन बेरहम जो इसका भाग्य
ऐसे लिखने लगे थे
कहने लगा सुबह से कुछ खाया नहीं है
आया है कमाने सुबह से,
घर में बताया नहीं है
दोपहर तक कुछ भी तो कमाया नहीं है
कल जो कुछ कमाया, बचाया नहीं है
कल एक साहब ने मारा था
पता नहीं क्या गलती थी मेरी
लगता है, कहीं और का गुस्सा उतारा था
जाने दीजिए, यही भाग हमारा था
चलते-चलते बोला, साहब फिर आइएगा
कोई काम हो मेरे लायक तो बताइएगा!